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सोमवार, 9 सितंबर 2013

क़ौम से दग़ा...

तमाम   उम्र    गुज़ारी  है     ये:  दुआ  करते
हमारे  दोस्त   किसी  रोज़  तो  वफ़ा  करते

कहीं    सुराग़  तो  पाएं     के:    ऐतबार  करें
वो:  इश्क़  में  हैं  तो  क्यूं कर  न  राब्ता  करते

हमें  उम्मीद  नहीं  अब  किसी  शिफ़ाई  की
तबीब  थक  चुके  हैं  मुल्क  की  दवा  करते

ये:  हुक्मराने-वतन  हैं  के:  दुश्मने-जां  हैं
ज़रा  भी  शर्म  नहीं  क़ौम  से  दग़ा  करते

उन्हें  क़ुसूर  न  दीजे  के:  बदगुमां  हैं  वो:
हमीं  को  वक़्त  नहीं  था  के:  आशना  करते

वहां  वो:  बज़्मे-दुश्मनां  में  पढ़  रहे  हैं  ग़ज़ल
यहां    तड़प   रहे  हैं    हम     ख़ुदा-ख़ुदा  करते

मेरे  शहर  में  नफ़रतों  के  बीज  मत  बोना
यहां  ज़मीं  में    असलहे    नहीं  उगा  करते  !

                                                              ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: वफ़ा: निर्वाह; चिह्न, संकेत, सूत्र; ऐतबार: विश्वास; राब्ता: संपर्क; शिफ़ाई: आरोग्य; तबीब: चिकित्सक;
हुक्मराने-वतन: देश के शासक; दुश्मने-जां: प्राण-शत्रु; क़ौम: राष्ट्र; दग़ा: धोखाधड़ी; क़ुसूर: दोष; बदगुमां: भ्रमित, बहके हुए; 
आशना: संगी-साथी; बज़्मे-दुश्मनां: शत्रुओं के आयोजन, सभा; नफ़रतों: घृणाओं; असलहे: अस्त्र-शस्त्र।