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सोमवार, 30 मई 2016

रस्मे-राहत ...

जश्ने-वहशत  मना  रहे  हैं  वो:
ख़ूब  ताक़त  दिखा  रहे  हैं  वो:

बांट  कर  अस्लहे  मुरीदों  को
और  दहशत  बढ़ा  रहे  हैं  वो:

क़त्ल  करना  सवाब  है  जिनको
क्यूं  मुहब्बत  जता  रहे  हैं  वो:

ताजिरों  को  नियाज़  के  बदले
रोज़  दौलत  लुटा  रहे  हैं  वो:

चंद  दाने  उछाल  कर  हम  पर
रस्मे-राहत  निभा  रहे  हैं  वो:

नस्लो-मज़्हब  में  बांट  कर  दुनिया
क़स्रे-नफ़्रत  बना  रहे  हैं  वो :

कोई  वादा  निभा  नहीं  पाए
तो  सियासत  सिखा  रहे  हैं  वो !

                                                                       (2016)

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जश्ने-वहशत : उन्माद-पर्व ; अस्लहे : अस्त्र-शस्त्र ; मुरीदों : भक्त जन ; दहशत : भय, आतंक ; सवाब : पुण्य-कर्म ; ताजिरों : व्यापारियों ; नियाज़ : भिक्षा ; रस्मे-राहत : सहायता की प्रथा / औपचारिकता ;
नस्लो-मज़्हब : प्रजाति और धर्म ; क़स्रे-नफ़्रत : घृणा का महल ।