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शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

सरमाएदारों का प्यादा ...

ख़ुदा  को  सामने  रख  कर  बताओ,  क्या  इरादा  है
हमारा  दर्द  कम  है  या  तुम्हारा  शौक़  ज़्यादा  है  ?

हमारी  अक़्ल  पर  पत्थर  पड़े  थे  या  कि  क़िस्मत  पर
मिला  जो  हमनफ़स  हमको,  सरासर  शैख़ज़ादा  है 

तुम्हीं  जानो,  हमारा  साथ  तुम  कैसे  निभाओगे
तुम्हारे  शौक़  शाही  हैं,  हमारी  लौह  सादा  है

नदामत  को  हमारी  और  किस  हद  तक  उतारोगे
तुम्हारे  पांव  के  नीचे  हमारा  ही  बुरादा  है

शहंश:  ही  सही,   लेकिन  तुम्हें  पहचानते  हैं  सब
तुम्हारी  नंग  के  सर  पर,  शराफ़त  का  लबादा  है

ख़ुदा  ने  क्यूं  अवामे-हिंद  से  यह  दुश्मनी  की  है
शहंशाहे-वतन  सरमाएदारों  का  प्यादा  है

ज़ुबां  पर  वो  हमारी  लाख  पाबंदी  लगा  डालें
ग़ज़ल  हर  हाल  में  हो  कर  रहेगी  आज,  वादा  है !

                                                                                             (2014)

                                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हमनफ़स: साथी, चिर-मित्र; सरासर: पूर्णतः; शैख़ज़ादा: धर्मोपदेशक की संतान; लौह: व्यक्तित्व; नदामत: लज्जा; बुरादा: लकड़ी काटने-छीलने में बिखरे हुए अंश, छीलन; शहंश:: शहंशाह का लघु; नंग: नग्नता; शराफ़त: सभ्यता; लबादा: सर से पांव तक आने वाला वस्त्र, आवरण; अवामे-हिंद: भारत के जन-सामान्य; शहंशाहे-वतन: देश का शासक; सरमाएदारों: पूँजीपतियों; प्यादा: पैदल सैनिक, शतरंज का सबसे छोटा मोहरा; ज़ुबां: जिव्हा, वाणी; पाबंदी: प्रतिबंध।


गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

घर जला दें क्या ?

ग़ज़ल  के  शौक़  की  ख़ातिर  हम  अपना  घर  जला  दें  क्या  ?
बुज़ुर्गों  की  विरासत  ख़ाक  में  यूं  ही  मिला  दें  क्या  ?

हमें  मालूम  है,  मसरूफ़  हो  तुम  इन  दिनों,  लेकिन
उमीदों  को  हमेशा  के  लिए  दिल  में  सुला  दें  क्या  ?

बग़ावत  के  लिए  तुमको  हमारे  साथ  रहना  है
अकेले  हम  यज़ीदी  तख़्त  का  पाया  हिला  दें  क्या  ?

चलो,  माना  कि  ग़ालिब  का  बहुत-सा  क़र्ज़  है  हम  पर
मगर  उसके  लिए  अपने  फ़राईज़  ही  भुला  दें  क्या  ?

बहुत  अरमान  है  तुमको  ख़ुदा  से  बात  करने  का
कहो  तो  आज  ही  उसको  तुम्हारे  घर  बुला  दें  क्या  ? 

परख  कर  देख  लो  तुम  भी  दलीलें  ख़ूब  वाइज़  की
किराए  पर  तुम्हें  हम  ख़ुल्द  में  कमरा  दिला  दें  क्या  ?

हमें  डर  है,  हमारे  बाद  तुम  तन्हा  न  हो  जाओ
बता  कर  मौत  की  तारीख़,  हम  तुमको  रुला  दें  क्या  ?

                                                                                                  (2014)

                                                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शौक़: रुचि; ख़ातिर: हेतु; बुज़ुर्गों: पूर्वजों; विरासत: उत्तराधिकार; ख़ाक: राख़, धूल; मसरूफ़: व्यस्त; बग़ावत: विद्रोह; 
यज़ीद: हज़रत मुहम्मद स. अ. का समकालीन एक ईश्वर-द्रोही, अत्याचारी शासक, जिसने कर्बला में उनके उत्तराधिकारियों की हत्याएं कराईं; पाया: स्तंभ; ग़ालिब: हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब, उर्दू के महानतम शायर; फ़राईज़: कर्त्तव्य (बहु.); अरमान: उत्कंठा; दलीलें: वाद-प्रतिवाद; वाइज़: धर्मोपदेशक; ख़ुल्द: स्वर्ग; तन्हा: एकांतिक।

बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

ख़ुद्दार बनते हैं...

साझा आसमान: दूसरी सालगिरह 

आदाब अर्ज़, दोस्तों !
आज आपके पसंदीदा ब्लॉग 'साझा आसमान' की दूसरी सालगिरह है।
इन दो सालों में 'साझा आसमान' दुनिया के तक़रीबन हर छोटे-बड़े मुल्क तक पहुंचा। लेकिन, यह कामयाबी आपके मुसलसल त'अव्वुन के बिना मुमकिन नहीं थी। यह भी एक इत्तिफ़ाक़ है कि 'साझा आसमान' के क़ारीन में जितने लोग हिंदोस्तानी हैं, उससे भी ज़्यादह दीगर मुमालिक के हैं !
बहुत-बहुत शुक्रिया, दोस्तों ! इतने लंबे वक़्त तक साथ देते रहने के लिए । इंशाअल्लाह, यह साथ आगे भी इसी तरह चलता रहेगा।
इस मौक़े पर एक ताज़ा ग़ज़ल आपकी ख़िदमत में पेश है:

बड़े  ख़ुद्दार  बनते  हैं... 

ख़ुदा  के  नाम  से  पहले,  तुम्हारा  नाम  लेते  हैं
मुअज़्ज़िन  किसलिए  ये  शिर्क  का  इल्ज़ाम  लेते  हैं  ?

तुम्हीं  बतलाओ  क्या  तुमने  ख़ुदा  का  दिल  चुराया  है
नहीं  तो  लोग  क्यूं  खुल  कर  तुम्हारा  नाम  लेते  हैं  ?

न  जाने  कौन-सा  जादू  किया  तुमने  मुहल्ले  पर
तुम्हारा  ज़िक्र  चलते  ही  सभी  दिल  थाम  लेते  हैं

हमारा  नाम  तक  सुनना  न  था  जिनको  गवारा  कल
वही  अब   रोज़  हमसे  इश्क़  का  पैग़ाम  लेते  हैं

हुनर  सीखा  कहां  से  आपने  ये  दिलनवाज़ी  का
हमीं  पर  वार  करते  हैं,  हमीं  से  काम  लेते  हैं

हमें  पूरा  यक़ीं  है,  तुम  मिलोगे  आज  महफ़िल  में
तुम्हारी  याद  को  हम  सूरते-इलहाम  लेते  हैं

बड़े   ख़ुद्दार  बनते  हैं  हमारे  सामने  आ  कर
अंधेरे  में  वही  सरकार  से  इकराम  लेते  हैं  ! 

                                                                                   (2014) 

                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला; शिर्क: ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य को पूजना, अधर्म; इल्ज़ाम: आरोप; ज़िक्र: उल्लेख, चर्चा; पैग़ाम: संदेश; हुनर: कौशल; दिलनवाज़ी: मन रखना, प्रगाढ़ मैत्री; वार: प्रहार; यक़ीं: विश्वास; महफ़िल: गोष्ठी, सभा; सूरते-इलहाम: देव-वाणी की भांति; ख़ुद्दार: स्वाभिमानी; इकराम: पारितोषिक, अनुग्रह।

मंगलवार, 28 अक्तूबर 2014

...शाने-ख़ुदी भी रहे !

बेरुख़ी  भी  रहे,  दोस्ती  भी  रहे
होश  के  साथ  कुछ  बेख़ुदी  भी  रहे

ख़ूब  है  आपकी  महफ़िलों  का  चलन
आरज़ू  भी  रहे,  बे-बसी   भी  रहे

मश्विरा  है  यही  साहिबे-हुस्न  को
हो  अना  तो  कहीं  दिलकशी  भी  रहे

चश्मबाज़ी  करें,  रोकता  कौन  है
क़त्ल  करते  हुए  आजिज़ी  भी  रहे

वो  शबे-तार  के  ख़्वाब  में  आएं,  तो
हौसला  भी  रहे,  रौशनी  भी  रहे

है  तरक़्क़ी  मुकम्मल  तभी  मुल्क  की
शाह  के  सोच  में  मुफ़लिसी  भी  रहे

हो      सुजूदे-वफ़ा   की    यही     इंतेहा
सर  झुके  यूं  कि  शाने-ख़ुदी  भी  रहे  !

                                                                      (2014)

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: बेरुख़ी: उपेक्षा; बेख़ुदी: आत्म-विस्मृति; महफ़िलों: सभाओं; चलन: प्रथा; बे-बसी: विवशता; मश्विरा: परामर्श; साहिबे-हुस्न: सौंदर्य के स्वामी, सुंदर; अना: अहंकार; दिलकशी: मनमोहकता; चश्मबाज़ी: दृष्टि-प्रहार; क़त्ल: वध; आजिज़ी: विनम्रता; शबे-तार: अमावस्या; ख़्वाब: स्वप्न; हौसला: उत्साह; तरक़्क़ी: प्रगति, विकास; मुकम्मल: परिपूर्ण; मुल्क: देश; मुफ़लिसी: निर्धनता; सुजूदे-वफ़ा: आस्था व्यक्त करने के लिए प्रणिपात; इंतेहा: अतिरेक, सीमा; शाने-ख़ुदी: अस्मिता का सम्मान। 

रविवार, 26 अक्तूबर 2014

ये दरबारे-हुसैनी...

शहीदाने-वफ़ा  के  ख़ून  से  तहरीर  लिक्खी  है
ख़ुदा  ने  कर्बला  की  क्या  ग़ज़ब  तक़दीर  लिक्खी  है 



अज़ल  के  बाद  भी  ज़िंदा  रहेगा  ख़ानदां  उनका
कि  जिनके  नाम  प  तारीख़  ने  शमशीर  लिक्खी  है


कटे  बाज़ू  हज़ारों  साल  दुनिया  को  दिखाएंगे
रग़-ए-अब्बास  में  मौला,  तिरी  तासीर  लिक्खी  है


ज़मीं-ए-कर्बला  में  फिर यज़ीदी  सोच  क़ाबिज़ है
जहां  पर दास्ताने-क़त्ल-ए-शब्बीर  लिक्खी  है


ये  दरबारे-हुसैनी  है,  यहां  फ़िरक़े  नहीं  चलते
यहां  हर  क़ल्ब  में  बस  अम्न  की  तस्वीर  लिक्खी  है ...

(2014)

-सुरेश स्वप्निल 

शब्दार्थ:

शनिवार, 25 अक्तूबर 2014

नज़रिया ग़लत है....

ये  मुमकिन  नहीं  है,  कभी  दिन  न  बदलें
नए  दौर  के  साथ  कमसिन  न  बदलें

मुखौटे  जमा  कर  रखे  हैं  हज़ारों
बदलते  रहें  रोज़,  लेकिन  न  बदलें

सभी  लोग  हैं  मुतमईं  इस  शहर  के
ख़ुदा  भी  बदल  जाए,  मोहसिन  न  बदलें

बदलना  ज़रूरी  लगा  भी  उन्हें  तो
तहय्या  करेंगे,  मिरे  बिन  न  बदलें

नज़रिया  ग़लत  है  नए  हुक्मरां  का
अहद  कीजिए  वो  क़राइन  न  बदलें

ज़माना  कहां  से  कहां  आ  चुका  है
त'अज्जुब  नहीं  क्या  कि  मोमिन  न  बदलें

बड़ी  पुरअसर  है  अज़ां  दुश्मनों   की
अरज़  है  हमारी,  मुअज़्ज़िन  न  बदलें  !

                                                                                (2014)

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मुमकिन: संभव;  दौर: कालखंड;  कमसिन: युवा, कम आयु वाले;  मुतमईं: आश्वस्त;  मोहसिन: कृपालु, प्रेमी;  
तहय्या: सुनिश्चित, दृढ़ संकल्प; नज़रिया: दृष्टिकोण; हुक्मरां: शासक-वर्ग; अहद: प्रण; क़राइन: सभ्यता के प्रतिमान, शिष्टाचार; 
ज़माना: समय; त'अज्जुब: आश्चर्य; मोमिन: आस्तिक जन; पुरअसर: प्रभावी; अरज़: निवेदन, प्रार्थना; मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला।

गुरुवार, 23 अक्तूबर 2014

ख़ुदा मेह्रबां है...!


दिल  बहाने   सुना   नहीं  करता
ख़्वाब   दिन  में  बुना  नहीं   करता

संगदिल  ही  सही  सनम,  लेकिन
क़त्ल  सोचे  बिना  नहीं   करता

एक  सफ़   में  नमाज़   पढ़ता  है
राह  में  सामना  नहीं   करता

कौन   उसका  ग़ुरूर  तोड़ेगा
जो   हमें  आशना  नहीं  करता

ग़ैर  के   ग़म   जिन्हें   सताते  हैं
वक़्त  उनको  फ़ना   नहीं  करता

दिल  अलहदा  दिमाग़  रखता  है
दोस्त-दुश्मन  चुना  नहीं  करता

शाह  क़ातिल,  ख़ुदा   मेह्रबां  है
जुर्म  उसके  गिना  नहीं  करता !

ताज  हो  या  मेयार  ग़ालिब  का
एक  दिन  में  बना  नहीं  करता

शायरों  से  ख़ुदा  परेशां  है
पर,  कहा  अनसुना  नहीं  करता !
                                                            (2014)

                                                    -सुरेश स्वप्निल 

शब्दार्थ: संगदिल: पाषाण-हृदय; सफ़: पंक्ति; ग़ुरूर: गर्व, अहंकार; आशना: मित्र, संगी; ग़ैर: पराया; ग़म: दुःख; फ़ना: नष्ट; 
अलहदा: भिन्न, अलग; क़ातिल: हत्यारा; मेह्रबां: कृपालु; जुर्म: अपराध। 

बुधवार, 22 अक्तूबर 2014

ये कैसी तरक़्क़ी ...

सुना  तो  बहुत  है,  उजाले  हुए  हैं
हक़ीक़त  में  दिल  और  काले  हुए  हैं

हमीं  पर  ख़ुदा  के  सितम  टूटते  हैं
हमीं  क्या  जहां  में  निराले  हुए  हैं  ?

ग़नीमत  है,  दिल  जिस्म  में  है  अभी  तक
मगर  हां,  जतन  से  संभाले  हुए  हैं

चुनांचे,  हमें  भी  बहुत  रंज  होगा
अगर  वो  हवा  के  हवाले  हुए  हैं

ये  कैसी  तरक़्क़ी  कि  दहक़ान  को  भी
मयस्सर  महज़  दो  निवाले  हुए  हैं

शहंशाह  ही  है,  फ़रिश्ता  नहीं  है
कहां  के  वहम  आप  पाले  हुए  हैं ? !

तुम्हीं  कोई  वाहिद  ग़ज़लगो  नहीं  हो
जहां  में  कई  ज़र्फ़   वाले  हुए  हैं

ख़ुदा  भी  बुलाए  वहां  तो  न  जाएं
कि  जिस  ख़ुल्द  से  हम  निकाले  हुए  हैं  !

                                                                        (2014)

                                                               -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: हक़ीक़त: यथार्थ; सितम: अत्याचार; ग़नीमत: अच्छा, उत्तम; जिस्म: शरीर; जतन: यत्न; चुनांचे: अतएव, फलस्वरूप; रंज: खेद; हवाले: हस्तांतरित; तरक़्क़ी: प्रगति, विकास; दहक़ान: कृषक, खेत-मज़दूर; मयस्सर: उपलब्ध; महज़: मात्र; निवाले: कौर; 
फ़रिश्ता: देवदूत; वहम: भ्रम; वाहिद: एकमात्र, विलक्षण; ग़ज़लगो: ग़ज़ल कहने वाला; ज़र्फ़: गहराई, गंभीरता; ख़ुल्द: स्वर्ग, मिथक के अनुसार, आदि-पुरुष हज़रत आदम को ख़ुदा ने स्वर्ग से बहिष्कृत कर दिया था।




शनिवार, 18 अक्तूबर 2014

किसी दिन रो पड़े ...

सादगी  उनकी  क़ह्र  ढाने  लगी
आइनों  पर  बे-ख़ुदी  छाने  लगी

जब  सफ़र  में  रात  गहराने  लगी
सह्र  की  उम्मीद  बहलाने  लगी

रंग  में  आए  नहीं  हैं  हम  अभी
दुश्मनों  की  रूह  घबराने  लगी

एक  रोज़ा  बढ़  गया  रमज़ान  में
मोमिनों  की  जान  पर  आने  लगी

ज़िंदगी  ने  तंज़  कोई  कर  दिया
मौत  वापस  रूठ  कर  जाने  लगी

मुफ़लिसों  की  आह  के  तूफ़ान  से
शाह  की  सरकार  थर्राने  लगी

भूल  से  भी  हम  किसी  दिन  रो  पड़े
आसमां  की  चश्म  धुंधलाने  लगी ! 


                                                                 (2014)

                                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: क़ह्र: आपदा;   बे-ख़ुदी: आत्म-विस्मृति; सह्र: उषा; रूह: आत्मा; रोज़ा: उपवास; रमज़ान: पवित्र माह; मोमिनों: आस्तिकों; तंज़: व्यंग्य; मुफ़लिसों: दीन-हीन; आसमां: देवलोक;  चश्म: आंख, दृष्टि।

शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2014

बहुत ख़राब हैं हम !

हमें  क़रीब  से  देखो,  तुम्हारा  ख़्वाब  हैं  हम
जिगर  संभाल  के  रखना  कि  बे-हिजाब  हैं  हम

न  दिल  में  राज़  न  आंखों  में  मस्लेहत  कोई
किसी  भी  वर्क़  से  पढ़िए,  खुली  किताब  हैं  हम

तमाम  मन्नतों  से  हम  जहां  में  आए  हैं
बुज़ुर्गो-वाल्दैन  का  कोई  सवाब  हैं  हम

तुम्हारा  साथ  निभाएंगे  हर  ख़ुशी-ग़म  में
तरह-तरह  के  रंग  में  खिले  गुलाब  हैं  हम

हमारा  काम  एहतेरामे-हुस्न  है  यूं  तो
किसी-किसी  निगाह  में  बहुत  ख़राब  हैं  हम

हुआ  करें  हुज़ूर  शाहे-हिंद,  हमको  क्या  ?
रियासते-ख़ुलूसो-उन्स  के  नवाब  हैं  हम 

किसी  की  ख़ुल्द,  किसी  का  जहां,  किसी  का  दिल 
जहां  कहीं   रहें,  वहीं  पे   लाजवाब  हैं  हम  !

                                                                                    (2014)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: जिगर: मन; बे-हिजाब: निरावरण; मस्लेहत: गुप्त उद्देश्य; वर्क़: पृष्ठ; बुज़ुर्गो-वाल्दैन: पूर्वज और माता-पिता; सवाब: पुण्य; एहतेरामे-हुस्न: सौंदर्य का सम्मान; निगाह: दृष्टि; शाहे-हिंद: भारत का राजा; रियासते-ख़ुलूसो-उन्स: आत्मीयता और स्नेह का राज्य; नवाब: राजा; ख़ुल्द: स्वर्ग; जहां: संसार ।

बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

रूह में सुबह रखना ...

क़ल्ब   में  दर्द  की  जगह  रखना
विसाले-यार   की   वजह  रखना

नज़र  में  आएंगे   अंधेरे   भी
बचा  के  रूह  में  सुबह  रखना

शह्र   के  रंग-ढंग  ठीक  नहीं
ज़रा  आमाल  पर  निगह  रखना

वो  आ  रहे  हैं  फ़ैसला  करने
दिलो-दिमाग़  में  सुलह  रखना

कभी  न  ख़ुश्क  हों  हसीं  आंखें
बचा  के  अश्क  इस  तरह  रखना

उतर  रहे  हो  जंगे-ईमां  में
ज़ेह्न  में  जज़्ब:-ए-फ़तह  रखना

अभी  हैं  राह  में,  पहुंचते  हैं
ख़ुदा  से  आप  ज़रा  कह  रखना !

                                                                (2014)

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: क़ल्ब: हृदय; विसाले-यार: प्रिय से मिलन; वजह: कारण; रूह: आत्मा, अंतर्मन; शह्र: शहर, नगर; आमाल: आचरण; 
निगह: निगाह का लघु, दृष्टि; दिलो-दिमाग़: मन-मस्तिष्क; सुलह: समझौते की भावना; ख़ुश्क: शुष्क; जंगे-ईमां: निष्ठा का/ वैचारिक युद्ध; ज़ेह्न: मस्तिष्क, ध्यान; जज़्ब:-ए-फ़तह: विजय का भाव।  

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2014

ज़िंदा जवानी चाहिए !

मुल्क  को  ज़िंदा  जवानी  चाहिए
आंख  में    भरपूर    पानी  चाहिए

हो  चुके  वादे  तरक़्क़ी  के  बहुत
अब  इरादों  में  रवानी  चाहिए 

हो  अवध  की  शाम  की  ख़ुशबू  जहां
सुब्ह  काशी   की  सुहानी  चाहिए

मुल्क  के  हालात  के  मद्देनज़र
इक  फ़रिश्ता  आसमानी  चाहिए

सिर्फ़  लौहो-संग  ही  काफ़ी  नहीं
अब  दिलों  में  आग-पानी  चाहिए

हैं  बहुत  चर्चे  शहर  में  आपके
सच  हमें  ख़ुद  की  ज़ुबानी  चाहिए 

मुल्क  में  जब्रो-ज़िना  है,  ज़ुल्म  है
आपको  कैसी  कहानी  चाहिए  ?

रिज़्क़  पाते  हैं  पसीना  बेच  कर
दिल  प'  अपनी  हुक्मरानी  चाहिए  ! 

                                                                (2014)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: इरादों: संकल्पों; रवानी: प्रवाह, गति; हालात: घटनाक्रम; मद्देनज़र: दृष्टिगत; फ़रिश्ता: देवदूत; आसमानी: आकाशीय, दैवीय; लौहो-संग: लौह और पत्थर, शारीरिक शक्ति; आग-पानी: ऊर्जा और संवेदनशीलता; चर्चे: चर्चाएं; ख़ुद की ज़ुबानी: आत्म-वृत्तांत; 
जब्रो-ज़िना: बल-प्रयोग और दुष्कर्म; ज़ुल्म: अत्याचार; रिज़्क़: दो समय का भोजन; हुक्मरानी: शासन, पूर्ण स्वतंत्रता।


सोमवार, 13 अक्तूबर 2014

सर कटेगा एक दिन...

है  असर  बुलबुल  तिरी  फ़रियाद  का
नामलेवा   तक      नहीं    सय्याद  का

लग  रहा  है  शाह  के  आमाल  से
दौर  वापस  आ  गया  शद्दाद  का

मुल्क  का  ईमान  गिरवी  रख  चुके
देखते  हैं  रास्ता  इमदाद  का

लोग  अपना  दिल  उठा  कर  चल  दिए
काम  आसां  कर  गए  नाशाद  का

मुश्किलें  दर  मुश्किलें  आती  रहीं
जिस्म  दिल  ने  कर  दिया  फ़ौलाद  का

मुफ़लिसी  में  कर  रहा  है  शायरी 
क्या  कलेजा  है  दिले-बर्बाद  का  !

वक़्त  मुंसिफ़  है,  इसे  मत  छेड़िए
सर  कटेगा  एक  दिन  जल्लाद  का  !

                                                                           (2014)

                                                                   -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: असर: प्रभाव; बुलबुल: मैना; फ़रियाद: दुहाई, प्रार्थना; आमाल: क्रिया-कलाप; शद्दाद: मिस्र का एक नास्तिक शासक जिसने अपने को ख़ुदा घोषित कर दिया था और इसे साबित करने के लिए एक कृत्रिम जन्नत का निर्माण कराया था; इमदाद: सहायता ('निवेश'); आसां: सरल; नाशाद: असंतुष्ट, दुखी हृदय; जिस्म: शरीर; फ़ौलाद:इस्पात; मुफ़लिसी: विपन्नता; कलेजा: साहस; दिले-बर्बाद: दिवालिया/ध्वस्त व्यक्ति का मन; मुंसिफ़: न्यायकर्त्ता; जल्लाद: वधिक, हत्यारा।


रविवार, 12 अक्तूबर 2014

आपकी ख़ूंरेज़ नज़रें...

इश्क़  में  दिल  भी  जलेगा,  जान  भी
मुफ़्त  में  मिलता  नहीं  एहसान  भी

रहबरों  पर  अब  नहीं  आता   यक़ीं
वो  अगर  क़ुर्बान  कर  दें  जान  भी

इस  क़दर  तोड़े  रिआया  पर  सितम
शाह  से  डरने  लगा  शैतान  भी

हर  कहीं  दंगाइयों  के  रक़्स  से
हैं  परेशां  लोग  सब,  हैरान  भी

आपकी   ख़ूंरेज़  नज़रें  देख  कर
कांप  उठते  हैं  मिरे  अरमान  भी

याद  आता  है  कभी  वो  शख़्स  भी
दे  रहा  था  जो  तुम्हें  ईमान  भी  ?

उड़  गए  तो  लौट  कर  आते  नहीं
हैं    परिंदों  की  तरह   इंसान  भी  !

                                                                 (2014)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: एहसान: अनुग्रह; रहबरों: नेताओं; यक़ीं: विश्वास; क़ुर्बान: बलिदान; रिआया: नागरिक; सितम: अत्याचार; शैतान: दैत्य; रक़्स: नृत्य; परेशां:विचलित;  हैरान: विस्मित; ख़ूंरेज़: हिंसक, रक्तिम; अरमान: अभिलाषा; शख़्स: व्यक्ति; ईमान: आस्थाएं; परिंदों: पक्षियों।

शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

चांद की नाव में....

दुश्मनों  को  ज़रा  सहा  जाए 
आज  ख़ामोश   ही  रहा  जाए

फ़ित्रते-हुस्न  ही  अधूरी  है
चांद  को  क्यूं  बुरा  कहा  जाए

फज्र  तक  इंतज़ार  कर  लीजे
क्या  ख़बर,  वो  क़सम  निभा  जाए

दिल  करे  है  तवाफ़  यारों  का
एक  सज्दा  अता  किया  जाए

मौत  का  वक़्त  तय  नहीं  जब  तक
क्यूं  न  दिल  खोल  कर  जिया  जाए

मंज़िलें  ख़ुद  क़रीब  आती  हैं
सब्र  से  काम  गर  लिया  जाए

दरिय:-ए-नूर  है  शरद  पूनम
चांद  की  नाव  में  बहा  जाए

आख़िरत  की  नमाज़  मत  पढ़िये
दिल  कहीं  होश  में  न   आ  जाए  !

                                                                 (2014)

                                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: फ़ित्रते-हुस्न: सौंदर्य की प्रकृति; फज्र: पौ फटना; इंतज़ार: प्रतीक्षा; तवाफ़: आस-पास घूमना, परिक्रमा; यारों: प्रिय; 
सज्दा: भूमि पर शीश झुका कर प्रणाम; अता: प्रदान; मंज़िलें: लक्ष्य; सब्र: धैर्य; गर: यदि; दरिय:-ए-नूर: प्रकाश की नदी; 
आख़िरत: अंतिम क्षण, मृत्यु का क्षण ।

 


शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

हम दफ़ा हो गए !

नाम  सुन  कर  हमारा  ख़फ़ा  हो  गए
शाह  जब  से  हुए  वो  ख़ुदा  हो  गए

एक  ताज़ा  ख़बर  आपके  भी  लिए
बेवफ़ा  दोस्त  सब  बावफ़ा  हो  गए

एहतरामे-शहादत  उन्हें  भी  मिले
इश्क़  की  राह  में  जो  फ़ना  हो  गए

चंद  अश्'आर  अपने  शम्'अ  से  जले
चंद  अश्'आर  बादे-सबा  हो  गए

ख़ूब  मोहसिन  मिले  हैं  हमें  ज़ीस्त  में
वक़्त  आया  नहीं ,   सब  हवा  हो  गए

तोड़ना  चाहती  थी  हमें  शामे-ग़म
दर्द  लेकिन  हमारी  दवा  हो  गए

दफ़्अतन  लोग  दिल  लूट  कर  ले  गए
और  बस,  हम  शहीदे-वफ़ा  हो  गए

लीजिए,  अब  ज़रा  मुस्कुरा  दीजिए
आपकी  बज़्म  से  हम  दफ़ा  हो  गए  !

                                                                   (2014)

                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़फ़ा: रुष्ट; बेवफ़ा: निष्ठाहीन; बावफ़ा: निष्ठावान; एहतरामे-शहादत: वीरगति पाने का सम्मान; फ़ना: बलिदान; चंद: कुछ; अश्'आर: शे'र का बहुवचन; शम्'अ: दीपिका; बादे-सबा: प्रातः समीर; मोहसिन: अनुग्रहकर्त्ता; ज़ीस्त: जीवन; दफ़्अतन: सहसा; शहीदे-वफ़ा: निष्ठा पर बलि; बज़्म: सभा; दफ़ा: दूर, अदृश्य।


गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

फ़ैसला अच्छा नहीं !

जंग  हो  जज़्बात  की  ये  सिलसिला  अच्छा  नहीं
दोस्ती  में  रात-दिन  शिकवा-गिला   अच्छा  नहीं

उम्र  भर  का  साथ  हो  तो  क्या  ख़ुदी,  कैसी  अना
हमसफ़र  से  हर क़दम  पर  फ़ासला  अच्छा  नहीं

क़ुदरतन  टूटे  क़ह्र  तो  क्या  शिकायत  अर्श  से
सहर:-ए-दिल   में  उठे  जो  ज़लज़ला,  अच्छा  नहीं

रात-दिन  डूबे  हुए  हैं  शायरी  की  फ़िक्र  में
घर  चलाने  के  लिए  ये  मश्ग़ला  अच्छा  नहीं

इब्ने-इन्सां  के  लिए  ये  ज़िंदगी  भी  फ़र्ज़  है
मग़फ़िरत  को  ख़ुदकुशी  का  रास्ता  अच्छा  नहीं

एक  ख़ालिक़,  एक  मालिक,  कौन-सा  फ़िरक़ा  बड़ा ?
रहबरी  के  नाम  पर  ये  मुद्द'आ  अच्छा  नहीं

रह  गईं  हों  जब  रिआया  की  दलीलें  अनसुनी
शाह  के  हक़  में  ख़ुदा  का  फ़ैसला   अच्छा  नहीं  !

                                                                                       (2014)

                                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जंग: युद्ध, संघर्ष; जज़्बात: भावनाएं; सिलसिला: क्रम; शिकवा-गिला: उलाहने; ख़ुदी: स्वाभिमान; अना: अहंकार; हमसफ़र: सहयात्री, जीवनसाथी; फ़ासला: अंतराल, दूरी; क़ुदरतन: प्राकृतिक रूप से; क़ह्र: आपदा; अर्श: आकाश, ईश्वर, नियति; सहर:-ए-दिल: हृदय का मरुस्थल, शुष्क मन; ज़लज़ला: भूकम्प; मश्ग़ला: व्यस्तता, दिनचर्या; इब्ने-इन्सां: मनुष्य-संतान;  फ़र्ज़: कर्त्तव्य; मग़फ़िरत को: मोक्ष हेतु; ख़ुदकुशी: आत्म-हत्या;  ख़ालिक़: सृजन कर्त्ता; मालिक: ईश्वर, ब्रह्म; फ़िरक़ा: संप्रदाय; रहबरी: नेतृत्व, नेतागीरी;   मुद्द'आ: विषय, बिंदु; रिआया: प्रजा, जनसामान्य;  दलीलें: प्रतिवाद;  हक़: पक्ष।  

बुधवार, 8 अक्तूबर 2014

मंहगाई का गहन ...

कल-आज  क़त्ले-आम  का  त्यौहार  तो  नहीं ?
शैतान    कहीं     शाह  पर     सवार  तो  नहीं  ?

सोते  न  जागते  हैं  न  खाते  हैं  चैन  से
फिर  इश्क़  में  जनाब  गिरफ़्तार  तो  नहीं  ?

बेशक़,  हम  आसमां  से  दिले-हूर  ले  उड़े
लेकिन  हम  आपके  भी  गुनहगार  तो नहीं ?

हर  जिन्स  को  लगा  है  मंहगाई  का  गहन
जम्हूर  है,  अवाम  की  सरकार  तो  नहीं  ! 

कहने  को  कह  रहे  हैं  बहुत  कुछ  तमाम  लोग
हालात    बदल  जाएं    ये    आसार  तो  नहीं 

तेवर     ज़रूर     सख़्त   रहे  हों     कभी-कभी 
अफ़सोस !  क़लम  कारगर  हथियार  तो  नहीं !

मुफ़लिस  सही,  फ़क़ीर  सही,  दर-ब-दर  सही
शाही     इनायतों   के     तलबगार     तो  नहीं !

जायज़  है  हक़  हमारा  सुख़न  की  ज़मीन  पर
क़ाबिज़  हैं   जहां  हम,     किराएदार    तो  नहीं  !

अल्लाह    तय  करे    कि  रखेगा     कहां  हमें
हम      मिन्नते-हुज़ूर   को     तैयार   तो  नहीं  !

                                                                         (2014)

                                                                -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: क़त्ले-आम: जन-संहार; दिले-हूर: अप्सरा का हृदय; गुनहगार: अपराधी; जिन्स: उत्पाद, वस्तु; गहन: ग्रहण; जम्हूर: लोकतंत्र; अवाम: जन-साधारण; हालात: परिस्थितियां; आसार: संकेत; तेवर: मुद्राएं; कारगर: प्रभावी; मुफ़लिस: निर्धन; फ़क़ीर: अकिंचन, साधु, भिक्षुक; दर-ब-दर: यहां-वहां भटकने वाला, गृह-विहीन; इनायतों: कृपाओं; तलबगार: अभिलाषी; जायज़: उचित, वैध; हक़: अधिकार; सुख़न: सृजन; क़ाबिज़:आधिपत्य जमाए; मिन्नते-हुज़ूर: ईश्वर की चिरौरी। 


सोमवार, 6 अक्तूबर 2014

...हादसा होता मिलेगा !

तुम्हें  उस  शख़्स  से  धोखा  मिलेगा
जिसे    तन्हाई  में     मौक़ा  मिलेगा

निगाहे-शौक़    को   रुस्वा  न  कीजे
किसी  दिन  हमसफ़र  सच्चा  मिलेगा

हमारे   हाथ   में     भी     हैं    लकीरें 
हमें  भी  कुछ  कहीं  अच्छा  मिलेगा

हमारे  शहर    की    तस्वीर    ये  है
यहां   हर   आदमी    रोता  मिलेगा

जहां-ए-इश्क़  में  देखो  जहां  भी
वहीं  कुछ  हादसा  होता  मिलेगा

लगी  हो  आग  जब  अमराइयों में
मुहाफ़िज़  चैन  से  सोता  मिलेगा

हमामे-बदज़नां   है   ये  सियासत
जिसे  देखो,    वही   नंगा  मिलेगा

ज़ियारत  को  गया  है  दिल  हमारा
धड़कने  को   कहीं    कोना  मिलेगा ?

हमारी  रूह    जब    आज़ाद  होगी
दरे-फ़िरदौस  पर  मौला  मिलेगा

ज़माना   देखते  हैं,    क्या  कहेगा
हमें  जब  नूर  का  तोहफ़ा  मिलेगा !

महज़  पेशीनगोई  मत  समझिए
अमन  अब  वाक़ई  महंगा  मिलेगा !


                                                                (2014)

                                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: शख़्स: व्यक्ति; तन्हाई: एकांत; निगाहे-शौक़: अभिलाषा-पूर्ण दृष्टि, सौंदर्य-बोध; रुस्वा: लज्जित;   हमसफ़र: सहयात्री; जहां-ए-इश्क़: प्रेम का संसार; हादसा: दुर्घटना; मुहाफ़िज़: संरक्षक, रक्षा करने वाला; हमामे-बदज़नां: कुकर्मियों का स्नानागार; सियासत: राजनीति; ज़ियारत: तीर्थयात्रा; रूह: आत्मा; दरे-फ़िरदौस: स्वर्ग का द्वार; मौला: परमेश्वर; ज़माना: समाज; नूर: प्रकाश; तोहफ़ा: उपहार; महज़: केवल;  पेशीनगोई: भविष्य वाणी; अमन: शांति; वाक़ई: सचमुच। 



रविवार, 5 अक्तूबर 2014

ख़ुदा के पास जाना है !

हमारी  भी  हक़ीक़त  है,  तुम्हारा  भी  फ़साना  है
तुम्हें  दिल  को  जलाना  है,  हमें  दिल  आज़माना  है

जुदाई  पर  ग़ज़ल  कह  कर  ज़माने  में  सुनाते  हो
चले  ही  क्यूं  नहीं  आते  अगर  रिश्ता  निभाना  है

नज़रबाज़ी  किसी  का  शौक़  हो  तो  और  क्या  कीजे
उन्हें  बिजली  गिरानी  है,  तुम्हें  सर  को  बचाना  है

शहंशाही  लतीफ़े  आप  अपने  पास  ही  रखिए
कोई  हस्सास  दिल  लाओ,  अगर  हमको  लुभाना  है

वतन  के  साथ  तुमने  जो  हज़ारों  खेल  खेले  हैं
हमें  हर  खेल  के  हर  राज़  से  पर्दा  उठाना  है

ग़रीबों  की  दुआएं  लो,  तुम्हारे  काम  आएंगी
अभी  कुछ  देर  में  तुमको  ख़ुदा  के  पास  जाना  है

हमारे  नाम  से  उसके  पसीने  छूट  जाते  हैं
शहंशह  आज  है,  लेकिन  कलेजा  तो  पुराना  है

हमें  बतलाइए  तो  आपकी  जो  भी  शिकायत  है
हमें  हर  क़र्ज़  अपनी  मौत  से  पहले  चुकाना  है

ये  बेताबी,  ये  बेचैनी,  ये  नींदों  का  हवा  होना
जहां  के  दर्द  ले  लो,  गर  ख़ुशी  से  मुस्कुराना  है

मिटाना  चाहते  हैं  तो  मिटा  दें,  आपकी  मर्ज़ी
हमारा  दिल  नहीं,  ये  पीरो-मुर्शिद  का  ठिकाना  है ! 

हसीनों  का  किसी  भी  हाल  में  हम  दिल  न  तोड़ेंगे
हमें  भी  तो  कभी  अपने  ख़ुदा  को  मुंह  दिखाना  है  !

                                                                                     (2014)

                                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हक़ीक़त: यथार्थ; फ़साना: कहानी; जुदाई: वियोग; नज़रबाज़ी: आंख लड़ाना; लतीफ़े: चुटकुले, हास-परिहास; हस्सास: संवेदनशील;  राज़: रहस्य; पर्दा: आवरण; दुआएं: शुभ कामनाएं; शहंशह: राजाधिराज; कलेजा: जीवट, साहस; क़र्ज़: ऋण; 
बेताबी: अधीरता; बेचैनी: व्याकुलता; जहां: संसार; पीरो-मुर्शिद: संत-सिद्ध व्यक्ति ।

शनिवार, 4 अक्तूबर 2014

राह की शम्'अ ...

दिल  लगा  कर  मुकर  गए  मोहसिन
ख़ुशनसीबी  से   डर  गए  मोहसिन  ?

कोई    इल्ज़ाम   तो   दिया    होता
सर  झुका  कर  गुज़र  गए  मोहसिन

दर्द  मेहमान  की  तरह  आए
दाग़  बन  कर  ठहर  गए,  मोहसिन

आपको  शाहे-दिल  बनाया  था
आप  ही  चोट  कर  गए,  मोहसिन !

हम  फ़क़त  राह  की  शम्'अ  ठहरे
नूर  बन  कर  बिखर  गए,  मोहसिन

किसलिए  मुल्क  से  जफ़ाएं  कीं
ख़्वाब  सारे  बिखर  गए,  मोहसिन !

हम  जहां  अर्श  तक  चले  आए
आप  दिल  से  उतर  गए,  मोहसिन !

                                                               (2014)

                                                      -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: मोहसिन: अनुग्रहकर्त्ता; ख़ुशनसीबी: सौभाग्य; इल्ज़ाम: आरोप; दाग़: कलंक; शाहे-दिल: मन का राजा; फ़क़त: मात्र; 
शम्'अ: दीपिका; जफ़ाएं: निष्ठाहीनता; अर्श: आकाश।

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014

...बिक गए होते !

हम  ज़रा  और  झुक  गए  होते
अर्श  के  मोल  बिक  गए  होते

साथ  देते  तिरी  हुकूमत  का
तो  बहुत  दूर  तक  गए  होते

आपको  मै  नहीं मिली  वर्ना
जाम  छू  कर  बहक  गए  होते

दिल  किसी  का  ख़राब  हो  जाता
हम  ज़रा  भी  सरक  गए  होते

वो  बग़लगीर  तो  हुए  होते
गुल  शहर  के  महक  गए  होते

एक  दिन  आप  घर  चले  आते
लाख  एहसान  चुक  गए  होते

राह  की  मुश्किलें  गिनी  होतीं
सोचते  और  थक  गए  होते  !

                                                                 (2014)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अर्श  के  मोल: आकाशीय, बहुत ऊंचे मूल्य पर; हुकूमत: सरकार; मै: मदिरा; जाम: मदिरा पात्र; बग़लगीर: आलिंगनबद्ध । 

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

सुरूर की बातें ...

झूठ  निकलीं  हुज़ूर  की  बातें
सब  फ़रेबो-फ़ितूर   की  बातें

आप  फ़िरक़ापरस्त  हैं, कहिए
किसलिए  पास-दूर  की  बातें ?

रोज़   दंगा-फ़साद-बदअमनी
सीखिए  कुछ  शऊर  की  बातें

जब  तलक  तख़्त  है,  हुकूमत  है
हैं  तभी  तक  हुज़ूर  की  बातें

शाह  हरगिज़  ख़ुदा  नहीं  होता
बंद  कीजे  ग़ुरूर  की  बातें

दिल  हमारा  उलट-पलट  कीजे
सोचिए  कोहे-नूर  की  बातें

अब  हसीं  रू-ब-रू  नहीं  होते
अब  कहां  वो  सुरूर  की  बातें

आएं  घर  तो  कलाम  कर  लीजे
छोड़िए  कोहे-तूर  की  बातें

और  भी  काम  हैं  अदीबों  के
बस,  बहुत  हैं  हुज़ूर  की  बातें  !

                                                             (2014)

                                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: फ़रेबो-फ़ितूर: धूर्तता और उपद्रव; फ़िरक़ापरस्त: सांप्रदायिक; फ़साद: उपद्रव; बदअमनी: अशांति; शऊर: बुद्धिमत्ता; तख़्त: कुर्सी; हुकूमत: शासन; हरगिज़: कदापि; ग़ुरूर: घमंड; कोहे-नूर: संसार-प्रसिद्ध हीरा; हसीं: सुंदर व्यक्ति; रू-ब-रू: समक्ष; सुरूर: उन्माद; 
कलाम:  संवाद, वार्तालाप; कोहे-तूर: मिस्र के साम में एक पर्वत जहां हज़रत मूसा ख़ुदा के साथ संवाद करते थे; अदीबों: साहित्यकारों।


बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

दिलरुबा कह दिया ...

बेख़ुदी  में  किसी  ने  ख़ुदा  कह  दिया
तो  हमें  आपने  सरफिरा  कह  दिया !

दुश्मनों  के  कलेजे  सुलग  जाएंगे
भूल  से  आपने  दिलरुबा  कह  दिया

लोग  जाने  हमें  क्या  समझने  लगे
आपकी  नज़्म  पर  'मरहबा'  कह  दिया

बेकरां  रात  में  हिज्र  की  दास्तां
आपने  बिन  सुने  बेवफ़ा  कह  दिया

ख़ुशबुओं  की  तरह  अर्श  तक  छा  गए
वो  जिन्हें  हमने  बाद-ए-सबा  कह  दिया

दो-जहां  की  निगाहें  बदल  जाएंगी
गर  हमें  आपने  अलविदा  कह  दिया

एक  दिन  इक  अज़ाँ   अनसुनी  रह  गई
आसमां  ने  हमें  क्या  न  क्या  कह  दिया !

                                                                            (2014)

                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: बेख़ुदी: आत्म-विस्मृति;  दिलरुबा: मन को जीतने वाला; नज़्म: कविता; मरहबा: धन्य, साधु; बेकरां: अंतहीन; 
हिज्र  की  दास्तां: वियोग का आख्यान; बेवफ़ा: निष्ठाहीन; अर्श: आकाश; बाद-ए-सबा: प्रातः की शीतल समीर; 
दो-जहां: दोनों लोक, इहलोक-परलोक; गर: यदि; अलविदा: अंतिम प्रणाम; आसमां: ईश्वर।