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मंगलवार, 30 जुलाई 2013

घर किसका जला आया

हुस्ने-फ़ानी  पे   कहां   दिल  को   लुटा   आया  तू
हाय  कमज़र्फ़!   ख़ुदा   किस  को  बना  आया  तू

बेगुनाही   पे   तेरी    किसको    यक़ीं    होगा  अब
बेवफ़ा   हो   के    दाग़    दिल  पे   लगा   लाया  तू

मिल  चुकी  तुझको  शिफ़ा  मर्ज़े-आशिक़ी  से  यूं
नब्ज़    अत्तार   के    बेटे    को    दिखा   आया  तू

बस्तियों  में  लगा  के  आग    इस  क़दर  ख़ुश  है
ख़बर  भी  है  तुझे   घर  किसका   जला  आया तू

तेरी  नेकी  का  सिला  तुझको  मिलेगा  इक  दिन
ग़ोर   पे    आज    मेरी    शम्'अ   जला  आया  तू

तोड़   के     इक    दिले-मासूम    दुआ    पढ़ता  है
अपनी    इंसानियत    मिट्टी  में   दबा  आया  तू

ज़ार   के   सामने    आवाज़    उठा   के   हक़  की
संगे-बुनियाद    हुकूमत   का    हिला    आया  तू !

                                                                   (2013 )

                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हुस्ने-फ़ानी: नाशवान सौन्दर्य; कमज़र्फ़: उथला व्यक्ति; बेगुनाही: निर्दोषिता; यक़ीं: विश्वास; शिफ़ा: आरोग्य; मर्ज़े-आशिक़ी: प्रेम-रोग; अत्तार: दवा-विक्रेता; ग़ोर: क़ब्र, समाधि;  नेकी  का  सिला: पुण्य का फल;दिले-मासूम: निर्दोष का हृदय; 
ज़ार: निर्दय, निरंकुश शासक; हक़: न्याय; संगे-बुनियाद: आधारशिला;    हुकूमत: सत्ता।




सोमवार, 29 जुलाई 2013

रहबरों की वुज़ू

इश्क़   में     घर    लुटाए    फिरते  हैं
शर्म    से     सर   झुकाए    फिरते  हैं

क्या  ग़ज़ल  नज़्म  क्या   दिखावे  हैं
सब     हक़ीक़त   छुपाए    फिरते  हैं

हुस्न   को     कोई   शै     हराम  नहीं
सैकड़ों      दिल    चुराए      फिरते  हैं

आप   यूं   शक़   न  कीजिए   हम  पे
हम   युं   ही     मुस्कुराए    फिरते  हैं

याद    वो:     कर    गए    ग़ज़ल  मेरी
भीड़     में      गुनगुनाए      फिरते  हैं

टोपियों     की       दुकां       चलाते  हैं
और   हम     सर   बचाए     फिरते  हैं

क्या   ख़बर    नींद    कहां    आए  हमें
साथ     बिस्तर     उठाए      फिरते  हैं

शैख़    जी      घिर    गए     हसीनों  में
ख़ुल्द      में      बौख़लाए      फिरते  हैं

रहबरों   की     वुज़ू  को    क्या  कहिए
मालो-ज़र    में      नहाए     फिरते  हैं !

                                            ( 2013 )

                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: हक़ीक़त: यथार्थ; शै: वस्तु, कर्म; हराम: अपवित्र, धर्म-विरुद्ध; दुकां: दूकान; ख़ुल्द: स्वर्ग, जन्नत; रहबर: नेता; 
वुज़ू: नमाज़ के  लिए किया जाने वाला शौच-कर्म; मालो-ज़र: समृद्धि और स्वर्ण।

शनिवार, 27 जुलाई 2013

हमारा ख़ूं-बहा

हमारा  ज़र्फ़    गर  मानिंदे-ए-दरिया    हो  गया  होता
तो  पानी  दो-जहां  के   सर  से  ऊपर   बह  रहा  होता

मरासिम  टूटने  के  बाद   ये:  अफ़सोस   मत  करियो
के:  तुमने  ये:  कहा  होता  के:  शायद  वो:  कहा  होता

ख़बर  क्या  थी  हमें   तुम  ही  हमारे  हो  ख़ुदा   वरना
तुम्हारी   दीद  से  पहले    वज़ीफ़ा    पढ़   लिया  होता

बड़ा  मासूम  क़ातिल  था   के:  'हां'  पे  जां   लुटा  बैठा
हमीं  कुछ  सब्र  कर  लेते   तो  शायद  जी  गया  होता

मेरे  एहबाब   मुंसिफ़  से   अगर   फ़रियाद  कर  आते
तो   तख़्तो-ताज  से   ज़्याद:    हमारा    ख़ूं-बहा  होता

तेरे   इक  फ़ैसले  ने    कर  दिया    बदनाम  दोनों  को
न  जलता  दिल  मेरा  तो  क्यूं  ज़माने  में  धुंवा  होता

ज़रा-सा  वक़्त  मिल  जाता  हवा  का  रुख़  बदलने  का
तो   हम  भी  देखते    कैसे    वो:   हमसे    बेवफ़ा  होता !

                                                                           ( 2013 )

                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़र्फ़: धैर्य, गहराई; मानिंदे-ए-दरिया: नदी की भांति; मरासिम: सम्बंध;  अफ़सोस: खेद; दीद: दर्शन;
वज़ीफ़ा: अभिमंत्र: क़ातिल: वधिक; एहबाब: मित्र-गण;  मुंसिफ़: न्यायाधिकारी; फ़रियाद: न्याय की मांग; 
तख़्तो-ताज: राजासन एवं मुकुट; ख़ूं-बहा: वध-मूल्य, न्यायोचित क्षति-पूर्त्ति; बेवफ़ा: विमुख।

गुरुवार, 25 जुलाई 2013

दुआओं में असर

मेरी  आंखों  में    समंदर   वो:    नज़र  आता  है
प्यास  लगती  है  तो  दरिया  मेरे  घर  आता  है

एक   हम  ही   जहां   में    राज़    जानते  हैं   ये:
किस  तरह    ख़्वाब   कोई  ज़ेरे-बहर  आता  है

यक़ीं  न  हो   तो   मेरे  साथ    जाग  कर   देखो
चांद   हर  रात    मेरी  छत  पे   उतर  आता  है

मेरी  सोहबत  का    असर   आइना  बतलाएगा
कैसे    रग़-रग़  पे    नया  नूर  निखर  आता  है

तू  सबाबों  का  सिला  बन  के  मिला  है  मुझको
देख  के    तुझको   ये:   एहसास   उभर  आता  है

मोमिनों !  बाम  पे   आ  जाओ   दुआएं   पढ़  लो
आसमां   से    कोई    मेहमान    इधर    आता  है

सफ़  में  हिर्सो-हवस  को  दिल  से  दूर  ही  रखियो
पाक   दामन     से    दुआओं  में   असर  आता  है !

                                                                    ( 2013 )

                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दरिया: नदी; राज़: रहस्य; ज़ेरे-बहर: छंद की सीमा में;  सोहबत: संगति; सबाबों  का  सिला: पुण्य-कर्मों का फल;  एहसास: भाव; मोमिनों: श्रद्धालु-गण; बाम: झरोखा; सफ़: पंक्ति, नमाज़ पढने के लिए लगाई गई; हिर्सो-हवस: ईर्ष्या-द्वेष; पाक  दामन: पवित्र हृदय। 


बुधवार, 24 जुलाई 2013

रंग-ए-वफ़ा कुछ और

ज़ेहन  में  कुछ  और  था  दिल  चाहता  कुछ  और  था
हर  शिकस्ता  आदमी  का   फ़लसफ़ा   कुछ  और  था

आप  जानें   मैकदे  में   आ  के    क्या   हासिल  किया
शैख़  साहब    आपका  तो     मरतबा    कुछ  और  था

क्या   न  जाने    दे  गया    हमको  दवा    वो:  चारागर
इल्मे-तिब्बी   के  मुताबिक़   मशवरा   कुछ  और  था

खैंच    लाते    थे     अकेले     कश्तियां     गिरदाब   से
थे   जवां   जब    तो    हमारा    माद्दा   कुछ    और  था

ढूंढते    थे     सौ    बहाने      लोग     मिलने   के   लिए
कुछ  बरस  पहले   शहर  का   क़ायदा   कुछ  और  था

मंज़िलें   दर   मंज़िलें      हम     छोड़ते      चलते   गए
हम   मुसाफ़िर   थे    सफ़र  से  वास्ता   कुछ  और  था

क्या   अक़ीदत   थी    के:   सूली    चढ़  गए   हंसते  हुए
हज़रत-ए-मंसूर   का     रंग-ए-वफ़ा     कुछ    और  था !

                                                                            ( 2013 )

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ-संदर्भ: ज़ेहन: मस्तिष्क; शिकस्ता: हारे-थके; फ़लसफ़ा: दर्शन;  मैकदा: मदिरालय; शैख़: धर्मभीरु;   
मरतबा: लक्ष्य; चारागर: उपचारक; इल्मे-तिब्बी: चिकित्सा-शास्त्र;  मशवरा: परामर्श; गिरदाब: भंवर; माद्दा:सामर्थ्य; क़ायदा: नियम; वास्ता: सम्बंध;  अक़ीदत: आस्था; हज़रत मंसूर: इस्लाम के अद्वैत वादी दार्शनिक, जिन्होंने 'अनलहक़' का उदघोष किया जिसे तत्कालीन शासक ने ईश्वर-विरोधी मानते हुए उन्हें सार्वजनिक रूप से फांसी पर चढ़वा दिया, कालांतर में उन्हें ईश्वर का संदेश-वाहक ( पैगम्बर )
माना गया; रंग-ए-वफ़ा: प्रमाणित करने का ढंग !

मंगलवार, 23 जुलाई 2013

हुक्काम के फ़रेब

इस  साल  उम्मीदों  के  मुताबिक़  फ़सल  हुई
मुद्दत  के  बाद    एक  मुकम्मल    ग़ज़ल  हुई

बाज़ार  ने   सब  लूट  लिया   चैन-अमन-नींद
मेहनतकशां  को  दाल  भी  ख़्वाबे-अज़ल  हुई

हुक्काम   के    फ़रेब   पे    हैरान   है    अवाम
मुश्किल  हरेक    सिर्फ़  काग़ज़ों  पे    हल  हुई

हो  क़ुदरती  क़हर  के:  तिजारत  के  दाव-पेच
राहत  की  बात  आई    और    आज-कल  हुई

क्या-क्या  दिखाए  ख़्वाब  रहबरों  ने  गांव  को
दह्क़ां  की    ज़िंदगी    ज़मीं  से   बे-दख़ल  हुई

सारे     जहां   में     धूम   थी    हिन्दोस्तान  की
फिर  किसके हक़ में  किसलिए  रद्दो-बदल  हुई

क्या  शाह  मिला  है    के:    बेचता  फिरे  ज़मीर
इज़्ज़त  जहां  में  हिंद  की   यूं  सर  के  बल  हुई

हैरत    से    देखते    हैं     तरक़्क़ी    के    आंकड़े
कोई   बताए     ज़िंदगी    किसकी    सहल  हुई ! ?

                                                                ( 2005 / 2013 )

                                                           -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: मुकम्मल: सम्पूर्ण; मेहनतकशां: श्रमिक-वर्ग;  ख़्वाबे-अज़ल: मृत्यु-स्वप्न; हुक्काम: शासक-वर्ग;    फ़रेब: छद्म;  
अवाम: जन-सामान्य; क़ुदरती  क़हर: प्राकृतिक आपदा; तिजारत: व्यापार; रहबरों: नेताओं; दह्क़ां: कृषक-वर्ग;  बे-दख़ल: विस्थापित; रद्दो-बदल: फेर-बदल;  ज़मीर: स्वाभिमान;  सहल: सरल.
                                                                  

सोमवार, 22 जुलाई 2013

मंहगाइयां नहीं होतीं

काश !    बेताबियां    नहीं  होतीं
अपनी  बदनामियां   नहीं  होतीं

तरबियत  ने  अदब  सिखाया  है
हमसे  ग़ुस्ताख़ियां    नहीं  होतीं

हम  सियासत  अगर  किया  करते
रोज़    नाकामियां    नहीं  होतीं

सब्र   करते   ज़रा  निगाहों  का
लाख    रुस्वाइयां    नहीं  होतीं

मैकशी      बेबसी     बढ़ाती  है
दूर       तन्हाइयां    नहीं  होतीं


शायरी    रोज़गार     हो  रहती
तो   ये:  मंहगाइयां  नहीं  होतीं

तू    हमारा    ख़ुदा   हुआ  होता
इतनी  दुश् वारियां नहीं  होतीं!

                                     ( 2013 )

                              -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: बेताबियां: आतुरता(बहुव.); तरबियत: पालन-पोषण, संस्कार; ग़ुस्ताख़ियां: उद्दण्डताएं; रुस्वाइयां: अपमान (बहुव.); 
मैकशी: मदिरापान; बेबसी: विवशता; तनहाइयां: अकेलापन; दुश् वारियां: कठिनाइयां।



रविवार, 21 जुलाई 2013

रोज़ेदारी का जज़्बा

आपको  बिन  कहे  दिल  में  आना  न  था
आ   गए   तो    कहीं  और    जाना  न  था

दोस्तों    की    ज़रूरत     नहीं   तो   तुम्हें
हाथ    मेरी    तरफ़    यूं     बढ़ाना  न  था

छोड़   के    जो   गए    दुश्मनों  की  तरह
लौट  के  ख़्वाब  में   फिर  सताना  न  था

ख़्वाहमख़्वाह  रात  भर  जी  जलाते  रहे
उनके    वादे   पे    ईमान    लाना  न  था

तिश्नगी  जब   सहन  ही   नहीं  तो  तुम्हें
रोज़ेदारी    का    जज़्बा   दिखाना  न  था !

                                                         ( 2013 )

                                                  -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ख़्वाहमख़्वाह: अकारण, व्यर्थ;   ईमान: आस्था; तिश्नगी: प्यास; रोज़ेदारी: निर्जल उपवास; जज़्बा: भावना, उत्साह।

शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

कुछ नहीं बाक़ी !

आज   कहने    को  कुछ  नहीं  बाक़ी
चुप  भी  रहने  को  कुछ  नहीं  बाक़ी

बेच    डाला    वतन    सियासत   ने
फ़ख़्र    करने   को  कुछ  नहीं  बाक़ी

ख़्वाब  तक  ख़्वाब  हो  गए  जब से
तब  से  डरने  को  कुछ  नहीं  बाक़ी

रूह      थर्रा      गई     उम्मीदों    की
हाथ   मलने    को  कुछ  नहीं  बाक़ी

लोग      घबरा    गए   वफ़ाओं    से
दिल  बहलने  को  कुछ  नहीं  बाक़ी

देख     ली   मौत    नौनिहालों    की
दर्द    सहने    को   कुछ  नहीं  बाक़ी

तोड़     ली     डोर    ख़ुदा    ने    हमसे
सर  के  झुकने  को  कुछ  नहीं  बाक़ी !

                                                 ( 2013 )

                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़ख़्र: गर्व।

गुरुवार, 18 जुलाई 2013

क्या फ़र्क़ पड़ता है !

मेरे  बेज़ार  होने  से  तुम्हें  क्या  फ़र्क़  पड़ता  है
तड़पने  और  रोने  से तुम्हें  क्या  फ़र्क़  पड़ता  है

हमीं  नादां  थे  जो  तुमको  बनाया  नाख़ुदा  अपना
मेरी  कश्ती  डुबोने  से  तुम्हें  क्या  फ़र्क़  पड़ता  है

लगी  है  अब  नज़र  जिसपे  तुम्हारी  वो:  मेरा  दिल  है
मगर  नश्तर  चुभोने  से  तुम्हें  क्या  फ़र्क़  पड़ता  है

तुम्हारे  हाथ  सौंपी  थीं  चमन  की  क्यारियां  हमने
वहां  बदख़्वाब  बोने  से  तुम्हें  क्या  फ़र्क़  पड़ता  है

लगा  है  हमपे  अब  इल्ज़ाम  तुमसे  बेवफ़ाई  का
ये:  बोझा  दिल  पे  ढोने  से  तुम्हें  क्या  फ़र्क़  पड़ता  है

तुम्हारे  साथ  चलते  हैं  हज़ारों  चाहने  वाले
मेरे  होने  न  होने  से  तुम्हें  क्या  फ़र्क़  पड़ता  है

हमीं  को  दर्द  सहना  है  जहाँ  की  संगशारी  का
हमारे  होश  खोने  से  तुम्हें  क्या  फ़र्क़  पड़ता  है !

                                                                  ( 2013 )

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: बेज़ार: व्याकुल; नादां: अबोध; नाख़ुदा: नाविक; नश्तर: चीरा; बदख़्वाब: दु:स्वप्न; संगशारी: पत्थर मार-मार कर 
मार डालने का दण्ड।

बुधवार, 17 जुलाई 2013

मुख़ातिब मेरे ख़ुदा

दाग़  कुछ  दस्तयाब  हैं  मेरे
एक-दो   ही   सबाब  हैं  मेरे

क्या  करूं  मैं  के: मै  नहीं  छुटती
दोस्त  ख़ाना-ख़राब  हैं  मेरे

नेक  सरमाय:  हैं  बुज़ुर्गों  का
शे'र  यूं  लाजवाब  हैं  मेरे

नींद  आती  हुई   नहीं आती
दर-ब-दर    ख़्वाब    हैं  मेरे

आप कब तक दवा किया कीजे
रोग   तो   बे-हिसाब   हैं  मेरे

ज़िक्र  उठने  लगा  नशिस्तों  में
ज़ख़्म  फिर  बे-नक़ाब  हैं  मेरे

क़त्ल  हो  के  भी  सुर्ख़रू:  हूं  मैं
क़तर:-ए-ख़ूं  गुलाब  हैं  मेरे

हैं  मुख़ातिब  मेरे  ख़ुदा  मुझसे
अश्क  अब  कामयाब  हैं  मेरे !

                                         ( 2013 )

                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दस्तयाब: हस्तगत; सबाब: पुण्य; मै: मदिरा; ख़ाना-ख़राब: अ-गृहस्थ; नेक  सरमाय: : पवित्र पूंजी; बुज़ुर्गों: पूर्वजों; दर-ब-दर: द्वार-द्वार भटकते; ज़िक्र: उल्लेख; नशिस्तों: गोष्ठियों; ज़ख़्म: घाव; बे-नक़ाब: अनावृत्त; सुर्ख़रू: : पूर्ण सफल; क़तर:-ए-ख़ूं: रक्त-कण; मुख़ातिब: संबोधित; अश्क: अश्रु।

सोमवार, 15 जुलाई 2013

आसमानों में ज़लज़ले

दिल  मिले  हैं  तो  फ़ासले  क्यूं  हैं
होंठ   हर  बात  पे    सिले   क्यूं  हैं

तुम  ज़मीं  पे   क़दम  नहीं  रखते
तो  ये:   पांवों  में  आबले   क्यूं  हैं

दिल    रक़ीबों  में    बांट  आते  हैं
आप  इतने  भी  मनचले  क्यूं   हैं

गुनगुनाते   हैं    वो:    ग़ज़ल  मेरी
आरिज़े-गुल   खिले-खिले  क्यूं  हैं

कर  चुके    मंज़िलें    फ़तह  सारी
दिल में फिर जोशो-वलवले क्यूं  हैं

हक़-ओ-इंसाफ़    मांगते    हैं  हम
वक़्त को  इस  क़दर  गिले  क्यूं  हैं

मल्कुल-ए-मौत  फिर  शहर  में  है
घर  खुले  हैं   मगर     खुले  क्यूं  हैं

शाह     दहशतज़दा   है    रय्यत  से
राह-ए-दिल्ली  में  काफ़िले   क्यूं  हैं

हम  चले   कोह-ए-तूर  की  जानिब
आसमानों   में    ज़लज़ले    क्यूं  हैं ?

                                               ( 2013 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आबले: छाले; रक़ीबों: शत्रुओं; आरिज़े-गुल: फूलों के गाल, सतह;  फ़तह: विजित; जोशो-वलवले: उत्साह और उमंगें; हक़-ओ-इंसाफ़: अधिकार और न्याय; गिले: आपत्तियां; मल्कुल-ए-मौत: मृत्यु-दूत;  दहशतज़दा: भयभीत; रय्यत: नागरिक गण; काफ़िले: यात्री-दल; कोह-ए-तूर: मिथकीय पर्वत, 'अँधेरे का पहाड़', मिथक है कि हज़रत मूसा स. अ. को यहीं ख़ुदा ने दर्शन दिए थे; जानिब: ओर; आसमानों: देवलोक; ज़लज़ले: भूकंप, उथल-पुथल।



तू किसका ख़ुदा हुआ ?

दो-चार   दिन   में   लोग   नज़र   से   उतर  गए
तेरे   शहर   में    यूं    मेरे    अरमां    बिखर  गए

मीनारे-क़ुतुब    देख    के    होता   है     ये:  गुमां
कितने   अज़ीम    शख़्स  जहां    से   गुज़र  गए

ख़ुशियां  कभी  जो  आईं  तो  मेहमान  की  तरह
ग़म   हैं   के:   लहू   बन   के   रग़ों  में  ठहर  गए

रोज़ा-नमाज़    न    सही    आमाल   अपने  देख
इस    मश्क़   से    तमाम    मुक़द्दर    संवर  गए

मुझको  ख़बर  नहीं  के:  तू  किसका  ख़ुदा  हुआ
ना'ले    मेरे   गली   में    तेरी      बे-असर    गए

होगी    ग़ज़ल    ज़रूर    ज़रा     देर    सब्र   कर
अश'आर  दिल  से  जो  हुए  कमाल  कर  गए !

                                                               ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अरमां: अभिलाषाएं; मीनारे-क़ुतुब: दिल्ली में स्थित क़ुतुब मीनार; गुमां: आभास;  अज़ीम: महान, विराट; 
शख़्स: व्यक्ति, व्यक्तित्व; रग़ों  में: शिराओं में; आमाल: आचरण; मश्क़: अभ्यास; ना'ले: आर्त्तनाद; अश'आर: शेर (बहुव.) ।

रविवार, 14 जुलाई 2013

दुश्मने - ख़ानुमां ...

उम्र     इतनी    रवां     हुई     कैसे
दुश्मने - ख़ानुमां         हुई     कैसे

आप  गर  हमपे  मेहरबान  न  थे
रात     इतनी   जवां    हुई    कैसे

उनपे मख़्सूस थी  गली  दिल  की
वो:        रहे - कारवां      हुई  कैसे

क्या  ख़बर   होश  कब   गंवा  बैठे
ये:      अदा    बदगुमां     हुई  कैसे

हम  अगर  हमनज़र  नहीं  हैं  तो
ख़ामुशी      ये:    ज़ुबां    हुई  कैसे

उसपे    दारोमदार  था    दिल  का
याद      दर्दे - निहाँ       हुई    कैसे

वक़्त  पे   पांव   कब   रखा  हमने
मौत   फिर    मेहरबां    हुई   कैसे ? !

                                                ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रवां: गतिवान; दुश्मने - ख़ानुमां: घर-गृहस्थी की शत्रु; मख़्सूस: विशिष्ट, आरक्षित; रहे-कारवां: यात्री-समूह का मार्ग;      बदगुमां:भ्रमित; हमनज़र: सम-दृष्टि; ख़ामुशी: चुप्पी; दारोमदार: उत्तरदायित्व;   दर्दे - निहाँ: छुपी हुई पीड़ा।

शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

दर्दे-दिल की दवा

आज   बादे-सबा   चली  आई
लब  पे  मेरे  दुआ  चली  आई

नाम:बर  की  ख़ुशी  से  ज़ाहिर  है
दर्दे-दिल  की  दवा  चली  आई

कोसते  ही  ज़रा  मुअज़्ज़िन  को
मैकदे    से     सदा     चली  आई

ज़िक्र    मेरा    हुआ    हरीफ़ों  में
उनके  रुख़  पे  हिना  चली  आई

याद  जब  भी  किया  तहे-दिल  से
उनके  दिल  में  वफ़ा  चली  आई

अह्द  हमने  किया  मुहब्बत  का
आसमां  से  रज़ा  चली  आई

ख़ुल्द  के  ख़्वाब  में  महव  थे  हम
पास  हंस  के  क़ज़ा  चली  आई !

                                              ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: बादे-सबा: प्रातः की शीतल समीर; नाम:बर: सन्देश लाने वाला; मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला; मैकदा: मदिरालय; सदा: स्वर; हरीफ़: प्रतिद्वंद्वी; रुख़: चेहरा; हिना: मेंहदी का लाल रंग, लाली; तहे-दिल: हृदय की गहराई; वफ़ा: निर्वाह की इच्छा; अह्द: संकल्प; रज़ा: स्वीकृति; ख़ुल्द: स्वर्ग;  महव: खोए हुए;  क़ज़ा: मृत्यु। 

गुरुवार, 11 जुलाई 2013

ज़ीस्त की रस्साकशी

वो:  हमें   ज़ेहन   में   लाते    तो   कोई   बात  भी  थी
अपने    अरमान    जगाते    तो  कोई    बात  भी  थी

तुमने  ख़ुशियों  को   तहे-दिल  से   निभाया  हर  दम
शान   से   ग़म  को  निभाते   तो  कोई   बात  भी  थी

ऐश-ओ-इशरत   की   हर  इक   चीज़    चाहने  वालों
घर   को    ईमां   से    सजाते  तो  कोई  बात  भी  थी

क्या   मिला    सोहबत-ए-कमज़र्फ़    से    वही  जानें
दायरा     अपना    बढ़ाते    तो   कोई   बात     भी  थी

दाग़-ए-सदमात      पे      हंसते    हैं    ज़माने    वाले
ख़ुद   को    फ़ौलाद    बनाते   तो  कोई   बात  भी  थी

तर्क-ए-उल्फ़त   में    टूट    जाना    तो     रवायत  है
कुछ   नया   करके   दिखाते   तो  कोई  बात  भी  थी

ज़ीस्त    की     रस्साकशी    हारते      रहे    हर  दम
इक   सिरा   हमको   थमाते   तो  कोई  बात  भी  थी !

                                                                          ( 2013 )

                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:  ज़ेहन: मस्तिष्क, विचार; तहे-दिल: हृदय की गहराई;ऐश-ओ-इशरत: विलासिता और समृद्धि; ईमां: आस्था; सोहबत-ए-कमज़र्फ़: ओछे व्यक्ति की संगति; दाग़-ए-सदमात : दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के चिह्न; तर्क-ए-उल्फ़त: प्रेम-भंग;  रवायत: परंपरा;ज़ीस्त: जीवन।

                                                                       

बुधवार, 10 जुलाई 2013

शे'रो-सुख़न के रास्ते

जब  से  वो:   दर्दे-दिल  के  ख़रीदार  हो  गए
लगता  है  हमें,   हम  तो  गुनहगार  हो  गए

बैठे  हैं  घर  में   उनकी  तमन्ना   किए  हुए
शे'रो-सुख़न    के    रास्ते    दुश्वार    हो  गए

बैठे-बिठाए    इश्क़  का  आज़ार   लग  गया
सारे   जतन    तबीब   के    बेकार   हो   गए

ईमां  लुटा  के   उनपे   ये:  ईनाम   मिला  है
दोनों   जहां     हमारे    तलबगार    हो   गए

रहबर  बताएं  कौन  है  हाफ़िज़  अवाम  का
तकिया था जिनपे लोग वो:  बदकार हो  गए

कुछ सिलसिल:-ए-रिज़्क़ हो कुछ ज़रिए-माश हो
चर्चे     हमारे    यूं   तो    बे-शुमार   हो  गए

वो:  आ  गए  हैं  सफ़  में  हमारी  कहे  बग़ैर
मौसम  शहर  के  आज  ख़ुशगवार  हो  गए !

                                                              ( 2013 )

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तमन्ना: अभिलाषा; शे'रो-सुख़न: काव्य और अभिव्यक्ति; दुश्वार: दुर्गम; आज़ार: रोग; जतन: प्रयास; तबीब: हकीम, उपचारक; ईमां: आस्था; दोनों जहां: इहलोक-परलोक;  तलबगार: अभिलाषी; रहबर: नेता, मार्गदर्शक; तकिया: विश्वास; बदकार: कुकर्मी; सिलसिल:-ए-रिज़्क़: रोज़ी-रोटी की व्यवस्था; ज़रिए-माश: अर्थ-प्राप्ति का साधन; चर्चे: चर्चाएं, प्रसिद्धि;  बे-शुमार: अनगिनत; सफ़: पंक्ति, (यहां आशय नमाज़ की पंक्ति से); ख़ुशगवार: प्रसन्नता-दायक।


सोमवार, 8 जुलाई 2013

उनसे उम्मीद क्यूं ?

गम-ए-आशिक़ी  की  ज़रूरत  नहीं  है
हमें  इस   ख़ुशी   की  ज़रूरत  नहीं  है

कई   और   भी   हैं   वफ़ा   के   तरीक़े
अभी   ख़ुदकुशी   की  ज़रूरत  नहीं  है

न  जाने  हमें   उनसे  उम्मीद   क्यूं  है
उन्हें  तो   किसी  की  ज़रूरत  नहीं  है

मैं   तारीकियों   में   तुम्हें   चाहता  हूं
मुझे   चांदनी   की    ज़रूरत   नहीं  है


तेरे   असलहे   के   मुक़ाबिल  है  ईमां
हमें    बेबसी    की    ज़रूरत   नहीं   है


करम है ख़ुदा का  के:  घर  चल रहा  है
ज़राए-बदी     की     ज़रूरत   नहीं   है

तू  कैसा  ख़ुदा  है  जिसे  इस  जहां  में
मेरी   बंदगी    की    ज़रूरत   नहीं   है !

                                                ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: गम-ए-आशिक़ी: प्रेम के दुःख; वफ़ा: निर्वाह;  ख़ुदकुशी: आत्महत्या; तारीकियां: अंधेरे;  असलहे: अस्त्र-शस्त्र;  ईमां: आस्था; ज़राए-बदी: भ्रष्ट साधन;  बंदगी: भक्ति।

रविवार, 7 जुलाई 2013

मौत जीना सिखा दे...

आसमां  ही   दग़ा  दे   तो  मैं  क्या  करूं
बर्क़  घर  पे  गिरा  दे  तो  मैं  क्या  करूं

जो   कहा   मैंने    संजीदगी   से    कहा
वो:  लतीफ़ा  बना  दे  तो  मैं  क्या  करूं

हो  चुका   हूं    बहुत  दूर    मैं  इश्क़  से
कोई  ईमां   लुटा  दे    तो  मैं  क्या  करूं

जिसकी  दरियादिली  पे   हमें  नाज़  है
वो:  बहाना  बना  दे    तो  मैं  क्या  करूं

ख़ुदकुशी     की     हज़ारों    वजूहात  हैं
मौत  जीना सिखा दे  तो  मैं  क्या  करूं

अपनी   दीवानगी   की   ख़बर  है  मुझे
तू  मसीहा  बता  दे    तो  मैं  क्या  करूं

मैं   मदीने  में    बरसों    भटकता  रहा
कोई  झूठा  पता  दे  तो  मैं  क्या  करूं !

                                                    ( 2013 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आसमां: विधाता; दग़ा: धोखा; बर्क़: आकाशीय बिजली; संजीदगी:गंभीरता; लतीफ़ा: चुटकुला; दरियादिली: विशाल-हृदयता; नाज़: गर्व; ख़ुदकुशी: आत्महत्या; वजूहात: ( वजह का बहुव.): कारण; दीवानगी: पागलपन; मसीहा: देवदूत।


शनिवार, 6 जुलाई 2013

आप रास्ते में थे !

काश !  उसने   जो   ऐतबार   कर  लिया   होता
हमने  इस  ज़िंदगी  से  प्यार  कर  लिया  होता

दरिय:-ए-अश्क   अगर   ख़ुश्क़  ना  हुआ  होता
हमने  हर  ग़म  को   ख़रीदार  कर  लिया  होता

लाख    रुसवाइयों    से    आप-हम   बचे   रहते
एक-दूजे   को    ग़मग़ुसार    कर   लिया   होता

माल-ओ-ज़र  की   जो  चाहत   हमें  रही  होती
अपने  जज़्बात  को   बाज़ार   कर  लिया  होता

जान  थी   लब   पे   और  आप    रास्ते  में  थे
हमने  क्यूं  कर  न  इंतज़ार  कर  लिया  होता

क्या   ज़रूरत   थी    दर्द-ए-इश्क़    सहे  जाने  की
दिल  को  अल्ल:  का  तलबगार  कर  लिया  होता

चार  दिन   रोज़:-ओ-नमाज़  प'   रह   के   क़ायम
रूह   के   बाग़   को    गुलज़ार    कर   लिया  होता !

                                                               ( 2013)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:   ऐतबार: विश्वास; दरिय:-ए-अश्क: आंसुओं की नदी; ख़ुश्क़: शुष्क; रुसवाइयां: अपमान;  ग़मग़ुसार: दुःख का साझीदार; माल-ओ-ज़र: धन-संपत्ति;  जज़्बात: भावनाएं;  लब: होंठ; तलबगार: ग्राहक, इच्छुक;  रोज़:-ओ-नमाज़: व्रत और प्रार्थना;  क़ायम: दृढ़; गुलज़ार: पुष्प-पल्लवित।

शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

मुस्कुराना पड़ेगा !

उमीदों  को  फिर  से  जगाना  पड़ेगा
जो  जीना  है  तो  मुस्कुराना  पड़ेगा

न मानें अगर वो: जो दो-चार दिन में
तो  अश्कों  का  दरिया  बहाना  पड़ेगा

बहुत  मुस्कुराते  हैं  हमको  सता  के
किसी  रोज़   हदिया  चुकाना   पड़ेगा

हमें  ख़ुदकुशी में भी दिक़्क़त न होगी
मगर तुमको मय्यत में आना  पड़ेगा

है दरकार  इंसाफ़  की तो  समझ  लो
कभी  न  कभी    सर   उठाना  पड़ेगा

सुना  है   इबादत  दवा  है   ग़मों  की
ये:  नुस्ख़ा  कभी  आज़माना  पड़ेगा !

                                                ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हदिया: धर्म-सम्मत सेवा-मूल्य, दक्षिणा; मय्यत: अंतिम यात्रा; इबादत: भक्ति।

गुरुवार, 4 जुलाई 2013

फ़राइज़-ए-रमज़ान

मुहब्बत  से  दिल  को  बचाना  पड़ेगा
हसीनों    से    पीछा     छुड़ाना  पड़ेगा

इलाजे-ग़मे-दिल  को  जाएं  कहां  हम
हकीमों   को   क़िस्सा   सुनाना  पड़ेगा

मेरी    बंदगी     उनको    भारी   पड़ेगी
गिरा   तो   उन्हीं   को    उठाना  पड़ेगा

बड़े  आए   आशिक़   मुहब्बत  जताने
ख़बर भी  है  क्या-क्या  लुटाना  पड़ेगा

न  खोलेंगे  वो: आज दरवाज़े  दिल  के
हमें     ज़ोर   से      खटखटाना  पड़ेगा

इबादत   में   अल्ल:  वफ़ा   चाहता  है
तो  ज़ाहिर  है    ईमान   लाना   पड़ेगा

फ़राइज़-ए-रमज़ान   आसां    न  होंगे
के: मस्जिद में हर  रोज़  जाना  पड़ेगा !

                                                     ( 2013 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: इलाजे-ग़मे-दिल: हृदय के दु:खों का उपचार; बंदगी: भक्ति; फ़राइज़-ए-रमज़ान: रमज़ान के कर्त्तव्य।


मंगलवार, 2 जुलाई 2013

तारीकियों में नाम-ए -ख़ुदा

ग़म  किसी  का  हो   मेरे  दिल  में   ठहर  जाता  है
कुछ  न  कुछ  रोज़  मेरे  जिस्म  में  मर  जाता  है

इतना  हस्सास   कर  दिया  है   हवादिस  ने  मुझे
आईना    देखता  है   मुझको    तो    डर  जाता  है

ख़्वाब    देता  तो  है   अल्लाह    मेरी  आंखों   को
क्यूं   मगर   टूट  के   मिट्टी  में  बिखर  जाता  है

तेरी   तकलीफ़   का    इल्हाम-सा  होता  है  मुझे
और   हर    दर्द    मेरे   दिल  में    उतर  जाता  है

हैं   मुक़ाबिल   मेरा   घर    और    शिवाला   तेरा
देखते   हैं     के:    मेरा   यार     किधर   जाता  है

जब  भी   तारीकियों  में   नाम-ए -ख़ुदा  लेता  हूं
देखते  देखते    घर    नूर   से      भर    जाता  है !

                                                                ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल