ज़ब्त करते हैं मुस्कुराते हैं
हिज्र में भी वफ़ा निभाते हैं
हम किसी को दग़ा नहीं देते
सब यही फ़ायदा उठाते हैं
ख़ाक़ हो जाएं तो होने दीजे
आप ही तो हमें जलाते हैं
हम हक़ीक़त-पसंद हैं यारों
वक़्त को आइना दिखाते हैं
नींद आने लगी हमें जबसे
ख़्वाब आ-आ के लौट जाते हैं
रुख़ बदल ही गया हवाओं का
रूठ के वो: हमें मनाते हैं
जिसको बंदों की फ़िक्र होती है
हम उसी को ख़ुदा बताते हैं !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: ज़ब्त: संयम; हिज्र: वियोग; वफ़ा: आस्था; दग़ा: धोखा; ख़ाक़: राख; हक़ीक़त-पसंद: यथार्थवादी;
मुद्द'आ: विवाद का विषय; रुख़: दिशा; बंदों: भक्तों।
हिज्र में भी वफ़ा निभाते हैं
हम किसी को दग़ा नहीं देते
सब यही फ़ायदा उठाते हैं
ख़ाक़ हो जाएं तो होने दीजे
आप ही तो हमें जलाते हैं
हम हक़ीक़त-पसंद हैं यारों
वक़्त को आइना दिखाते हैं
नींद आने लगी हमें जबसे
ख़्वाब आ-आ के लौट जाते हैं
रुख़ बदल ही गया हवाओं का
रूठ के वो: हमें मनाते हैं
जिसको बंदों की फ़िक्र होती है
हम उसी को ख़ुदा बताते हैं !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: ज़ब्त: संयम; हिज्र: वियोग; वफ़ा: आस्था; दग़ा: धोखा; ख़ाक़: राख; हक़ीक़त-पसंद: यथार्थवादी;
मुद्द'आ: विवाद का विषय; रुख़: दिशा; बंदों: भक्तों।