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बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

कहां तक गिरोगे ...?

नमी   ही    नहीं   है    तुम्हारी   नज़र  में
ये:  दौलत  लुटा  आए  किसके  असर  में

नहीं  सर  पे  साया   कहीं  इस  सफ़र  में
बड़ी  तेज़    है  धूप    दिल  के    शहर  में

वही     रंजो-ग़म     हैं,     वही    आरज़ूएं
नया  कुछ  नहीं    ज़िंदगी  की   ख़बर  में

ये:  मासूमियत     देखिए     क़ातिलों  की
दवा    दे  रहे  हैं    मिला  कर     ज़हर  में

ये:  दावा-ए-उल्फ़त  है  कमज़ोर  कितना
बराबर  वज़न  में,   न  कामिल   बहर  में

बहुत   क़ीमती   है   ये:   सरमाय:-ए-ईमां
न  आए  कभी     दुश्मनों  की    नज़र  में

हज़ारों   गुनाहों   पे     बस     एक  माफ़ी
कहां  तक  गिरोगे  किसी  की  नज़र  में  ?!

                                                             ( 2014 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: साया: छाया; रंजो-ग़म: दु:ख-दर्द; आरज़ूएं: अभिलाषाएं; मासूमियत: अबोधता; दावा-ए-उल्फ़त: प्रेम का स्वत्व; 
वज़न: मात्रा; कामिल बहर: परिपूर्ण छंद; सरमाय:-ए-ईमां: आस्था की पूंजी।

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

दिलकुशी की वजह...!

काश !  दिल  को  क़रार  आ  जाए
कारवां  - ए - बहार        आ  जाए

कौन    कम्बख़्त   ख़ुम्र   मांगे  है
जो  नज़र  में    ख़ुमार   आ जाए

ख़्वाब  भी    आएंगे    निगाहों  में
नींद  पर    इख़्तियार    आ  जाए

दिलकुशी  की  वजह  ज़रा-सी  है
आपको        ऐतबार     आ  जाए

दोस्ती    चार  दिन   नहीं  चलती
गर  दिलों  में    दरार    आ  जाए 

हो  हुकूमत  यज़ीद  की  हम  पर
तो  क़यामत    हज़ार    आ  जाए

ज़िंदगी     रोज़    मार     डाले  है
मौत  ही     एक   बार   आ  जाए

हो  अज़ां-ए-फजर  तेरे  मुंह  से
तो      शबे-इंतेज़ार     आ  जाए

बोरिया  बंध  गया  हमारा  अब
आस्मां  से    पुकार     आ जाए  !

                                                  ( 2014 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:   क़रार: धैर्य, संतोष; कारवां-ए-बहार: दल-बल सहित बसंत; कम्बख़्त: अभागा; ख़ुम्र: मदिरा; ख़ुमार: मद; इख़्तियार: नियंत्रण; दिलकुशी: मन पर नियंत्रण, इच्छाओं का दमन; ऐतबार: विश्वास; गर: यदि; यज़ीद: हज़रत इमाम हुसैन स.अ. और उनके साथियों का हत्यारा; क़यामत: प्रलय; अज़ां-ए-फजर: उष:काल के समय होने वाली अज़ान; शबे-इंतेज़ार: प्रतीक्षा की रात्रि; बोरिया: बिस्तर-बोरिया, यात्रा का सामान 

रविवार, 23 फ़रवरी 2014

अज़ान का जादू

उसका  चेहरा  दुआओं  जैसा  है
सुब्हे-नौ  की  शुआओं  जैसा  है

तिफ़्ले-मासूम  की  तबस्सुम-सा
दिल  तेरा  देवताओं  जैसा  है

उस  हसीं  की  अज़ान  का  जादू
दर्दे-दिल  की  दुआओं  जैसा  है

'आप'  क्या  कीजिए  सियासत  में
ये:  शहर  बेवफ़ाओं  जैसा  है

तू  ज़ुलैख़ा  तो  हम  भी  यूसुफ़  हैं
रंग  बेशक़  घटाओं  जैसा  है

भेस  जिसका  फ़क़ीर  जैसा  है
अज़्म  उसका  ख़ुदाओं  जैसा  है

बेवजह  अर्शे-नुहुम  तक  दौड़े
देस  उसका  ख़लाओं  जैसा  है !

                                             ( 2014 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सुब्हे-नौ: नई प्रात: ; शुआ: किरण; तिफ़्ले-मासूम: अबोध शिशु; तबस्सुम: मुस्कुराहट; ज़ुलैख़ा-यूसुफ़:मिथकीय चरित्र, 
संसार के सुंदरतम मनुष्य; भेस: वेश; फ़क़ीर: सन्यासी; अज़्म: महत्ता; अर्शे-नुहुम: नौवां आकाश, स्वर्ग-द्वार; ख़ला: निर्जन स्थान। 









मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

बादे-सबा के ख़ास..!

रहे-सफ़र      तमाम     लोग     आसपास  रहे
हमीं   थे     बेक़रार,    अर्श   तक    उदास  रहे

हमें  ये:   रंज  नहीं    क्या   गंवा  दिया  हमने
मिला  है  जो  उसी  को  ले  के  बदहवास  रहे

बहार     फिर    क़रीब  से     गुज़र  गई    मेरे
वो:  ख़ुशनसीब  थे,   बादे-सबा  के   ख़ास  रहे

ख़ुदा  न  कर  सका  हमारे  हक़  में  इतना  भी
कि  मुश्किलों  के  वक़्त  कोई  ग़मशनास  रहे

न   ऐतबार    हो  सका     किसी    करिश्मे  पर
ज़ेह्न  में  मग़फ़िरत  के  नाम  बस  क़यास  रहे

मिली  न  नींद  सुकूं  की  अज़ल  तलक  हमको
हरेक    रात     मगर      ख़्वाब    आसपास  रहे

करम   का  माद्दा  अगर  न  हो  तो  बतला  दे
किसी  ग़रीब  के  दिल  में  न  कोई  आस  रहे  !

                                                                    ( 2014 )

                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रहे-सफ़र: यात्रा-पथ में; बेक़रार: व्याकुल; अर्श: आकाश; रंज: खेद; बदहवास: आशंकित, बादे-सबा: शीतल समीर; 
ग़मशनास: दुःख में सांत्वना देने वाला; ऐतबार: विश्वास; करिश्मा: चमत्कार; ज़ेह्न: मस्तिष्क;  मग़फ़िरत: मोक्ष; 
क़यास: अनुमान; सुकूं: संतोष; अज़ल: मृत्यु; करम: कृपा; माद्दा: सामर्थ्य।   

सोमवार, 17 फ़रवरी 2014

मुफ़लिसी की दवाएं...!

दूर       जा     कर     दुआएं     देते  हैं
ख़ूब        हमको      वफ़ाएं      देते  हैं

देख      ली      आपकी     फ़राग़दिली
जान      ले    कर     अदाएं     देते  हैं

बांटते         हैं        बहार      ग़ैरों  को
और      हमको     ख़िज़ाएं      देते  हैं

शे'र  कहते  हैं   हम  पे  महफ़िल  में
हस्रतों     को      हवाएं           देते  हैं

'तख़्लिया'    कहके    भाग   जाते  हैं
ख़्वाहिशों     को     ख़लाएं      देते  हैं

सच  न  कह  दें  वो:  आपके  मुंह  पे
आईनों     को     रिदाएं         देते  हैं

शाह     हैं        मेह्र्बां     रियाया  पर
मुफ़लिसी      की      दवाएं    देते  हैं 

ख़ुल्द   है   दूर,      हमसे    कहते  हैं
फिर    फ़लक़   से     सदाएं  देते  हैं !

                                                          ( 2014 )

                                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: फ़राग़दिली: उदारता;  ख़िज़ाएं: पतझड़; महफ़िल: गोष्ठी; हस्रतों: आकांक्षाओं; 'तख़्लिया': एकांत; ख़्वाहिशों: इच्छाओं; 
ख़लाएं: एकांत, निर्जन स्थान; रिदाएं: आवरण; मेह्र्बां: दयालु; रियाया: प्रजा; मुफ़लिसी: निर्धनता; ख़ुल्द: स्वर्ग; फ़लक़: आकाश। 

रविवार, 16 फ़रवरी 2014

नई सहर देखो !

शहसवारों !     ज़रा     इधर  देखो
पैदली     मात    का    हुनर  देखो

ख़लबली   है    सभी     हरीफ़ों  में
'आप'  के  नाम  का   असर  देखो

जिस्म  नीला  पड़ा  सियासत  का
झूठ  के    सांप  का    ज़हर   देखो

डगमगाते   हैं    पांव   मंज़िल  के
ख़ाकसारों     की    रहगुज़र  देखो 

नाख़ुदा  ही    भंवर  में    ले  आया
डूबती      नाव  का     सफ़र  देखो

दर्दे-दिल  से  ज़रा  निजात  मिली
फिर  बहकने  लगी    नज़र  देखो

तोड़    लेना    वफ़ाओं   के  रिश्ते
लड़खड़ाते      हमें      अगर  देखो

रंग    बदले     हैं    आसमानों  के
आ   रही   है     नई   सहर    देखो

रिज़्क़  मिल  जाए  तो  नमाज़  पढ़ें
ख़ुल्द  देखो  कि  अपना  घर  देखो  !

                                                   ( 2014 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: शहसवारों: घुड़सवारों; पैदली मात: शतरंज में पैदलों के सहारे राजा को घेरना; हुनर: कला, क्षमता; ख़ाकसारों : दरिद्रजन; 
रहगुज़र: पथ, यात्रा  का संघर्ष; हरीफ़ों: प्रतिद्वंदियों;  नाख़ुदा: नाविक;  सहर: उष: काल; रिज़्क़: दैनिक भोजन; ख़ुल्द: स्वर्ग, परलोक। 

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

दुनिया देखी है...!

यूं   तो    तुमने    सारी   दुनिया   देखी  है
अपने  घर  की  हालत  भी  क्या  देखी  है

क़ासिद  की  आंखों  में  क्यूं  कर  पानी  है
क्या  उसने  भी  दिल  की  दुनिया  देखी  है

हम  यूं  ही  मायूस  नहीं  इस  दुनिया  से
हर  शै    मतलब   से    वाबस्ता  देखी  है

काग़ज़  की  कश्ती  ही  सबसे  बेहतर  है
दीवानों   ने     मौजे- दरिया      देखी  है

क्या  तुमने  झुकने  के    मानी  सीखे  हैं
हमने      तो       मीनारे-पीसा    देखी  है

पहचानो  हमको,  यह  बेहद  आसां  है
गर   तुमने    तस्वीरे - ईसा    देखी  है

क़िस्मत  समझो,  हम  ख़्वाबों  में  आते  हैं
यह    सूरत     किसने     बेपर्दा    देखी  है  !

                                                             ( 2014 )

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: क़ासिद: संदेश-वाहक; शै: प्रकृति की रचना; वाबस्ता: संबद्ध, जुड़ी हुई; कश्ती: नाव; मौजे- दरिया: नदी की लहर;  
मीनारे-पीसा: पीसा ( इटली ) की प्रसिद्ध झूलती मीनार। 

वो: महजबीं न आएगा ..!

मेरे  बयां  पे  किसी  को  यक़ीं  न  आएगा
अगर  अज़ां  पे  मेरी  वो:  हसीं  न  आएगा

कोई  बताए  कि  ऐसी  बहार  क्या  कीजे
शवाब  पर  जो  गुले-आतशीं  न  आएगा

अभी  है  वक़्त  दिल  का  लेन-देन  कर  लीजे
क़रीब  वर्न:  कोई  दिलनशीं  न  आएगा

हमारे  बीच  के  रिश्ते  में  रूहदारी  है 
यहां  ख़याले-दिले-नुक़्त:चीं  न  आएगा

ये:  चांद  रात  भी  क़ुबूल  नहीं  है  हमको
नज़र  जो  बाम  पे  वो:  महजबीं  न  आएगा

अजब  है  रंग  मेरे  यार  की  वफ़ाओं  का
जहां  बुलाओ  उसे  बस  वहीं  न  आएगा

मेरी  ग़ज़ल  पे लाख  मरहबा  कहे  दुनिया
तेरी  ज़ुबां  पे  लफ़्ज़े-आफ़्रीं  न  आएगा  !

तेरी  तलाश  में  हम  उस  मक़ाम  तक  पहुंचे
जहां  पे  कोई  भी  अह् ले-ज़मीं  न  आएगा  !

                                                                 ( 2014 )

                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: बयां: वक्तव्य, बयान का लघु; शवाब: पूर्ण यौवन; गुले-आतशीं: आग जैसे लाल रंग वाला बारहमासी गुलाब का फूल; 
दिलनशीं: हृदय को लुभाने वाला; रूहदारी: आत्मिकता, आध्यात्मिकता; ख़याले-दिले-नुक़्त:चीं: छिद्रान्वेषी हृदय का विचार; बाम: झरोखा; महजबीं: चंद्रभाल; मरहबा: साधु-साधु; लफ़्ज़े-आफ़्रीं: वाह-वाह, प्रशंसा का शब्द; मक़ाम: स्थल; अह् ले-ज़मीं: पृथ्वी-वासी।

बुधवार, 12 फ़रवरी 2014

दीवानों का मजमा

हम  जो  जागे  रात-रात  भर,  हमको  कोई  काम  न  था
तुम  क्यूं  दीवाने  हो  बैठे,  तुमको  क्यूं  आराम  न  था  ?

आज  हमारे  घर  के  आगे,  दीवानों  का  मजमा  है
कल  तक  तेरे  यार  न  थे  तो  दिल  इतना  बदनाम  न  था

बढ़ते  ही  जाते  हैं  दिन  पर  दिन  हम  पर  हंसने  वाले
था  दीवानापन  हममें  पहले  भी ,  सुब्हो-शाम  न  था

लोग  हमारे  दर  पर  आ  कर  नाहक़  सज्दा  करते  हैं
अपने  तो  सारे  शजरे  में  कोई  रहीमो-राम  न  था

दुनिया  में  इससे  पहले  भी  तानाशाह  कई  आए
मज़हब  के  मुद्दे  पर  लेकिन  ऐसा  क़त्ले-आम  न  था

जब  हम  चौराहे  पर  ला  कर  सूली  पर  लटकाए  गए
सच  कहने  के  सिवा  हमारे  ऊपर  कुछ  इल्ज़ाम  न  था

कहते  हैं  कल  रात  फ़रिश्ते  हमको  लेने  आए  थे
लेकिन  उनके  पास  हमें  ले  जाने  को   पैग़ाम  न  था  !

                                                                              ( 2014 )

                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मजमा: भीड़; दर: द्वार; नाहक़: व्यर्थ, अकारण; सज्दा: ढोक देना, सिर झुका कर प्रणाम करना;   शजरे में: वंशवृक्ष में; 
रहीमो-राम: रहीम या अल्लाह और राम; मज़हब: धर्म; मुद्दे: प्रश्न, विषय;   क़त्ले-आम: जन -संहार; इल्ज़ाम: आरोप;  फ़रिश्ते: मृत्युदूत; पैग़ाम: सन्देश। 

मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

ज़िंदगी ने मिटा दिया !

रहे  जो  तलाशे-शराब  में  उन्हें  तिश्नगी  ने  मिटा  दिया
कभी  जाम  ने,  कभी  ख़ुम्र  ने,  कभी  मांदगी  ने  मिटा  दिया

मेरी  बेख़ुदी  का  कमाल  था  के:  तेरे  क़रीब  बिठा  दिया
तेरी  सोहबतों  ने  सुकूं  दिया,  तेरी  सादगी  ने  मिटा  दिया

तू  कहे तो  अब  तेरी  बज़्म का,  कभी  भूल  कर  भी  न  मैं  नाम  लूं
जो  हमारे  बीच  थी  रौशनी,  उसे  तीरगी  ने  मिटा  दिया

ये:  अजब-सा  जश्ने-बहार  है,  जहां  तितलियों  की  पहुंच  नहीं
के:  चमन  के  रस्मो-रिवाज  को  किसी  बदज़नी  ने  मिटा  दिया

कभी  हम  भी  थे  तेरे  आशना,  तेरे  हमसफ़र,  तेरे  हमनवा
रहीं  अब  कहां  वो:  नवाज़िशें,  उन्हें  ज़िंदगी  ने  मिटा  दिया

कहीं  कुछ  ख़ता  तो  ज़रूर  है,  के:  तेरी  निगाह  बदल  गई
तेरे  ज़ेह्न  से  मेरा  नाम  भी,  किसी  अजनबी  ने  मिटा  दिया

रहे  सर-ब-सज्द:  अज़ल  तलक,  के:  कहां-कहां  रहे  ढ़ूंढते 
न  ख़ुदा  मिला  न  कोई  ख़बर,  हमें  बंदगी  ने  मिटा  दिया  !

                                                                                         ( 2014 )

                                                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तिश्नगी: प्यास; जाम: मदिरा-पात्र; ख़ुम्र: मदिरा; मांदगी: शिथिलता, थकान;  बेख़ुदी: आत्म-विस्मृति;सोहबतें: साथ, संग; 
सुकूं: संतोष; बज़्म: सभा, गोष्ठी; तीरगी: अंधकार; जश्ने-बहार: बसंतोत्सव; चमन: उपवन;  रस्मो-रिवाज: प्रथा-परंपराएं; बदज़नी: कुकृत्य; आशना: साथी; हमसफ़र: सहयात्री; हमनवा: सहमत, हां में हां मिलाने वाला; नवाज़िशें: देन, उपहार,कृपाएं; ख़ता: दोष, अपराध; 
ज़ेह्न : मस्तिष्क, स्मृति; अजनबी: अपरिचित; सर-ब-सज्द: : साष्टांग प्रणाम की मुद्रा में; अज़ल: मृत्यु; तलक: तक। 

सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

अहद के पैमाने

आज  खिलते  कँवल  नज़र  आए
कुछ  मसाइल  सहल  नज़र  आए

चश्मे-पुरनम  पनाह  दे  न  सके
ख़्वाब  यूं  बे-दख़ल  नज़र  आए

टूट    जाएं    अहद    के    पैमाने
हर  अदा  में  ग़ज़ल  नज़र  आए 

यूं  न  टूटे  किसी  ग़रीब  का  दिल
ज़िंदगी  सर  के  बल  नज़र  आए

मुंतज़िर   उम्र  भर    रहीं  आंखें
आप  वक़्ते-अज़ल  नज़र  आए 

तुख़्म   बो  आए  हैं    दुआओं  के
आसमां  पर  फ़सल  नज़र  आए

मिल  चुका  फ़ैसला  गदाई  का
रूह  कासा  बदल  नज़र  आए  !

                                                ( 2014 )

                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: कँवल: कमल; मसाइल: प्रश्न, समस्याएं; सहल: सरल, सुलझते हुए; चश्मे-पुरनम: भीगे नयन; पनाह: शरण;  
बे-दख़ल: विस्थापित; अहद  के  पैमाने: संकल्पों के प्रतिमान; मुंतज़िर: प्रतीक्षारत; वक़्ते-अज़ल: मरते समय; तुख़्म: बीज;  
गदाई: सन्यास, भिक्षुक-वृत्ति;  कासा: भिक्षा-पात्र, यहां आशय शरीर। 
 


रविवार, 9 फ़रवरी 2014

बंदगी की वजह ...

कोई  हमको  तरह  नहीं  देता
बज़्म  में  ही  जगह  नहीं  देता

ख़ुश  रहें  लोग  नींद  आने  तक
वक़्त  ऐसी  सुबह  नहीं  देता

ख़ूब  तूने  मिज़ाज  पाया  है
जान  दे  दो,  निगह  नहीं  देता

लोग  ख़ुदग़र्ज़  हो  गए  कितने
कोई  दूजे  को  रह  नहीं  देता

शुक्र  है,  तुझमें  ज़र्फ़  बाक़ी  है
हमको  दीवाना  कह  नहीं  देता

सब  रियाया  की  जां  के  पीछे  हैं
शाह  को  कोई  शह  नहीं  देता

क्यूं  ख़ुदा  हम  कहें  उसे  कहिए
बंदगी  की  वजह  नहीं  देता  !

                                               ( 2014 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तरह: उचित सम्मान, शे'र की पंक्ति; बज़्म: गोष्ठी; मिज़ाज: स्वभाव; निगह: दृष्टि, निगाह का संक्षिप्त; 
ख़ुदग़र्ज़: स्वार्थी; रह: मार्ग, राह का संक्षेप; ज़र्फ़: गहराई, धैर्य; रियाया: जनता; शह: चुनौती; बंदगी: भक्ति। 

शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

झूठ बातें हैं सब...!

आज  क़िस्सा  तमाम  करते  हैं
जां  रक़ीबों  के  नाम  करते  हैं

होश  ले  बैठते  हैं  वो:  सब  के
जब  निगाहों  को  जाम  करते  हैं

और  क्या  कीजिए  मियां  ग़ालिब
ख़ुम्र  में  सुब्हो-शाम  करते  हैं

क़त्ल  करते  हैं  नफ़्स  गिन-गिन  के
किस  नफ़ासत  से  काम  करते  हैं

झूठ  बातें  हैं  सब  तरक़्क़ी  की
वो:  फ़क़त  क़त्ले-आम  करते  हैं 

लोग  ग़ालिब  से  इश्क़  करते  हैं
मीर  का  एहतराम  करते  हैं

दाग़  दिल  के  अभी  ज़रा  धो  लें
फिर  ख़ुदा  को  सलाम  करते  हैं  !

                                                  ( 2014 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: रक़ीबों: शत्रुओं; जाम: मदिरा-पात्र; ख़ुम्र: मदिरा;  नफ़्स: सांसें; नफ़ासत: सुगढ़ता;  फ़क़त: केवल; क़त्ले-आम: जन-संहार; ग़ालिब, मीर: उर्दू के महानतम ग़ज़लगो; एहतराम: आदर।

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

दर्द का तूफ़ान ...!

मुमकिन  नहीं  है  वक़्त  के  अरमान  समझना
इस  नग़्म:-ए-ख़तर   के   अरकान  समझना

आना  किसी  पे  दिल  का  गुनह  तो  नहीं  मगर
ख़तरा  है  राहे-इश्क़   को  आसान  समझना

उस  रश्क़े-माहताब   के  दिल  में  रहम  कहां
वो:  जान  बख़्श  दे  तो  एहसान  समझना

सीखा  है  ज़िंदगी  का  सबक़  आपसे   यही
दुश्मन  भी  दर  पे  आए  तो  भगवान  समझना

मिलता  है  मुस्कुरा  के  जो  हर  बार  आपसे
सीने  में  उसके  दर्द  का  तूफ़ान   समझना


आने  लगे  मज़ा  जो  सियासत  में  आपको
ख़तरे  में  दोस्त  आपका  ईमान  समझना

अगली  सदी  में  आप  हमें  याद  जब  करें
ख़ुद  को  ही  मेरी  नज़्म  का  उन्वान  समझना

ला'नत  है  ऐसे  शाह  पे  जिसने  जम्हूर  में
सीखा  नहीं  ग़रीब  को  इंसान  समझना  ! 

                                                                   ( 2014 )

                                                             -सुरेश स्वप्निल 

शब्दार्थ: नग़्म:-ए-ख़तर: संकट में डालने वाला गीत; अरकान: शब्दांश, विराम; गुनह: गुनाह का संक्षेप, अपराध ;  रश्क़े-माहताब: चंद्रमा की ईर्ष्या का कारण; सबक़: पाठ; दर: द्वार; सियासत: राजनीति; ईमान: आस्था;  उन्वान: शीर्षक; ला'नत: धिक्कार; जम्हूर: लोकतंत्र ।