इस शब-ए-तार में कुछ निराला तो है
नूर-ए-अल्लाह का कुछ उजाला तो है
ये: तेरा शह्र यूं अजनबी भी नहीं
ख़्वाब में ही सही देखा-भाला तो है
थम गए मेरी आवारगी के क़दम
ठोकरों ने मुझे कुछ संभाला तो है
मुफ़लिसी में भी मेहमां अगर आ रहें
वाजवां हो न हो पर निवाला तो है
मुस्कुरा के गले मिल रहे हैं वो: फिर
दाल में कुछ न कुछ आज काला तो है
रंग लाने लगी है बग़ावत मेरी
वक़्त ने ख़ुद को सांचे में ढाला तो है
बदगुमां हो के भी हमको प्यारा है तू
एक दुश्मन हमें रोने वाला तो है !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: शब-ए-तार: काली रात, अमावस्या; नूर-ए-अल्लाह: ईश्वर का प्रकाश; मुफ़लिसी: कंगाली; वाजवां: कश्मीरी समाज में विवाह के अवसर पर दिया जाने वाला भोज जिसमें 56 प्रकार के मांसाहारी व्यंजन परोसे जाते हैं; बग़ावत: विद्रोह; बदगुमां: बहका हुआ, भ्रमित।
नूर-ए-अल्लाह का कुछ उजाला तो है
ये: तेरा शह्र यूं अजनबी भी नहीं
ख़्वाब में ही सही देखा-भाला तो है
थम गए मेरी आवारगी के क़दम
ठोकरों ने मुझे कुछ संभाला तो है
मुफ़लिसी में भी मेहमां अगर आ रहें
वाजवां हो न हो पर निवाला तो है
मुस्कुरा के गले मिल रहे हैं वो: फिर
दाल में कुछ न कुछ आज काला तो है
रंग लाने लगी है बग़ावत मेरी
वक़्त ने ख़ुद को सांचे में ढाला तो है
बदगुमां हो के भी हमको प्यारा है तू
एक दुश्मन हमें रोने वाला तो है !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: शब-ए-तार: काली रात, अमावस्या; नूर-ए-अल्लाह: ईश्वर का प्रकाश; मुफ़लिसी: कंगाली; वाजवां: कश्मीरी समाज में विवाह के अवसर पर दिया जाने वाला भोज जिसमें 56 प्रकार के मांसाहारी व्यंजन परोसे जाते हैं; बग़ावत: विद्रोह; बदगुमां: बहका हुआ, भ्रमित।