ख़ुदा को थी शिकायत तो हमें बतला नहीं देते
हमें ज़ाहिद के घर का रास्ता दिखला नहीं देते
हमारी फ़िक्र थी तो तुम हमारा ग़म समझ लेते
बहानों से हमें तुम इस तरह बहला नहीं देते
ज़रा सा दर्द था नज़रें मिला के दूर कर देते
नक़ब में मुंह छुपा के यूं हमें टहला नहीं देते
बड़े मुर्शिद बना करते हो ये: भी हम ही समझाएं
के: सर पे हाथ रख के क्यूं ज़रा सहला नहीं देते
ग़लत थे हम अगर तो भी तुम्हारा फ़र्ज़ बनता था
हमें दिल से लगा के प्यार से समझा नहीं देते
गए हम जब ख़ुदा के घर हमारे हाथ ख़ाली थे
रहम होता अगर दिल में तो वो: क्या-क्या नहीं देते !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: ज़ाहिद: धर्मोपदेशक; नक़ब: नक़ाब, मुखावरण; मुर्शिद: धर्म-गुरु, पीर; फ़र्ज़: कर्त्तव्य; रहम: दया।
हमें ज़ाहिद के घर का रास्ता दिखला नहीं देते
हमारी फ़िक्र थी तो तुम हमारा ग़म समझ लेते
बहानों से हमें तुम इस तरह बहला नहीं देते
ज़रा सा दर्द था नज़रें मिला के दूर कर देते
नक़ब में मुंह छुपा के यूं हमें टहला नहीं देते
बड़े मुर्शिद बना करते हो ये: भी हम ही समझाएं
के: सर पे हाथ रख के क्यूं ज़रा सहला नहीं देते
ग़लत थे हम अगर तो भी तुम्हारा फ़र्ज़ बनता था
हमें दिल से लगा के प्यार से समझा नहीं देते
गए हम जब ख़ुदा के घर हमारे हाथ ख़ाली थे
रहम होता अगर दिल में तो वो: क्या-क्या नहीं देते !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: ज़ाहिद: धर्मोपदेशक; नक़ब: नक़ाब, मुखावरण; मुर्शिद: धर्म-गुरु, पीर; फ़र्ज़: कर्त्तव्य; रहम: दया।