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मंगलवार, 15 जनवरी 2013

थे जवां हम भी कभी ....

उनके ज़ाती  बयाज़  में  मेरे  कुछ  ख़्वाब  भी  थे
जज़्ब:-ए-इश्क़   से   पुरनूर     आफ़ताब   भी  थे

दिल  के  कहने  पे  ज़ेहन  मान  तो  गया  लेकिन
थे   सवालात   उधर    तो   इधर   जवाब   भी   थे

हमारे  जाने   के  बाद   याद  कीजिएगा   जब  भी
रहे  ख़्याल   के:  हम   थे    तो  इन्क़िलाब   भी   थे

सज्द:-ए-शुक्र  में  नम  चश्म   को उठना  न  हुआ
गो  वो: महफ़िल  में  मनाज़िर थे , बेहिजाब  भी थे

आईना    देखते    हैं    तो     हमें   याद   आता    है
थे  जवां   हम   भी   कभी   और  लाजवाब  भी  थे।

                                                   (14 जन ; 2013)

                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ :  ज़ाती बयाज़ : निजी डायरियां ; पुरनूर: प्रकाशमान ; आफ़ताब: सूर्य ; ज़ेहन: मस्तिष्क ; सज्द:-ए-शुक्र: ईद पर ईश्वर का धन्यवाद                  व्यक्त  करने हेतु  पढ़ी जाने  वाली  नमाज़ में किया जाने वाला सज्दा (साष्टांग प्रणाम) मनाज़िर : प्रकट , दृश्य ; बेहिजाब: बेपर्दा .