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बुधवार, 20 नवंबर 2013

नशा नज़र का...!

तेरा  ख़याल  निगाहों  में  फिर  संवर  आया
यहां  वहां  से    लौट  के   परिंद:  घर  आया

हमें  वो:  अजनबी   जो  तूर  पर   नज़र  आया
ख़याल  क्यूं  उसी  का  फिर  शबो-सहर  आया

असर  तेरा  है    के:  बस   ख़ाम-ख़याली  मेरी
रग़े-जिगर  में  तेरा  अक्स  फिर  उभर  आया

मिले तो इस तरह  के:  नाम तक न पूछ  सके
नशा  नज़र  का  मगर  रूह  तक  उतर  आया

नफ़स-नफ़स  में  तेरा  नाम  लिए  जाते  थे
तुझे   ख़याल    हमारा    लबे-सफ़र    आया

उतर  गया  जो  शख़्स    एक  बार   नज़रों  से
हमारे  दिल  में  पलट  के   न  उम्र  भर  आया

ख़ुदा  क़सम  ये:  तेरा  शहर  छोड़  देंगे  हम
दिलों  के  बीच  कहीं  फ़ासला  अगर  आया !

                                                             ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: तूर: अरब में सीना की वादी में स्थित एक मिथकीय पर्वत जहां हज़रत मूसा को ख़ुदा के नूर की एक झलक मिली; 
शबो-सहर: रात और प्रात:; ख़ाम-ख़याली: व्यर्थ भ्रम; रग़े-जिगर: हृदय की पेशी; अक्स: छाया, प्रतिबिम्ब; 
नफ़स-नफ़स: सांस-सांस; लबे-सफ़र: (अंतिम) यात्रा पर निकलते समय; फ़ासला:अंतराल।