tag:blogger.com,1999:blog-85691497928524705662024-02-20T01:05:20.937-08:00साझा आसमान साझा आसमान हर उस पंछी की विरासत है जो आज़ाद है और उड़ान भरना चाहता है suresh swapnilhttp://www.blogger.com/profile/10616576572191519628noreply@blogger.comBlogger787125tag:blogger.com,1999:blog-8569149792852470566.post-55020191890692082782019-06-13T03:10:00.001-07:002019-06-13T03:11:50.684-07:00ख़ुदा से अदावत...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
अगर होश क़ायम रहेगा हमारा<br />
जिएंगे मगर दिल जलेगा हमारा<br />
<br />
ख़ुदा से अदावत निभाते रहे हम<br />
यहां कौन दुश्मन बनेगा हमारा<br />
<br />
जिधर सुर्ख़ परचम इशारा करेगा<br />
उधर ख़ूं छलकता मिलेगा करेगा<br />
<br />
जहां शाहे-वहशत अकेला ख़ुदा हो<br />
असर तो वहां भी दिखेगा हमारा<br />
<br />
यक़ीनन वहीं नूरे-अल्लाह होगा<br />
जहां ख़ुद ब ख़ुद सर झुकेगा हमारा !<br />
<br />
(2019)<br />
<br />
- सुरेश स्वप्निल<br />
<br />
शब्दार्थ: क़ायम : स्थिर; अदावत : शत्रुता; सुर्ख़ : लाल; परचम : ध्वज, झंडा ; <br />
ख़ूं : रक्त ; शाहे-वहशत : उन्माद का राजा ; यक़ीनन : अंततः ; नूरे-अल्लाह : ईश्वरीय प्रकाश ।<br />
</div>
suresh swapnilhttp://www.blogger.com/profile/10616576572191519628noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8569149792852470566.post-84831672408313292752018-05-04T04:48:00.002-07:002018-05-04T04:48:30.098-07:00सर बचा कर...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
सियासत सीख कर पछताए हो क्या<br />
सलामत सर बचा कर लाए हो क्या<br />
<br />
उड़ी रंगत कहीं सब कह न डाले<br />
हमारे तंज़ से मुरझाए हो क्या<br />
<br />
लबों पर बर्फ़ आंखों में उदासी<br />
कहीं पर चोट दिल की खाए हो क्या<br />
<br />
बहुत दिन बाद ख़ुश आए नज़र तुम<br />
हमारे ख़्वाब से टकराए हो क्या<br />
<br />
तुम्हारी नब्ज़ इतनी सर्द क्यूं है<br />
किसी का क़त्ल करके आए हो क्या<br />
<br />
सितम हर शाह करता है मगर तुम<br />
किसी जल्लाद के सिखलाए हो क्या<br />
<br />
नमाज़ें पढ़ रहे हो पंजवक़्ता<br />
ख़ुदा के ख़ौफ़ से थर्राए हो क्या ?!<br />
<br />
-सुरेश स्वप्निल<br />
<br />
शब्दार्थ : सियासत: राजनीति; सलामत :सुरक्षित; तंज़: व्यंग्य; लबों: होंठों; नब्ज़: नाड़ी, स्पंदन; सर्द:ठंडी; सितम: अत्याचार; जल्लाद: वधिक; पंजवक़्ता: पांचों समय की; ख़ौफ़: भय ।<br />
<br /></div>
suresh swapnilhttp://www.blogger.com/profile/10616576572191519628noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8569149792852470566.post-40142520820284153202018-04-27T04:56:00.002-07:002018-04-27T04:56:51.731-07:00करो हो क़त्ल ....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
परेशां हैं यहां तो थे वहां भी<br />
करे है तंज़ हम पर मेह्र्बां भी<br />
<br />
हमें ज़ाया न समझें साहिबे-दिल<br />
हरारत है अभी बाक़ी यहां भी<br />
<br />
दिए थे जो वफ़ा के ज़ख़्म तुमने<br />
लगे हैं फिर नए से वो निशां भी<br />
लगा है मर्ज़ जबसे दिलकशी का<br />
करो हो क़त्ल जाओ हो जहां भी<br />
<br />
बुज़ुर्गों ने बहुत बहलाए रक्खा<br />
मगर बेताब हैं अब नौजवां भी<br />
<br />
ख़बर होगी तभी अह् ले वतन को<br />
लुटेंगे जब अमीरे कारवां भी<br />
<br />
जहां को नूर वो दे जाएंगे हम<br />
करेगा फ़ख़्र हम पर आस्मां भी !<br />
<br />
(2018)<br />
<b><br /></b>
<b> -सुरेश स्वप्निल </b><br />
<br />
<span style="font-size: x-small;"><b>शब्दार्थ: </b>तंज़: व्यंग्य; मेह्रबां: भले मानुस, कृपालु; ज़ाया: नष्टप्राय, व्यर्थ; साहिबे दिल: हृदयवान, संवेदनशील; हरारत: ऊष्मा, इच्छाएं; वफ़ा: निष्ठा; ज़ख़्म: घाव; निशां: चिह्न; मर्ज़: रोग; दिलकशी: मन जीतने, चित्ताकर्षक लगने; करो हो: करते हो; क़त्ल: हत्या; जाओ हो: जाते हो; बुज़ुर्गों: वरिष्ठ जन; बेताब: व्याकुल; नौजवां: युवजन; ख़बर: बोध; अह् ले वतन: देशवासी; अमीरे कारवां: यात्री दाल के नायक, सत्ताधीश; जहां: संसार; नूर: प्रकाश; फ़ख़्र: गर्व; आस्मां: विधाता। </span></div>
suresh swapnilhttp://www.blogger.com/profile/10616576572191519628noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8569149792852470566.post-6576789250188592102018-04-22T04:41:00.002-07:002018-04-22T04:43:35.814-07:00बग़ावत का सैलाब ...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मोहसिनों की आह बेपर्दा न हो<br />
शर्म से मर जाएं हम ऐसा न हो<br />
<br />
इश्क़ का इल्ज़ाम हम पर ही सही<br />
तू अगर ऐ दोस्त शर्मिंदा न हो<br />
<br />
ख़ाक ऐसी ज़ीस्त पर के: ग़ैर के<br />
दर्द का एहसास तक ज़िंदा न हो<br />
<br />
बेबसी से आस्मां तक रो पड़े<br />
ज़ुल्म नन्ही जान पर इतना न हो<br />
<br />
अब बग़ावत का उठे सैलाब वोः<br />
जो कभी तारीख़ ने देखा न हो<br />
<br />
ऐहतरामे-नूर यूं कर देखिए<br />
सर झुका हो और बा-सज्दा न हो<br />
<br />
कोई तो रक्खे हमें दिल में कहीं <br />
आख़िरत का वक़्त यूं ज़ाया न हो !<br />
<br />
(2018)<br />
<br />
<span style="font-size: x-small;"> <b> -सुरेश स्वप्निल </b></span><br />
<br />
<span style="font-size: x-small;"><b>शब्दार्थ:</b> मोहसिनों: कृपालु जन; बेपर्दा: प्रकट, अनावृत्त; इल्ज़ाम: आरोप; शर्मिंदा: लज्जित; ख़ाक: धूल; ज़ीस्त: जीवन; ग़ैर: अन्य; एहसास: अनुभूति; बग़ावत: विद्रोह; सैलाब: बाढ़; तारीख़: इतिहास; बेबसी: विवशता; आस्मां: नियति; ज़ुल्म: अन्याय, अत्याचार; ऐहतरामे-नूर: (ईश्वरीय) प्रकाश का सम्मान, सम्बोधि का सम्मान; बा-सज्दा: श्रद्धावनत; आख़िरत: अंतिम समय; ज़ाया: व्यर्थ। </span> <br />
<br /></div>
suresh swapnilhttp://www.blogger.com/profile/10616576572191519628noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8569149792852470566.post-67432019871972090442018-04-19T16:09:00.003-07:002018-04-19T16:09:50.698-07:00क्या मिल गया ?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
गर्दिशे-ऐयाम से दिल हिल गया<br />
आज का दिन भी बहुत मुश्किल गया<br />
<br />
देख कर हमको परेशां दर्द से<br />
आसमानों का कलेजा हिल गया<br />
<br />
चाहते थे रोक लें तूफ़ान को<br />
सब्र टूटा हाथ से साहिल गया<br />
<br />
क़ातिलों की पैरवी करते हुए<br />
साफ़ कहिए रहबरों ! क्या मिल गया<br />
<br />
शाह की लफ़्फ़ाज़ियों में यूं फंसे <br />
नौजवां से दूर मुस्तक़्बिल गया<br />
<br />
राह मुश्किल थी बग़ावत की मगर<br />
हर जियाला जानिबे-मंज़िल गया<br />
<br />
हालते-अत्फ़ाले-दुनिया देख कर<br />
क्या बताएं रूह में क्या छिल गया !<br />
<br />
(2018)<br />
<br />
<b> -सुरेश स्वप्निल </b><br />
<br />
<span style="font-size: x-small;"><b>शब्दार्थ:</b> गर्दिशे-ऐयाम : दिनों का फेर; सब्र: धैर्य; साहिल: तट, किनारा; क़ातिलों: हत्यारों; पैरवी : पक्ष रखना, बचाव; रहबरों : नेता गण; लफ़्फ़ाज़ियों : शब्दजाल; मुस्तक़्बिल : भविष्य; बग़ावत : विद्रोह; जियाला : साहसी; जानिबे-मंज़िल : लक्ष्य की ओर; हालते-अत्फ़ाले-दुनिया : संसार के बच्चों की स्थिति; रूह : आत्मा। </span> <br />
<br />
<br /></div>
suresh swapnilhttp://www.blogger.com/profile/10616576572191519628noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8569149792852470566.post-64479601625729342672018-03-20T04:48:00.000-07:002018-03-20T04:48:13.145-07:00नरगिस और हम <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
हर तरफ़ मौजे हवादिस और हम <br />
सामने सुल्ताने बेहिस और हम<br />
<br />
आज फिर उम्मीद का सर झुक गया<br />
फिर वही गुस्ताख़ इब्लीस और हम<br />
<br />
क्या मुक़द्दर है वफ़ा का देखिए<br />
गर्दिशों में ख़्वाबे नाक़िस और हम<br />
<br />
फिर ज़ुबानी जंग में हैं मुब्तिला <br />
शाह के मुंहज़ोर वारिस और हम<br />
<br />
तोड़ डालेंगे सितम का सिलसिला <br />
साथ में दो चार मुफ़लिस और हम<br />
<br />
गुल खिलाते हैं मुनासिब वक़्त पर<br />
नूर के शैदाई नरगिस और हम<br />
<br />
कोई तो पढ़ दे हमारा मर्सिया <br />
दर्दमंदों की मजालिस और हम ! <br />
<br />
(2018)<br />
<br />
-सुरेश स्वप्निल<br />
<br />
शब्दार्थ : मौजे हवादिस: दुर्घटनाओं की लहर; सुल्ताने बेहिस: असंवेदनशील, निश्चेत शासक; गुस्ताख़: धृष्ट;<br />
इब्लीस: ;शैतान, ईश्वर का प्रतिद्वंद्वी; मुक़द्दर: भाग्य; वफ़ा: निष्ठा; गर्दिश: भटकाव; ख़्वाबे नाक़िस: अपूर्ण स्वप्न;<br />
ज़ुबानी जंग: मौखिक युद्ध; मुब्तिला: फंसे हुए, ग्रस्त; मुंहज़ोर: वाग्वीर; वारिस: उत्तराधिकारी; सितम: अत्याचार; सिलसिला: क्रम, श्रृंखला; मुफ़लिस: निर्धन; मुनासिब: समुचित; नूर:प्रकाश; शैदाई: अभिलाषी, प्रेमी; नरगिस: एक पुष्प, लिली; मर्सिया: शोकगीत; दर्दमंद: सहानुभूतिशील; मजालिस: सभाएं।<br />
<br /></div>
suresh swapnilhttp://www.blogger.com/profile/10616576572191519628noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8569149792852470566.post-83013031346275505332018-03-12T04:52:00.003-07:002018-03-20T05:41:41.882-07:00हमारे ज़ख़्म उरियां...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
तबाही के ये: मंज़र देख लीजे<br />
कहां धड़ है कहां सर देख लीजे<br />
<br />
बुतों के साथ क्या क्या ढह गया है<br />
ज़रा गर्दन घुमा कर देख लीजे<br />
<br />
चले हैं लाल परचम साथ ले कर<br />
कहां पहुंचे मुसाफ़िर देख लीजे <br />
<br />
खड़े हैं रू ब रू मज़्लूमो-ज़ालिम<br />
गिरेगी बर्क़ किस पर देख लीजे<br />
<br />
हमारे ज़ख़्म उरियां हो गए हैं<br />
यही है वक़्त जी-भर देख लीजे<br />
<br />
किसी ने आपको बहका दिया है<br />
मैं शीशा हूं न पत्थर देख लीजे<br />
<br />
कहेगा कौन दिल की बात खुल कर<br />
मेरे सीने के नश्तर देख लीजे !<br />
<br />
शब्दार्थ : तबाही : विध्वंस; मंज़र : दृश्य; बुतों : मूर्त्तियों ; परचम : ध्वज; मुसाफ़िर :यात्री; रू बरू: आमने-सामने; मज़्लूमो-ज़ालिम : पीड़ित और अत्याचारी; बर्क़: आकाशीय बिजली; ज़ख़्म : घाव; उरियां: अनावृत, उघड़े हुए; शीशा : कांच; नश्तर : शल्यक्रिया का उपकरण, क्षुरी।</div>
suresh swapnilhttp://www.blogger.com/profile/10616576572191519628noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8569149792852470566.post-7838199370741147172018-03-09T09:52:00.002-08:002018-03-09T09:52:53.726-08:00ख़ामुशी बेज़ुबां ...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
ख़ुश्बुए-दिल जहां नहीं होती<br />
कोई बरकत वहां नहीं होती<br />
<br />
हौसले साथ- साथ बढ़ते हैं<br />
सिर्फ़ हसरत जवां नहीं होती<br />
<br />
ज़र्फ़ है तो निगाह बोलेगी<br />
ख़ामुशी बेज़ुबां नहीं होती<br />
<br />
ज़िंदगी दर -ब- दर भटकती है<br />
और फिर भी रवां नहीं होती<br />
<br />
ज़ीस्त जब जब फ़रेब करती है<br />
मौत भी मेह्रबां नहीं होती<br />
<br />
फ़र्ज़ है दिल संभाल कर रखना<br />
बेक़रारी कहां नहीं होती<br />
<br />
रूह से जो दुआ निकलती है<br />
वो: कभी रायग़ां नहीं होती !<br />
<br />
(2018)<br />
<br />
-सुरेश स्वप्निल<br />
<br />
शब्दार्थ: ख़ुश्बुए-दिल : मन की सुगंध; बरकत : अभिवृद्धि, श्री वृद्धि; हौसले :साहस,उत्साह; हसरत : अभिलाषा; जवां: युवा; ज़र्फ़ : गंभीरता; निगाह :दृष्टि; ख़ामुशी :मौन; दर ब दर:द्वार द्वार; रविं:सुचारु, प्रवाहमान;ज़ीस्त :जीवन; फ़रेब: कपट; मेह्रबां : दयावान; फ़र्ज़: कर्त्तव्य; बेक़रारी :व्यग्रता; रूह: आत्मा, अंतर्मन; दुआ: प्रार्थना; रायग़ां :व्यर्थ ।</div>
suresh swapnilhttp://www.blogger.com/profile/10616576572191519628noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8569149792852470566.post-16770185956501129282018-02-04T02:51:00.001-08:002018-02-04T02:51:09.198-08:00सोचते नहीं बाग़ी ...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
आजकल ज़माने में ऐतबार किसका है<br />
बेवफ़ा हवाओं पर इख़्तियार किसका है<br />
<br />
क्यूं बताएं दुनिया को राज़ गुनगुनाने का<br />
लोग जान ही लेंगे ये; ख़ुमार किसका है<br />
<br />
इश्क़ ही तरीक़ा है रंजो-ग़म भुलाने का<br />
सामने खड़े हैं हम इंतज़ार किसका है<br />
<br />
शुक्रिया हमें अपनी बज़्म में बिठाने का<br />
आपने दिया है जो वो: मयार किसका है<br />
<br />
वक़्त तोड़ डालेगा हर तिलिस्म साहिर का<br />
ये: हसीन लम्हा भी राज़दार किसका है<br />
<br />
इंक़िलाब के आशिक़ मौत से नहीं डरते<br />
सोचते नहीं बाग़ी इक़्तिदार किसका है<br />
<br />
ख़ाक में पड़े हैं सब शाह भी भिखारी भी<br />
कौन जानता है अब ये; मज़ार किसका है !<br />
<br />
(2017)<br />
<br />
<b> -सुरेश स्वप्निल </b><br />
<span style="font-size: x-small;"><br /></span>
<span style="font-size: x-small;"><b>शब्दार्थ: </b>ऐतबार: विश्वास; बेवफ़ा: आस्थाहीन; इख़्तियार: अधिकार; राज़: रहस्य; ख़ुमार: तंद्रा, मद; रंजो-ग़म: खेद एवं शोक; बज़्म: सभा; मयार: स्थान; तिलिस्म: मायाजाल, रहस्य; साहिर: मायावी; हसीन: सुंदर; लम्हा: क्षण; राज़दार: रहस्य छुपाने वाला; इन्क़िलाब: क्रांति; आशिक़: उत्कट प्रेमी; बाग़ी: विद्रोही; इक़्तिदार: शासन, राज, सत्ता; ख़ाक: धूल; मज़ार: समाधि। </span><br />
<br /></div>
suresh swapnilhttp://www.blogger.com/profile/10616576572191519628noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8569149792852470566.post-52340418950387972502018-01-30T02:56:00.005-08:002018-01-30T02:56:57.519-08:00होकर शहीदे-अम्न...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
नाक़ाबिले-यक़ीं है अगर दास्तां मेरी<br />
बेहतर है काट ले तू इसी दम ज़ुबां मेरी<br />
<br />
देखी तेरी दिल्ली तेरी सरकार तेरा दर<br />
सुनता नहीं है कोई शिकायत जहां मेरी<br />
<br />
सच बोलना गुनाह हो जिस इक़्तेदार में<br />
नाराज़गी ज़रूर दर्ज हो वहां मेरी<br />
<br />
बढ़ता ही जा रहा है बग़ावत का सिलसिला<br />
देखें कि जा रही है कहां तक अज़ां मेरी<br />
<br />
यूं ही नहीं मैं कूच:-ए-क़ातिल में आ गया<br />
हर ज़ुल्म के ख़िलाफ़ लड़ी है ज़ुबां मेरी<br />
<br />
होकर शहीदे-अम्न मुझे अज़्म वो मिला<br />
हर ज़र्र: कर रहा है कहानी बयां मेरी<br />
<br />
जो है क़ुसूरवार उसे दे ख़ुदा सज़ा<br />
मय्यत बिगड़ रही है अगर बे-मकां मेरी !<br />
<br />
(2018)<br />
<br />
<b>-सुरेश स्वप्निल </b><br />
<br />
<span style="font-size: x-small;"><b>शब्दार्थ:</b> नाक़ाबिले-यक़ीं : अविश्वसनीय; दास्तां : गाथा, आख्यान; ज़ुबां : जिव्हा; इक़्तेदार: राज, सरकार; नाराज़गी : अप्रसन्नता, असहमति; दर्ज : अंकित; बग़ावत : विद्रोह; सिलसिला : क्रम; अज़ां : पुकार; कूच:-ए-क़ातिल : वधिक की गली; ज़ुल्म : अन्याय; शहीदे-अम्न : शांति की बलि; अज़्म : पहचान, प्रतिष्ठा; ज़र्र : कण; बयां : व्यक्त; क़ुसूरवार : दोषी, अपराधी; सज़ा : दंड; मय्यत : शव; बे-मकां : समाधि के बिना।</span> </div>
suresh swapnilhttp://www.blogger.com/profile/10616576572191519628noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8569149792852470566.post-1612748841794669512018-01-24T08:02:00.003-08:002018-01-24T08:02:54.691-08:00बाज़ को आस्मां...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
हम ख़ुदा के क़रीब रहते हैं<br />
वां, जहां बदनसीब रहते हैं<br />
<br />
बन रही है वहां स्मार्ट सिटी<br />
जिस जगह सब ग़रीब रहते हैं<br />
<br />
कर रहे हैं गुज़र जहां पर हम<br />
हर मकां में रक़ीब रहते हैं<br />
<br />
बाज़ को आस्मां मिला जबसे<br />
ख़ौफ़ में अंदलीब रहते हैं<br />
<br />
शाह कुछ अहमियत नहीं देते<br />
किस वहम में अदीब रहते हैं<br />
<br />
हम परस्तारे-दिल कहां बैठें<br />
दूर हमसे नजीब रहते हैं <br />
<br />
ख़ुल्द बीमारे-इश्क़ क्यूं जाएं<br />
क्या वहां पर तबीब रहते हैं ?!<br />
<br />
(2018)<br />
<br />
<b> -सुरेश स्वप्निल </b><br />
<br />
<span style="font-size: x-small;"><b>शब्दार्थ:</b> वां: वहां; बदनसीब: अभागे; बाज़: श्येन, एक शिकारी पक्षी; आस्मां: आकाश, सर्वोच्च स्थान; ख़ौफ़: आतंक, भय; अंदलीब: कोयलें; अहमियत: महत्व; वहम: भ्रम, संदेह; अदीब: साहित्यकार; परस्तारे-दिल: हृदय के पुजारी; नजीब: श्रेष्ठि जन, उच्च कुलीन; ख़ुल्द: स्वर्ग; तबीब: औषधि देने वाले, वैद्य। </span> </div>
suresh swapnilhttp://www.blogger.com/profile/10616576572191519628noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8569149792852470566.post-2467541929894916362018-01-23T08:54:00.002-08:002018-01-23T08:54:28.254-08:00हाथ हमने जलाए...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
आपको शौक़ है सताने का<br />
तो हमें मर्ज़ है निभाने का<br />
<br />
सीख लें नौजवां हुनर हमसे<br />
रूठती उम्र को मनाने का<br />
<br />
इश्क़ भी क्या हसीं तरीक़ा है<br />
दुश्मनों को क़रीब लाने का<br />
<br />
शायरी सिर्फ़ एक ज़रिया है<br />
ज़ीस्त के रंजो-ग़म भुलाने का <br />
<br />
हाथ हमने जलाए दानिश्ता<br />
था जहां फ़र्ज़ घर बचाने का<br />
<br />
शाह की फ़ौज शाह के गुंडे<br />
काम है बस्तियां जलाने का<br />
<br />
आ गया वक़्त ताजदारों को<br />
खैंच कर तख़्त से गिराने का !<br />
<br />
(2018)<br />
<br />
-<b>सुरेश स्वप्निल </b><br />
<span style="font-size: x-small;"><br /></span>
<span style="font-size: x-small;"><b>शब्दार्थ: </b>मर्ज़: रोग; हुनर: कौशल; इश्क़: उत्कट प्रेम; हसीं: सुंदर, मोहक; ज़ीस्त: जीवन; रंजो-ग़म: दुःख-दर्द; दानिश्ता: जान-बूझ कर; फ़र्ज़: कर्त्तव्य; फ़ौज: सेना; ताजदारों: सत्ताधारियों; तख़्त: आसन। </span><span style="font-size: x-small;"><br /></span><br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br /></div>
suresh swapnilhttp://www.blogger.com/profile/10616576572191519628noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8569149792852470566.post-31459151595163323782018-01-22T03:47:00.001-08:002018-01-22T03:47:09.197-08:00तजुर्बाते-जम्हूर...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
नई आरज़ू की शुआएं नई<br />
गुलों को मिली हैं हवाएं नई<br />
<br />
अभी दोस्तों को बुरा मत कहो<br />
अभी आ रही हैं दुआएं नई<br />
<br />
न मुजरिम रहे हम न मुल्ज़िम हुए<br />
लगाते रहे वो: दफ़ाएं नई<br />
<br />
इधर लोग बेज़ार हैं आपसे<br />
कहीं और रखिए अदाएं नई <br />
<br />
तजुर्बाते-जम्हूर का शुक्रिया<br />
नहीं चाहिए अब वफ़ाएं नई<br />
<br />
रग़ों में सिमटना मुनासिब नहीं<br />
लहू चाहता है ख़ताएं नई<br />
<br />
ख़ुदा की गली से निकल आए हम<br />
कि जी चाहता है ख़लाएं नई ! <br />
<br />
(2018)<br />
<br />
<b> -सुरेश स्वप्निल </b><br />
<b><br /></b>
<span style="font-size: x-small;"><b>शब्दार्थ: </b>आरज़ू: अभिलाषा; शुआएं; किरणें; गुलों: फूलों; दुआएं: शुभ कामनाएं; मुजरिम: आरोपी; मुल्ज़िम: अपराधी; दफ़ाएं: धाराएं; बेज़ार: तंग, परेशान; अदाएं: -भंगिमाएं; तजुर्बाते-जम्हूर: लोकतंत्र के अनुभव; वफ़ाएं: निष्ठाएं; रग़ों: शिराओं; मुनासिब: उचित; लहू: रक्त; ख़ताएं: अपराध, दोष, उपद्रव; ख़लाएं: एकांत । </span></div>
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ये: एहतरामे-वफ़ा है कि कम नहीं होता<br />
अजीब मर्ज़ लगा है कि कम नहीं होता<br />
<br />
इधर-उधर के कई ग़म उठा लिए सर पर<br />
मगर ये: बार बड़ा है कि कम नहीं होता<br />
<br />
बिखर रहा है मेरा ज़ह्र गर्म झोंकों से<br />
बग़ावतों का नशा है कि कम नहीं होता<br />
<br />
तेरे रसूख़ के क़िस्से कभी नहीं थमते<br />
इधर वो: रंग चढ़ा है कि कम नहीं होता<br />
<br />
कहां कहां से लहू रिस गया रिआया का<br />
फ़ुसूं-ए-शाह नया है कि कम नहीं होता<br />
<br />
अभी तो दाग़ हज़ारों जबीं पे उभरेंगे<br />
ये: शौक़े-क़त्ल बुरा है कि कम नहीं होता<br />
<br />
तेरा ग़ुरूरे-अना है कि सर से ऊपर है<br />
मेरा ये: ख़ौफ़े-ख़ुदा है कि कम नहीं होता !<br />
<br />
(2018)<br />
<b><br /></b>
<b> -सुरेश स्वप्निल </b><br />
<br />
<br />
<span style="font-size: x-small;"><b>शब्दार्थ:</b> एहतरामे-वफ़ा : आस्था के प्रति सम्मान; अजीब : विचित्र;
मर्ज़ : रोग; ग़म : शोक, दुःख; बार : बोझ, भार; ज़ह्र : विष; बग़ावतों :
विद्रोहों; नशा : उन्माद; रसूख़ : प्रभाव; फ़ुसूं : जादू, मायाजाल; दाग़ :
कलंक; जबीं : मस्तक; शौक़े-क़त्ल : हत्या की अभिरुचि; ग़ुरूरे-अना : अहंकार का
गर्व; ख़ौफ़े-ख़ुदा : ईश्वर का भय। </span><br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br /></div>
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वफ़ा में ज़रा सी कमी पड़ गई<br />
हमें दुश्मनों की कमी पड़ गई<br />
<br />
दरिंदे गली दर गली छा गए<br />
कि इंसां की भारी कमी पड़ गई<br />
<br />
चला शाह घर लूटने रिंद का<br />
ख़ज़ाने में थोड़ी कमी पड़ गई<br />
<br />
कभी ज़ब्त की इन्तेहा हो गई<br />
कभी जोश की भी कमी पड़ गई<br />
<br />
फ़रिश्ते उठा ले गए बज़्म से<br />
हमें जब तुम्हारी कमी पड़ गई<br />
<br />
ख़ुदा रोज़ हमको बुलाता रहा<br />
मगर वक़्त की ही कमी पड़ गई<br />
<br />
अभी तो जनाज़ा उठा तक नहीं<br />
अभी से हमारी कमी पड़ गई !<br />
<br />
(2018)<br />
<br />
<b> -सुरेश स्वप्निल</b><br />
<br />
<span style="font-size: x-small;"><b>शब्दार्थ: </b>वफ़ा : आस्था; दरिंदे : हिंसक प्राणी; रिंद : पियक्कड़; ख़ज़ाने : कोष; ज़ब्त : धैर्य; इंतेहा : अति; जोश : उत्साह; फ़रिश्ते : देवदूत; बज़्म : सभा; जनाज़ा : अर्थी। </span><br />
<br />
<br />
<br /></div>
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यूं ही हमको दिल मत देना<br />
आसां सी मुश्किल मत देना<br />
<br />
कश्ती तूफां की आशिक़ है<br />
मिटने को साहिल मत देना<br />
<br />
दुश्मन वो: जो ईमां ले ले<br />
कमज़र्फ़ मुक़ाबिल मत देना<br />
<br />
मंज़िल के सदक़े गर्म लहू<br />
सरसब्ज़ मराहिल मत देना<br />
<br />
जम्हूर बग़ावत कर देगा<br />
उमरा ना -क़ाबिल मत देना<br />
<br />
सदियां हम पर शर्मिंदा हों<br />
ऐसा मुस्तक़बिल मत देना<br />
<br />
हक़ से लेंगे लड़ कर लेंगे<br />
तोहफ़े में हासिल मत देना !<br />
<br />
(2019)<br />
<br />
<b> -सुरेश स्वप्निल </b><br />
<br />
<span style="font-size: x-small;"><b>शब्दार्थ:</b> आसां : सरल; कश्ती : नाव; तूफ़ां : झंझावात; आशिक़ : आसक्त; साहिल : तट; ईमां : आस्था; कमज़र्फ़ : ओछा; मुक़ाबिल : समक्ष, प्रतिद्वंदी; मंज़िल : लक्ष्य; सदक़े : न्यौछावर; लहू : रक्त; सरसब्ज़ : हरे -भरे , छायादार; मराहिल : विश्राम-स्थल; जम्हूर : लोकतंत्र; बग़ावत : विद्रोह; उमरा : मंत्रिगण; ना-क़ाबिल : अयोग्य; शर्मिंदा : लज्जित; मुस्तक़बिल : भविष्य; हक़ : अधिकार; तोहफ़े : उपहार; </span><br />
<span style="font-size: x-small;">हासिल : अभिप्राप्ति। </span><br />
</div>
suresh swapnilhttp://www.blogger.com/profile/10616576572191519628noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8569149792852470566.post-74454802910598569062018-01-16T05:45:00.000-08:002018-01-16T05:45:20.323-08:00नाजायज़ डर....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
दिल ही न दिया तो क्या देंगे<br />
ज़ाहिर है आप दग़ा देंगे<br />
<br />
हम दीवाने हो भी जाएं<br />
क्या घर को आग लगा देंगे ?<br />
<br />
सब नफ़रत अपनी ले आएं<br />
हम सबको प्यार सिखा देंगे<br />
<br />
ख़ामोश मुहब्बत है अपनी<br />
वो पूछें तो बतला देंगे<br />
<br />
नाजायज़ डर भी जायज़ है<br />
वैसे भी वो झुटला देंगे<br />
<br />
मुंसिफ़ ख़ुद दिल के काले हैं<br />
मुजरिम को ख़ाक सज़ा देंगे <br />
<br />
आ जाए ख़ुदा दफ़्तर ले कर <br />
हम सारे क़र्ज़ चुका देंगे !<br />
<br />
(2018)<br />
<br />
<b>-सुरेश स्वप्निल </b><br />
<br />
<span style="font-size: x-small;"><b>शब्दार्थ :</b> ज़ाहिर : स्पष्ट; दग़ा : छल; नफ़रत : घृणा; ख़ामोश : मूक; नाजायज़ : अवैध, अनुचित; जायज़ : वैध; मुंसिफ़ : न्यायाधीश; </span><br />
<span style="font-size: x-small;">मुजरिम : अपराधी; ख़ाक : न कुछ, नाम मात्र; सज़ा : दंड; दफ़्तर : खाता-बही; क़र्ज़ : ऋण। </span></div>
suresh swapnilhttp://www.blogger.com/profile/10616576572191519628noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8569149792852470566.post-21496436279920182572018-01-15T07:55:00.002-08:002018-01-15T07:58:54.724-08:00मग़रिब हुई हमारी...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बीमारे-आरज़ू से कितने सवाल कीजे<br />
पुर्सिश को आए हैं तो कुछ देखभाल कीजे<br />
<br />
चुपचाप दिल उठा कर चल तो दिए मियांजी<br />
इस बेमिसाल शय का कुछ इस्तेमाल कीजे<br />
<br />
मायूस रहते-रहते मग़रिब हुई हमारी<br />
ख़ुशियां ग़रीब दिल की अब तो बहाल कीजे<br />
<br />
फ़ाक़ों में मर रही हैं दहक़ान की उमीदें<br />
अय शाहे-वक़्त आख़िर कुछ तो कमाल कीजे<br />
<br />
भर जाए सल्तनत से दिल आपका कभी जब<br />
मेरी तरह सड़क पर आ कर बवाल कीजे<br />
<br />
आमाल के मुताबिक़ जो मिल गया बहुत है<br />
किस बात पर ख़ुदा का जीना मुहाल कीजे<br />
<br />
फिर आएंगे पलट कर हम क़ैदे-आस्मां से<br />
इस हिज्रे-चंद रोज़ा का क्या मलाल कीजे !<br />
<br />
(2018)<br />
<br />
<b>-सुरेश स्वप्निल</b><br />
<br />
<span style="font-size: x-small;"><b>शब्दार्थ:</b> बीमारे-आरज़ू : इच्छाओं के रोगी; पुरसिश : हाल-चाल पूछना; शय: वस्तु ; इस्तेमाल : प्रयोग; फ़ाकों : उपवासों; दहक़ान : कृषक (बहु.); उमीदें : आशाएं; शाहे-वक़्त : वर्त्तमान शासक; कमाल : चमत्कार; आमाल : कर्मों; मुताबिक़ : अनुसार; मुहाल : दुरूह, कठिन; क़ैदे-आस्मां : ईश्वर/स्वर्ग की कारा; हिज्रे-चंद रोज़ा : चार दिन के वियोग; मलाल : खेद। </span><br />
<br /></div>
suresh swapnilhttp://www.blogger.com/profile/10616576572191519628noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8569149792852470566.post-60965277739664804032018-01-14T09:39:00.000-08:002018-01-14T09:56:18.554-08:00टूट कर रो...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बेख़ुदी गो बहुत ज़रूरी है<br />
ज़र्फ़ भी तो बहुत ज़रूरी है<br />
<br />
दोस्तों को दुआ न दे लेकिन<br />
दुश्मनों को बहुत ज़रूरी है<br />
<br />
जल न जाए फ़सल उमीदों की<br />
ग़म नए बो बहुत ज़रूरी है <br />
<br />
लोग इस्लाह तो करेंगे ही<br />
वो करें जो बहुत ज़रूरी है<br />
<br />
क्यूं रहे इज़्तिराब सीने में <br />
दाग़े-दिल धो बहुत ज़रूरी है<br />
<br />
सर्द ख़ूं संगदिल ज़माने में<br />
तान कर सो बहुत ज़रूरी है<br />
<br />
मर गया है ज़मीर मुंसिफ़ का <br />
टूट कर रो बहुत ज़रूरी है !<br />
<br />
(2018)<br />
<br />
<b> -सुरेश स्वप्निल </b><br />
<span style="font-size: x-small;"><br /></span>
<span style="font-size: x-small;"><b>शब्दार्थ :</b> बेख़ुदी : आत्म-विस्मरण; गो : यद्यपि; ज़र्फ़ : गंभीरता, गहनता; दुआ : शुभकामना; उमीदों : आशाओं; ग़म : दु:ख; इस्लाह : मार्गदर्शन, सुझाव देना; इज़्तिराब : विकलता; दाग़े-दिल : मन के कलंक, लांछन; सर्द : ऊष्मा-विहीन; ख़ूं :रक्त; संगदिल: पाषाण-ह्रदय; ज़मीर :अंतरात्मा, विवेक;मुंसिफ़ : न्यायाधीश। </span><br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br /></div>
suresh swapnilhttp://www.blogger.com/profile/10616576572191519628noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8569149792852470566.post-24452195233936716972017-12-08T09:27:00.000-08:002017-12-08T09:27:47.963-08:00हाकिमों के हाथ ...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
दुश्मनों की नब्ज़ में धंसते हुए<br />
ख़ाक में मिल जाएंगे हंसते हुए<br />
<br />
ज़र्द पड़ती जा रही है ज़िंदगी<br />
तार दिल के साज़ के कसते हुए<br />
<br />
साफ़ कहिए क्या परेशानी हुई<br />
शह्रे-दिल में आपको बसते हुए<br />
<br />
इश्क़ जिसने कर लिया सय्याद से<br />
कुछ न सोचा जाल में फंसते हुए<br />
<br />
आस्तीं में पल रहे हैं मुल्क की<br />
नाग काले रात-दिन डसते हुए<br />
<br />
थे हमारे आशियां कल तक जहां<br />
ताजिरों के नाम के रस्ते हुए<br />
<br />
मुफ़लिसो-मज़्लूम के ख़ूं से सने<br />
हाकिमों के हाथ गुलदस्ते हुए !<br />
<br />
(2017)<br />
<br />
<b> - सुरेश स्वप्निल</b><br />
<br />
शब्दार्थ:<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br /></div>
suresh swapnilhttp://www.blogger.com/profile/10616576572191519628noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8569149792852470566.post-62356182923059961102017-12-07T07:40:00.003-08:002017-12-07T07:40:45.157-08:00...मयार खो बैठे !<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
रास्ते कम नहीं मोहब्बत के<br />
पर क़दम तो उठें इनायत के<br />
<br />
जानलेवा है मौसमे सरमां<br />
हिज्र में दिन हुए हरारत के<br />
<br />
बात क्या इश्क़ की करेंगे वो<br />
जो तरफ़दार हैं अदावत के<br />
<br />
शाह की बद्ज़ुबानियां तौबा !<br />
बोल तो देखिए हिकारत के<br />
<br />
आप अपना मयार खो बैठे<br />
छोड़ कर दायरे शराफ़त के<br />
<br />
जान लें काश्तकार नफ़रत के<br />
दिन गए गंद की सियासत के<br />
<br />
एक रब को मना नहीं पाते<br />
खुल गए दर कई इबादत के !<br />
<br />
(2017)<br />
<br />
-<b>सुरेश स्वप्निल </b><br />
<br />
<span style="font-size: x-small;"><b>शब्दार्थ:</b> इनायत : कृपा; मौसमे सरमां : शीत ऋतु; हिज्र : वियोग; हरारत : हल्का ज्वर; तरफ़दार : पक्षधर; अदावत : शत्रुता; बद्ज़ुबानियां : अभद्र भाषा के प्रयोग; हिकारत : तिरस्कार, घृणा, अपमान; मयार : उच्च स्थिति; दायरे : परिधियां; शराफ़त : भद्रता, शालीनता; काश्तकार : फ़सल उगाने वाले, कृषक; नफ़रत : घृणा; गंद : मलीनता, कीचड़; रब : ईश्वर; दर : द्वार, स्थान; इबादत : पूजा। </span><br />
<br /></div>
suresh swapnilhttp://www.blogger.com/profile/10616576572191519628noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8569149792852470566.post-46081777919571434982017-11-15T04:29:00.003-08:002017-11-15T04:29:43.557-08:00 ख़ुद्दारियां हमारी ...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
हर शख़्स जानता है दुश्वारियां हमारी<br />
शाहों को खल रही हैं ख़ुद्दारियां हमारी<br />
<br />
या तो क़ुबूल कर लें या हम कमाल कर दें<br />
महदूद हैं यहीं तक ऐय्यारियां हमारी <br />
<br />
ऐ चार:गर कभी तो ऐसी दवा बता दे<br />
क़ाबू में कर सकें जो बीमारियां हमारी<br />
<br />
तुम भी ग़लत नहीं हो हम भी बुरे नहीं हैं<br />
किस बात की सज़ा हैं फिर दूरियां हमारी<br />
<br />
अह् ले-सितम समझ लें फ़ातेह हों न हों हम<br />
अबके शबाब पर हैं तैयारियां हमारी<br />
<br />
सरकार जिस तरह से घुटनों पे आ गई है<br />
तय है असर करेंगी बेज़ारियां हमारी<br />
<br />
क्यूं सज्द:गर नहीं हम इस दौरे-ज़ालिमां में<br />
क्या जानता नहीं वो: मजबूरियां हमारी !<br />
<br />
(2017)<br />
<br />
<b> -सुरेश स्वप्निल</b><br />
<br />
<b><span style="font-size: x-small;">शब्दार्थ:</span></b> <span style="font-size: x-small;">शख़्स : व्यक्ति; दुश्वारियां: कठिनाइयां; ख़ुद्दारियां :स्वाभिमानी कार्य; क़ुबूल :स्वीकार; कमाल :चमत्कार; महदूद:सीमित: ऐय्यारियां :चतुराईयां; चार:गर :उपचारक; क़ाबू :नियंत्रण; सज़ा :दंड; बेज़ारियां :विमुखता, अप्रसन्नताएं; सज्द:गर :साष्टांग प्रणाम करने वाले; दौरे-ज़ालिमां :अत्याचारियों का काल। </span><br />
<br />
<br /></div>
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ग़रीबों का दिल 'गर समंदर न हो<br />
तो दुनिया कभी हद से बाहर न हो<br />
<br />
करें क़त्ल हमको बुराई नहीं<br />
अगर आपका नाम ज़ाहिर न हो<br />
<br />
रहे कौन ऐसी जगह पर जहां<br />
कहीं आश्नाई का मंज़र न हो<br />
<br />
महज़ इत्तिफ़ाक़न चली है हवा<br />
ये: सेहरा किसी और के सर न हो<br />
<br />
न देखा करें आप अब आइना<br />
अगर पास में कोई पत्थर न हो<br />
<br />
मिलें रू-ब-रू जब कभी आप-हम<br />
तो दिल पर सियाही की चादर न हो<br />
<br />
बुलंदी सलामत रहे आपकी<br />
मगर क़द ख़ुदा के बराबर न हो !<br />
<br />
(2017)<br />
<b><br /></b>
<b> -सुरेश स्वप्निल </b><br />
<br />
<span style="font-size: x-small;"><b>शब्दार्थ:</b> समंदर: समुद्र; हद: सीमा; ज़ाहिर: प्रकट; आश्नाई: मित्रता; मंज़र: दृश्य; महज़: मात्र; इत्तिफ़ाक़न: संयोगवश; सेहरा: श्रेय; रू-ब-रू: मुखामुख, आमने-सामने; सियाही: कालिमा, मलिनता, बैर-भाव; बुलंदी: उच्चता; सलामत: सुरक्षित, यथावत; क़द: ऊंचाई। </span><br />
<br /></div>
suresh swapnilhttp://www.blogger.com/profile/10616576572191519628noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8569149792852470566.post-51089738284387008482017-11-06T04:08:00.003-08:002017-11-06T04:08:43.710-08:00फ़र्क़ का फ़लसफ़ा...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बहरहाल कुछ तो हुआ है ग़लत<br />
तुम्हारी दुआ या दवा है ग़लत<br />
<br />
ख़बर ही नहीं है शहंशाह को<br />
कि हर मा'मले में अना है ग़लत<br />
<br />
हुकूमत निकल जाएगी हाथ से <br />
अगर सोच का सिलसिला है ग़लत<br />
<br />
तमाशा -ए- ऐवाने - जम्हूर में<br />
बहस का हरेक मुद्द'आ है ग़लत<br />
<br />
न हिंदू भला है न मुस्लिम बुरा<br />
कि ये: फ़र्क़ का फ़लसफ़ा है ग़लत<br />
<br />
ख़ुदा लाख हमको पुकारा करे<br />
कहां ढूंढिए हर पता है ग़लत ! <br />
<br />
(2017)<br />
<br />
<br />
<b>-सुरेश स्वप्निल </b><br />
<br />
<span style="font-size: x-small;"><b>शब्दार्थ: </b>बहरहाल: अंततोगत्वा, अंततः; दुआ: प्रार्थना; ख़बर: बोध, ज्ञान; अना: अहंकार; हुकूमत: शासन, सत्ता; सोच का सिलसिला: विचारधारा; तमाशा-ए-ऐवाने-जम्हूर: लोकतांतत्रिक सदनों के प्रहसन; मुद्द'आ: विषय; फ़लसफ़ा: दर्शन; बहर: छंद; क़ाफ़िया: तुकांत शब्द। </span></div>
suresh swapnilhttp://www.blogger.com/profile/10616576572191519628noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8569149792852470566.post-40877540567721918322017-11-02T16:20:00.001-07:002017-11-02T16:20:56.810-07:00बहुत देखे सिकंदर ....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कम अज़ कम क़त्ल तो कीजे ख़ुशी से<br />
न होगा काम ये मुर्दादिली से<br />
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बवंडर ही उठा देगा किसी दिन<br />
लगाना आपका दिल हर किसी से<br />
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निभाना हो ज़रूरी तो निभाएं <br />
न थामें हाथ लेकिन बेबसी से <br />
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न हो मंज़ूर जिसको साथ ग़म का<br />
निकल जाए हमारी ज़िंदगी से<br />
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ख़राबी ख़ाक समझेंगे 'ख़ुदा' की<br />
जिन्हें फ़ुर्सत नहीं है बंदगी से<br />
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बहुत देखे सिकंदर शाह हमने<br />
गए तो हाथ ख़ाली थे ख़ुदी से<br />
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तिजारत क्या हमें रुस्वा करेगी<br />
हमारी लौ लगी है मुफ़लिसी से !<br />
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(2017)<br />
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-सुरेश स्वप्निल<br />
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शब्दार्थ: </div>
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