दुश्मनों की नब्ज़ में धंसते हुए
ख़ाक में मिल जाएंगे हंसते हुए
ज़र्द पड़ती जा रही है ज़िंदगी
तार दिल के साज़ के कसते हुए
साफ़ कहिए क्या परेशानी हुई
शह्रे-दिल में आपको बसते हुए
इश्क़ जिसने कर लिया सय्याद से
कुछ न सोचा जाल में फंसते हुए
आस्तीं में पल रहे हैं मुल्क की
नाग काले रात-दिन डसते हुए
थे हमारे आशियां कल तक जहां
ताजिरों के नाम के रस्ते हुए
मुफ़लिसो-मज़्लूम के ख़ूं से सने
हाकिमों के हाथ गुलदस्ते हुए !
(2017)
- सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ:
ख़ाक में मिल जाएंगे हंसते हुए
ज़र्द पड़ती जा रही है ज़िंदगी
तार दिल के साज़ के कसते हुए
साफ़ कहिए क्या परेशानी हुई
शह्रे-दिल में आपको बसते हुए
इश्क़ जिसने कर लिया सय्याद से
कुछ न सोचा जाल में फंसते हुए
आस्तीं में पल रहे हैं मुल्क की
नाग काले रात-दिन डसते हुए
थे हमारे आशियां कल तक जहां
ताजिरों के नाम के रस्ते हुए
मुफ़लिसो-मज़्लूम के ख़ूं से सने
हाकिमों के हाथ गुलदस्ते हुए !
(2017)
- सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: