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मंगलवार, 28 अक्तूबर 2014

...शाने-ख़ुदी भी रहे !

बेरुख़ी  भी  रहे,  दोस्ती  भी  रहे
होश  के  साथ  कुछ  बेख़ुदी  भी  रहे

ख़ूब  है  आपकी  महफ़िलों  का  चलन
आरज़ू  भी  रहे,  बे-बसी   भी  रहे

मश्विरा  है  यही  साहिबे-हुस्न  को
हो  अना  तो  कहीं  दिलकशी  भी  रहे

चश्मबाज़ी  करें,  रोकता  कौन  है
क़त्ल  करते  हुए  आजिज़ी  भी  रहे

वो  शबे-तार  के  ख़्वाब  में  आएं,  तो
हौसला  भी  रहे,  रौशनी  भी  रहे

है  तरक़्क़ी  मुकम्मल  तभी  मुल्क  की
शाह  के  सोच  में  मुफ़लिसी  भी  रहे

हो      सुजूदे-वफ़ा   की    यही     इंतेहा
सर  झुके  यूं  कि  शाने-ख़ुदी  भी  रहे  !

                                                                      (2014)

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: बेरुख़ी: उपेक्षा; बेख़ुदी: आत्म-विस्मृति; महफ़िलों: सभाओं; चलन: प्रथा; बे-बसी: विवशता; मश्विरा: परामर्श; साहिबे-हुस्न: सौंदर्य के स्वामी, सुंदर; अना: अहंकार; दिलकशी: मनमोहकता; चश्मबाज़ी: दृष्टि-प्रहार; क़त्ल: वध; आजिज़ी: विनम्रता; शबे-तार: अमावस्या; ख़्वाब: स्वप्न; हौसला: उत्साह; तरक़्क़ी: प्रगति, विकास; मुकम्मल: परिपूर्ण; मुल्क: देश; मुफ़लिसी: निर्धनता; सुजूदे-वफ़ा: आस्था व्यक्त करने के लिए प्रणिपात; इंतेहा: अतिरेक, सीमा; शाने-ख़ुदी: अस्मिता का सम्मान। 

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