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गुरुवार, 19 अक्तूबर 2017

जिधर तू नहीं ....

हवा  में  घुटन  है  मगर  क्या  करें
कि  तूफ़ान  में  और  घर  क्या  करें

फ़क़त  एक  ही लफ़्ज़   है  दर्द  का
ये:  क़िस्सा-ए-ग़म  मुख़्तसर  क्या  करें

जहां  रिज़्क़  एहसां  जता  कर  मिले
दवाएं  वहां  पर  असर  क्या  करें

क़फ़न  लूट  कर  भी  तसल्ली  नहीं
यक़ीं  लोग  उस  शाह  पर  क्या  करें

जहालत  हुकूमत  चलाए  जहां
तो  कहिए  कि  अह् ले-सुख़न  क्या  करें

न  आए  जिन्हें  याद  हम  उम्र  भर
उन्हें  आख़िरत  की  ख़बर  क्या  करें

जहां  तू  उसी  बज़्म  में  नूर  है
जिधर  तू  नहीं  हम  उधर  क्या  करें  !

                                                                                (2017)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़क़त: केवल, मात्र; लफ़्ज़: शब्द; क़िस्सा-ए-ग़म: दुःख की गाथा; रिज़्क़: भोजन; एहसां: अनुग्रह; क़फ़न: शव-आवरण; यक़ीं: विश्वास; जहालत: अज्ञान, मूर्खता; हुकूमत: शासन; अह् ले-नज़र: बुद्धिजीवी, सुदृष्टिवान;  आख़िरत: अंत-समय; बज़्म: सभा, गोष्ठी; नूर: प्रकाश।