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मंगलवार, 20 मार्च 2018

नरगिस और हम

हर  तरफ़  मौजे हवादिस  और  हम
सामने      सुल्ताने बेहिस  और  हम

आज फिर उम्मीद का  सर झुक गया
फिर  वही गुस्ताख़ इब्लीस  और हम

क्या  मुक़द्दर  है   वफ़ा  का    देखिए
गर्दिशों  में  ख़्वाबे नाक़िस  और  हम

फिर   ज़ुबानी   जंग  में  हैं   मुब्तिला
शाह  के  मुंहज़ोर  वारिस  और   हम

तोड़  डालेंगे  सितम  का  सिलसिला 
साथ में  दो चार  मुफ़लिस  और  हम

गुल  खिलाते  हैं  मुनासिब  वक़्त पर
नूर  के    शैदाई    नरगिस  और  हम

कोई    तो   पढ़  दे   हमारा   मर्सिया
दर्दमंदों   की   मजालिस   और  हम !

                                                       (2018)

                                                  -सुरेश स्वप्निल

शब्दार्थ : मौजे हवादिस: दुर्घटनाओं की लहर; सुल्ताने बेहिस: असंवेदनशील, निश्चेत शासक; गुस्ताख़: धृष्ट;
इब्लीस: ;शैतान, ईश्वर का प्रतिद्वंद्वी; मुक़द्दर: भाग्य;  वफ़ा: निष्ठा; गर्दिश: भटकाव; ख़्वाबे नाक़िस: अपूर्ण स्वप्न;
ज़ुबानी जंग: मौखिक युद्ध; मुब्तिला: फंसे हुए, ग्रस्त; मुंहज़ोर: वाग्वीर; वारिस: उत्तराधिकारी; सितम: अत्याचार; सिलसिला: क्रम, श्रृंखला; मुफ़लिस: निर्धन; मुनासिब: समुचित; नूर:प्रकाश; शैदाई: अभिलाषी, प्रेमी; नरगिस: एक पुष्प, लिली; मर्सिया: शोकगीत; दर्दमंद: सहानुभूतिशील; मजालिस: सभाएं।

सोमवार, 12 मार्च 2018

हमारे ज़ख़्म उरियां...

तबाही  के    ये:  मंज़र    देख  लीजे
कहां  धड़  है  कहां  सर  देख  लीजे

बुतों के  साथ क्या क्या  ढह  गया है
ज़रा    गर्दन  घुमा  कर    देख  लीजे

चले  हैं  लाल  परचम  साथ  ले  कर
कहां  पहुंचे   मुसाफ़िर    देख  लीजे

खड़े  हैं  रू ब रू    मज़्लूमो-ज़ालिम
गिरेगी  बर्क़    किस पर   देख  लीजे

हमारे  ज़ख़्म    उरियां    हो  गए   हैं
यही  है  वक़्त   जी-भर   देख  लीजे

किसी  ने   आपको  बहका  दिया  है
मैं  शीशा  हूं   न  पत्थर   देख  लीजे

कहेगा कौन  दिल की  बात  खुल कर
मेरे    सीने  के    नश्तर    देख  लीजे  !

शब्दार्थ : तबाही : विध्वंस; मंज़र : दृश्य; बुतों : मूर्त्तियों ; परचम : ध्वज; मुसाफ़िर :यात्री; रू बरू: आमने-सामने; मज़्लूमो-ज़ालिम : पीड़ित और अत्याचारी; बर्क़: आकाशीय बिजली; ज़ख़्म : घाव; उरियां: अनावृत, उघड़े हुए; शीशा : कांच; नश्तर : शल्यक्रिया का उपकरण, क्षुरी।

शुक्रवार, 9 मार्च 2018

ख़ामुशी बेज़ुबां ...

ख़ुश्बुए-दिल  जहां  नहीं  होती
कोई  बरकत  वहां  नहीं  होती

हौसले   साथ- साथ    बढ़ते  हैं
सिर्फ़  हसरत  जवां  नहीं  होती

ज़र्फ़  है   तो    निगाह   बोलेगी
ख़ामुशी    बेज़ुबां    नहीं   होती

ज़िंदगी  दर -ब- दर  भटकती  है
और  फिर  भी   रवां  नहीं  होती

ज़ीस्त  जब जब  फ़रेब  करती  है
मौत  भी     मेह्रबां     नहीं   होती

फ़र्ज़  है  दिल  संभाल  कर  रखना
बेक़रारी        कहां       नहीं  होती

रूह  से    जो  दुआ    निकलती  है
वो:  कभी      रायग़ां     नहीं  होती !

                                                             (2018)
         
                                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ख़ुश्बुए-दिल : मन की सुगंध; बरकत : अभिवृद्धि, श्री वृद्धि; हौसले :साहस,उत्साह; हसरत : अभिलाषा; जवां: युवा; ज़र्फ़ : गंभीरता; निगाह :दृष्टि;  ख़ामुशी :मौन; दर ब दर:द्वार द्वार;  रविं:सुचारु, प्रवाहमान;ज़ीस्त :जीवन; फ़रेब: कपट; मेह्रबां : दयावान;  फ़र्ज़: कर्त्तव्य;  बेक़रारी :व्यग्रता;  रूह: आत्मा, अंतर्मन;  दुआ: प्रार्थना;  रायग़ां :व्यर्थ ।