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बुधवार, 28 अगस्त 2013

ख़ुदा नहीं होते !

हम  अगर   नाख़ुदा   नहीं  होते
साहिलों   से    जुदा   नहीं  होते

तीर  खुल  के  चलाइए  हम  पे
हम  किसी  से  ख़फ़ा नहीं  होते

रात  कटती  अगर  निगाहों  में
ख़्वाब  यूं    लापता   नहीं  होते

इश्क़  है  काम अह् ले-ईमां  का
जो   कभी    बेवफ़ा    नहीं  होते

रहरवी  के   उसूल   कामिल  हैं
मरहले     रास्ता       नहीं  होते

शबो-शब  वस्ल  हो  अगर  रहता
ज़ख़्म   बादे-सबा    नहीं    होते

हमने   फ़ाक़ाकशी   न  की  होती
मुफ़लिसों  की   दुआ   नहीं  होते

क़ातिलों  में    शुमार    हो  जाते
जो      शहीदे-वफ़ा     नहीं  होते

नाप     आए     बुलंदियां    सारी
लोग  फिर  भी  ख़ुदा  नहीं  होते !

                                        ( 2013 )

                                -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: नाविक; साहिलों: किनारों; जुदा: विलग, दूर; ख़फ़ा: नाराज़; अह् ले-ईमां: आस्तिक; रहरवी: यात्रा; उसूल: सिध्दांत;  कामिल: सर्वांग-सम्पूर्ण, अपरिवर्त्तनीय; मरहले: पड़ाव; शबो-शब: रात्रि-प्रतिरात्रि; ज़ख़्म: घाव; प्रातः काल की शीतल समीर;फ़ाक़ाकशी: भूखे रहने का अभ्यास; मुफ़लिसों: विपन्न, निर्धनों की ; बुलंदियां: ऊंचाइयां।