दिलेर शख़्स है सबको गले लगाता है
न जाने इतनी अक़ीदत कहाँ से लाता है
उसे शहर की हर गली से इश्क़ है इतना
कि अपने घर का पता रोज़ भूल जाता है
हज़ार पेच-ओ-ख़म हैं जिगर से चश्म तलक
तलाश-ए -राह में हर अश्क छटपटाता है
तमाम कोशिशें करते हैं भूलने की मगर
पलट-पलट के गया वक़्त लौट आता है
वो: अब्र बन के समंदर पे छा रहा है अब
जो अश्क बन के चश्मे-नम में जगमगाता है
जुनूँ -ए -शौक़ की हद देखिए कि दीवाना
शब-ए -फ़िराक़ में शहनाइयां बजाता है
लिखा हुआ है दिल पे एक नाम, अल्लः का
अज़ान दे के न जाने किसे बुलाता है !
( 2009 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: अक़ीदत: आस्था; पेच-ओ-ख़म: घुमाव और मोड़; अब्र: बादल; अश्क: आंसू; चश्मे-नम: भीगी आंख; जुनूँ -ए -शौक़: लगन का उन्माद; शब-ए -फ़िराक़: वियोग-निशा।
यह ग़ज़ल 2009 में भोपाल से शाया हुए मजमुए original edition में उर्दू रस्मुल ख़त और देवनागरी ,दोनों में शामिल है .