हम तो अपनी राह लगेंगे रोज़-ए-क़ज़ा के आने पर
तुम क्या मुंह दिखलाओगे दुनिया को मेरे जाने पर
तुम क्या जानो दुनियावाले क्या-क्या बातें करते हैं
जैसे क़यामत आ जाती हो दिल के आने-जाने पर
अपनी तो आदत है सब-कुछ हंस-हंस कर सह जाने की
क़ह्र- ए -ख़ुदा छोड़ेगा न तुमको यूँ बे-बात सताने पर
ऐसी - वैसी तक़रीरों को दिल पे लेना ठीक नहीं
लानत भेजो जी-भर के ऐसे कमज़र्फ ज़माने पर
साथ हमारे चलने में क्यूँ इतने पशेमाँ होते हो
आख़िर कुछ बंदिश तो नहीं है रस्म-ए-वफ़ा निभाने पर !
(24 जन . 2013)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: रोज़-ए-क़ज़ा: मृत्यु का दिन ; क़ह्र-ए-ख़ुदा : ईश्वर का कोप ; तक़रीर: टीका-टिप्पणी ;पशेमाँ : लज्जित; बंदिश: प्रतिबंध
तुम क्या मुंह दिखलाओगे दुनिया को मेरे जाने पर
तुम क्या जानो दुनियावाले क्या-क्या बातें करते हैं
जैसे क़यामत आ जाती हो दिल के आने-जाने पर
अपनी तो आदत है सब-कुछ हंस-हंस कर सह जाने की
क़ह्र- ए -ख़ुदा छोड़ेगा न तुमको यूँ बे-बात सताने पर
ऐसी - वैसी तक़रीरों को दिल पे लेना ठीक नहीं
लानत भेजो जी-भर के ऐसे कमज़र्फ ज़माने पर
साथ हमारे चलने में क्यूँ इतने पशेमाँ होते हो
आख़िर कुछ बंदिश तो नहीं है रस्म-ए-वफ़ा निभाने पर !
(24 जन . 2013)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: रोज़-ए-क़ज़ा: मृत्यु का दिन ; क़ह्र-ए-ख़ुदा : ईश्वर का कोप ; तक़रीर: टीका-टिप्पणी ;पशेमाँ : लज्जित; बंदिश: प्रतिबंध