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शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

रंगे-ख़ुद्दारी न हो ...

हिज्र  हम  पर  इस  तरह  भारी  न  हो
जिस्म  में  हर  वक़्त   बेज़ारी    न  हो

दीद  का  दिन  है  मुक़र्रर   आज  फिर
ये:  ख़बर  तो काश !  सरकारी   न  हो

आ  गए    वो     सरबरहना      सामने
आईने   पर   बेख़ुदी       तारी     न  हो

शैख़    पी  कर    आए  हैं    बाज़ार  से
रिंद  के  घर   बेवजह   ख़्वारी   न   हो

ख़ुशनसीबी  आजकल  मुमकिन   नहीं
शाह  से    गर     दोस्ती-यारी      न  हो

इंक़िलाबी    सोच  भी   किस  काम  का
गर    मुकम्मल    रोज़    तैयारी  न  हो

चल   पड़े   हैं   वो   ख़ुदा  की    राह  पर
देखिए      इस    बार      दुश्वारी    न  हो

नाम     से     मेरे    उसे     मत   जोड़िए
जिस   ग़ज़ल   में    रंगे-ख़ुद्दारी     न  हो  !

                                                                               (2016)

                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हिज्र: वियोग; जिस्म : शरीर; बेज़ारी : विमुखता; दीद: दर्शन; मुक़र्रर: सुनिश्चित; सरबरहना: बिना सिर ढांके; बेख़ुदी: आत्म-विस्मृति; तारी: छा जाना; शैख़: धर्म-भीरु, मदिरा-विरोधी; रिंद: मदिरा-प्रेमी; बेवजह :  अकारण; ख़्वारी: अपमान; ख़ुशनसीबी: सौभाग्य; मुमकिन : संभव; गर: यदि; इंक़िलाबी: क्रांतिकारी; मुकम्मल: परिपूर्ण; दुश्वारी :कठिनाई;रंगे-ख़ुद्दारी: स्वाभिमान का रंग ।




पासबां कोई नहीं

शायरी  का  क़द्रदां   कोई  नहीं
इस  शग़ल  का  आसमां  कोई  नहीं

आलिमो-उस्ताद  हैं  सब  बज़्म  में
बस  हमारा  हमज़ुबां  कोई  नहीं

आज़मा  लें  तीर  सारे  आज  ही
बाद  इसके  इम्तिहां  कोई  नहीं

दोस्तों  की  भीड़  में  हैं  सैकड़ों
और  हम  पर  मेह्रबां  कोई  नहीं

नफ़्रतों की  आग  में  सब  जल  गया
क्या  वतन  का  पासबां   कोई  नहीं 

चाहता  है  जब्र  से  दिल   जीतना
शाह  जैसा  बदगुमां  कोई  नहीं

जाएंगे  सारे  अकेले  क़ब्र  तक
इस  सफ़र  में  कारवां  कोई  नहीं  !


                                                                            (2016)


                                                                      -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: क़द्रदां: मूल्य समझने वाला; शग़ल : अभिरुचि, समय बिताने का साधन; आसमां : आकाश, संभावना; आलिमो-उस्ताद : विद्वान एवं गुरु ; बज़्म : गोष्ठी; हमज़ुबां : सम भाषी; मेह्रबां : कृपालु; नफ़्रतों: घृणाओं; पासबां : रक्षक, ध्यान रखने वाला; जब्र: अत्याचार; बदगुमां : कु-विचारी, भ्रमित; कारवां : यात्री-समूह।  

गुरुवार, 28 जनवरी 2016

...दिलजले भी रहें !

मुश्किलें    भी  रहें    फ़ासले     भी  रहें
पर  कहीं  इश्क़  के  सिलसिले  भी  रहें

जी  हमें   प्यार  है   अपनी   तन्हाई  से
दोस्तों    के   कभी    क़ाफ़िले    भी  रहें

क़िस्स:-ए-इश्क़  में    ताज़गी  के  लिए
क्या  बुरा  है  कि  शिकवे-गिले  भी  रहें

आक़बत    शायरी    से    संवर  जाएगी
ज़ीस्त  में  रिज़्क़  के  मशग़ले  भी  रहें

है  रग़ों  में   रवां   गर्म  ख़ूं   जब  तलक
जंग  में    फ़त्ह   के    वल्वले    भी  रहें

ये:   ख़राबात   है    लाह  का    दर  नहीं
दिलरुबा    भी  रहे    दिलजले   भी  रहें

है  बहुत  दूर  मंज़िल  ख़ुदा  की    मियां
अर्श  की    राह  में    मरहले     भी  रहें  !

                                                                              (2016)

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़ासले:अंतराल;  सिलसिले : अनुक्रम; तन्हाई :एकांत; काफ़िले : समूह; आक़बत : अंतिम गति, परलोक; ज़ीस्त : जीवन; 
रिज़्क़ : आजीविका; मशग़ले : व्यस्तताएं; रग़ों : नाड़ियों; रवां : गतिमान; ख़ूं : रक्त; तलक : तक; जंग :युद्ध, संघर्ष; फ़त्ह:विजय; वल्वले:उमंगें; ख़राबात:मदिरालय;  लाह: अल्लाह (संक्षिप्त); दर : द्वार; दिलरुबा : मनमोहन ; दिलजले : हृदय-दग्ध; अर्श: आकाश, स्वर्ग; मरहले : पड़ाव, विश्राम स्थल । 

 

बुधवार, 27 जनवरी 2016

दर्द का कारवां ...

दोस्ती  में  हमें  वो  जहां  दे  गए
ढाई  ग़ज़  की  ज़मीं  आस्मां  दे  गए

दो  घड़ी  के  लिए  हमसफ़र  वो  हुए
जब  गए  दर्द  का  कारवां  दे  गए

हिज्र  से  क़ब्ल  वो  रू-ब-रू  यूं  हुए
चश्म  को  ख़ामुशी  की  ज़ुबां  दे  गए

ख़ूब  रुस्वा  किया  आपकी  नज़्म  ने
दुश्मनों  को  नई  दास्तां  दे  गए

उनके  यौमे-शहादत  पे  तातील हो
इश्क़  में  जान  जो  नौजवां  दे  गए

लोग  फ़ाक़ाकशी  से  परेशान  हैं
और  फिर  शाह  झूठा  बयां  दे  गए

मग़फ़िरत  की  दुआ  की  जिन्होंने  वही
रूह   को  ज़ख़्म   के  भी  निशां  दे गए  !

                                                                              (2016)

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: हमसफ़र: सहयात्री; कारवां: यात्री-समूह; हिज्र : वियोग; क़ब्ल: पूर्व; रू-ब-रू : सम्मुख; चश्म : नयन; ख़ामुशी : मौन; ज़ुबां : भाषा, शब्दावली; रुस्वा : लज्जित; नज़्म : गीत, कविता; दास्तां : आख्यान; यौमे-शहादत : बलिदान दिवस; तातील: सार्वजनिक अवकाश; फ़ाक़ाकशी : उपवास, भुखमरी; मग़फ़िरत : मोक्ष; रूह : आत्मा।  


शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

दिल बताशा ...

दुख़्तरे-रज़  ने  तमाशा  कर  दिया
शैख़  का  ईमां  ख़ुलासा  कर  दिया

लूट  कर  दिल  आप  यूं  चलते  बने
जिस तरह  अहसां  बड़ा-सा  कर  दिया

दे  रहे  हैं    इश्क़  पर   इल्ज़ाम  वो
जैसे  हमने  जुर्म  ख़ासा  कर  दिया

तीरगी       की     बेहयाई    देखिए
चांदनी  पर    इस्तगासा    कर  दिया

मान  कर  हमने   ख़ुदा  का   मशवरा
दर्द  से  दिल  को  शनासा  कर  दिया

दिल न  सीने से  निकल कर  आ गिरे
सामने  गर  हमने  कासा  कर  दिया

भेज  कर  घर  पर  फ़रिश्ते  आपने
दिल  हमारा  भी  बताशा  कर  दिया !

                                                                       (2016)

                                                               -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: दुख़्तरे-रज़ : अंगूर की बेटी, मदिरा; शैख़:धर्मोपदेशक; ईमां: आस्था; ख़ुलासा:सबके सामने लाना, रहस्योद्घाटन करना; अहसां: अनुग्रह; इल्ज़ाम :दोषारोपण; जुर्म: अपराध; ख़ासा: बहुत बड़ा; तीरगी : अंधकार; बेहयाई: निर्लज्जता; इस्तगासा :वाद दायर करना; मशवरा:  परामर्श, सुझाव; शनासा: परिचित; कासा : भिक्षा-पात्र; फ़रिश्ते : मृत्युदूत।

जान ले ली चांद की....

कोई  खिड़की  कोई  दरवाज़ा  मिले
कर्बे-जन्नत  में   हवा  ताज़ा  मिले

तीरगी  ने   जान  ले  ली   चांद  की
शाहे-मौसम  को  ये  आवाज़ा  मिले

दौरे- हिज्रां  एक  दिन  भी  है  बहुत
बाद  उसके  रोज़  ख़मियाज़ा  मिले

हो  कभी  बादे-सबा  मेहमां  मेरी
मौजे-दिल  को  मख़मली  गाज़ा  मिले

हों  मुकम्मल  जंग  की  तैयारियां
दुश्मनों  का  कोई  अंदाज़ा  मिले

ख़ुल्द  है  या  काले   पानी  की  सज़ा
शायरी  का  गर  न  शीराज़ा  मिले  !

                                                                    ( 2016 )

                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: कर्बे-जन्नत: स्वर्ग की यातना; तीरगी: अंधकार; शाहे-मौसम: ऋतुओं काराजा, बसंत; आवाज़ा: श्रेय, यशोकीर्त्ति; दौरे- हिज्रां: वियोग-काल; ख़मियाज़ा :क्षति-पूर्त्ति; बादे-सबा :प्रातःसमीर; मौजे-दिल: मन की तरंग; गाज़ा : झूला; मुकम्मल: परिपूर्ण; जंग : युद्ध; अंदाज़ा : अनुमान;  ख़ुल्द: स्वर्ग;  काला पानी: (उर्दू में अप्रचलित, ) अंग्रेज़ों के राज में अंडमान के कारागार में बंदी बनाना; 
शीराज़ा: संकलन ।

बुधवार, 20 जनवरी 2016

दिल मांग रहे हैं...

आदाबे-शिकायत  क्या  कहिए  वो  शाद  भी  हैं  नाशाद  भी  हैं
कहते  हैं  हमें  वो  भूल  गए  फिर  कहते  हैं   कुछ  याद  भी  हैं

दिल  मांग  रहे  हैं    जो  हमसे    सौ  बार    हमें  छू  कर  देखें
हम  मोम  कलेजा  रखते  हैं  पर  बाज़  जगह  फ़ौलाद  भी  हैं

मासूम  अदाओं  से    अब  वो     धोखा  न  हमें       दे  पाएंगे
पहचान  चुके  हैं  हम  उनको  वो  क़ातिल  हैं  सय्याद  भी  हैं

अफ़सोस नहीं  कुछ शिकवे हैं  कहिए तो सुना दें महफ़िल  में
बेज़ार   सही   बर्बाद   सही   मुश्ताक़  भी  हैं    आज़ाद  भी  हैं

गुमनाम सही  इस  बस्ती  में  कहते हैं  ग़ज़ल  सच्चे  दिल  से
शागिर्द  अगर  हैं  ग़ालिब  के   तो  चार  जगह   उस्ताद  भी  हैं

या  ख़ुश हो कर  ख़ुम  दे हमको  या  और कहीं का रुख़  कर  लें
यूं  हम  दीवाने  तश्ना  लब    ज़िद  कर  लें    तो  फ़रहाद  भी  हैं

वो  अर्शे-नुहुम  पर    रहते  हैं    हम  हैं  कि   असीरे-दुनिया  हैं
नज़दीक  बहुत  हैं  हम  दोनों  कहने  को  कई  अब्आद  भी  है !

(2016)

-सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आदाबे-शिकायत : शिकायत करने के शिष्टाचार;  शाद : प्रसन्न;  नाशाद : अप्रसन्न; बाज़ : कुछ, विशिष्ट; फ़ौलाद : इस्पात; मासूम : भोली;  अदाओं : भंगिमाओं;  क़ातिल : हत्यारा; सय्याद : बहेलिया; अफ़सोस : खेद ; शिकवे : पूर्वाग्रह; महफ़िल : गोष्ठी; बेज़ार : परेशान; मुश्ताक़ : आतुर; शागिर्द : शिष्य; ग़ालिब : हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब, महान शायर ; उस्ताद : गुरु; ख़ुम : मदिरा पात्र; रुख़ : दिशा; तश्नालब : प्यासे अधर वाले; फ़रहाद : शीरीं-फ़रहाद की प्रेम-कथा का नायक, जो पहाड़ खोद कर नहर निकाल लाया था ; अर्शे-नुहुम : नौवां आकाश, मिथक के अनुसार ख़ुदा के रहने का स्थान ; असीरे-दुनिया : संसार के बंदी ; अब्आद : दूरियां, अंतराल ।

शनिवार, 16 जनवरी 2016

बात कुछ तो है...

क्या  कमी  है  शाह  की  तदबीर  में
है  मुक़य्यद  हर  ख़ुशी   ज़ंजीर  में

ढूंढिए, हम  हैं  कहां  वो  हैं  कहां
मुल्क  की  इस  बदनुमा  ताबीर  में

याद  रखिए  जंग  में  जाते  हुए
दिल  नहीं  है  सीनए-शमशीर  में

कौन  बे-पर्दा  हुआ  कब-किस  जगह
क्या  यही  सब  रह  गया  तहरीर  में

मत  उसे  दीवानगी  पर  छेड़िए
गुमशुदा  है  आपकी  तस्वीर  में

क्यूं  फ़रिश्ते  दिन ब दिन  आया  करें
बात  कुछ  तो  है  मेरी  तासीर  में

ज़ीस्त  से  उम्मीद  बाक़ी  है  अभी
हो  असर  शायद  दुआए-पीर  में  !

                                                                       (2016)

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तदबीर: प्रयास; मुक़य्यद : बंदी; ज़ंजीर : श्रृंखला; बदनुमा: अ-सुंदर, फूहड़, आदि; ताबीर: निर्माण; जंग : युद्ध; सीनए शमशीर : म्यान; बे-पर्दा : अनावृत; तहरीर : लेखन-शैली, हस्तलिपि; तस्वीर: चित्र; तासीर: प्रभाव; ज़ीस्त: जीवन; दुआए-पीर : गुरु की शुभेच्छा, आशीष।  



शुक्रवार, 15 जनवरी 2016

शऊरे-बेक़रारी


शैख़  जी !  कुछ   शर्मसारी  सीखिए
दोस्तों   की      पर्द: दारी      सीखिए

मैकदे   में    मोमिनों   पर   फ़र्ज़  है
आप       आदाबे-ख़ुमारी     सीखिए

इक़्तिदारे  मुल्क  तो  हथिया  लिया
अब  ज़रा  सी    ख़ाकसारी   सीखिए

बे-हयाई      बदजुबानी       बदज़नी
ख़ाक     ऐसे     ताजदारी     सीखिए

आशिक़ी    में    कामरानी     चाहिए
तो          शऊरे-बेक़रारी       सीखिए

दर्द   देने   का    सलीक़ा      सीख  लें
क़ब्ल  उसके    ग़म-गुसारी   सीखिए

वस्ल  की  शब   सब्र  करना  सीखिए
सब्र   हो   तो     राज़दारी       सीखिए  !

                                                                     (2016)

                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शर्मसारी: लज्जा अनुभव करना; पर्द: दारी: अकारण बात/रहस्य प्रकट न करना; मैकदे : मधुशाला; मोमिनों : आस्तिकों, आस्थावानों; फ़र्ज़ : अनिवार्य कर्त्तव्य; आदाबे-ख़ुमारी : मदोन्मत्त होने के शिष्टाचार; इक़्तिदारे-मुल्क : देश की सत्ता; ख़ाकसारी: विनम्रता;
बे-हयाई : निर्लज्जता;  बदजुबानी : अभद्र भाषा बोलना; बदज़नी : कुकृत्य; ख़ाक : निरर्थक; ताजदारी : शासन करने की कला;  
आशिक़ी: उत्कट प्रेम; कामरानी : सफलता, विजयी होना; शऊरे-बेक़रारी : व्यग्र/व्याकुल अवस्था के व्यवहार; सलीक़ा : कला/ ढंग; 
क़ब्ल : पूर्व; ग़म-गुसारी : संवेदना अनुभव/व्यक्त करना; वस्ल : मिलन; शब: निशा; सब्र: धैर्य; राज़दारी : गोपनीयता की कला।  

बुधवार, 13 जनवरी 2016

एक तोहफ़ा है ....

ईंट  गारा  कम  सही  घर  के  लिए
हम  कभी  तरसे  नहीं  ज़र  के  लिए

मुफ़लिसी  की  शान  हमसे  पूछिए
एक  टोपी  तक  नहीं  सर  के  लिए

ख़ुम्र  से  दिल  भर  गया  है  रिंद  का
शैख़  हैं  नाशाद   साग़र  के  लिए

चंद  क़तरे  ही  सही  अब  चश्म  में
एक  तोहफ़ा  है  समंदर  के  लिए

है  हमारी  भी  दुआओं  में  असर
साथ  रखिए  रोज़े-महशर  के  लिए

हिंद  से  हम  वादिए-सीन:  तलक
दौड़  आए  एक  मंज़र  के  लिए

कर  रहे  हैं  नक़्श  हम  क़ुत्बा  यहां
ख़ुल्द  में  दीवार-ओ-दर  के  लिए !

                                                                             (2016)

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़र: सोना, धन; मुफ़लिसी: निर्धनता; ख़ुम्र: मदिरा; रिंद: मदिरा-प्रेमी; शैख़: धर्म-भीरु; नाशाद: दुःखी, अप्रसन्न; साग़र : मदिरा-पात्र; चंद: कुछ; क़तरे : बूंदें; चश्म : नयन; तोहफ़ा : उपहार; रोज़े-महशर : प्रलय का दिन, न्याय का दिन; वादिए-सीन: : अरब में सीना की घाटी, जहां ईश्वर के प्रकट होने का मिथक है; मंज़र : दृश्य, ईश्वर के प्रकट होने का दृश्य; नक़्श: अंकित; क़ुत्बा : क़ब्र/समाधि पर मृतक के परिचय के लिए लगाया जाने वाला पत्थर।

मुश्किलों की मेहर ...

राह  उम्मीद  की  पुरख़तर  हो  गई
क़ौम  की  नौजवानी  सिफ़र  हो  गई

रिज़्क़  का  कुछ  भरोसा  न  मंहगाई  का
मुल्क   पर  मुश्किलों  की  मेहर  हो  गई

लब  हिले  भी  न  थे  के:  नज़र  झुक  गई
ये  मुलाक़ात  भी  मुख़्तसर  हो  गई

याद  आती  रही  ज़ख़्म  खुलते  गए
थी  दवा  जो  कभी  अब  ज़हर  हो  गई

मिट  गए  इस  तरह आशियां  के  निशां
रूहे-दीवार  भी  रहगुज़र  हो  गई 

कुछ  हमीं  बेख़ुदी  के  असर  में  रहे
कुछ  दुआ  आपकी  बे-असर  हो  गई

कौन  कहता  है  हमसे  पराए  हैं  वो
मर्ग़  से  क़ब्ल  उनको  ख़बर  हो  गई

ये  समंदर  कभी  सूखता  ही  नहीं
फिर  किसी  ख़्वाब  की  चश्म  तर  हो  गई

ये  भी  क्या  ज़िंदगी  से  बिछड़ना  हुआ
हर  ख़ुशी  दूसरों  की  नज़र  हो  गई  !

                                                                                    (2016)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: पुरख़तर: संकट पूर्ण; सिफ़र : शून्य;  रिज़्क़: आजीविका; मेहर: कृपा; मुख़्तसर : संक्षिप्त; ज़ख़्म:घाव
बेख़ुदी : आत्म-विस्मृति; असर: प्रभाव; बे-असर: निष्प्रभावी; मर्ग़ : मृत्यु; क़ब्ल : पूर्व; चश्म: आंख; तर : गीली

सोमवार, 11 जनवरी 2016

दुआ में शराब ...

आप    उल्टी  किताब   पढ़ते  हैं
किस  सदी  में  जनाब  पढ़ते  हैं

याद  करते  नहीं    महीनों  तक
रोज़  ख़त  का  जवाब  पढ़ते  हैं

मयकशों को वफ़ा  मुबारक  हो
हर   दुआ  में   शराब   पढ़ते  हैं

हैफ़ ! ये  मज़्हबी  उलेमा   सब
क़त्ल को  भी  सवाब  पढ़ते  हैं

छीन कर रिज़्क़ कमनसीबों का
शाह  ज़र  का  हिसाब  पढ़ते  हैं

सुर्ख़  परचम  तले  नए  इंसां
नग़म:-ए-इंक़लाब  पढ़ते  हैं

छोड़िए  शायरी  मियां  अब तो
सिर्फ़  ख़ाना-ख़राब  पढ़ते  हैं !

                                                                 (2016)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मयकशों: मद्यपों ; वफ़ा: निष्ठां; हैफ़ : खेद है कि ; मज़्हबी उलेमा : धार्मिक विद्वान, धर्म-गुरु; सवाब: पुण्य; रिज़्क़ : दो समय का भोजन; कमनसीबों : भाग्यहीनों; ज़र : स्वर्ण, संपत्ति; सुर्ख़ : रक्तिम; परचम : ध्वज; ख़ाना -ख़राब : घर बिगाड़ू। 




रविवार, 10 जनवरी 2016

शौक़ जल्व:गरी का

आशिक़ी  को  उसूल  मत  कीजे
ये:  ख़तरनाक  भूल  मत  कीजे

शौक़  जल्व:गरी  का  भी  रखिए
हर  कहीं  तो  नज़ूल  मत  कीजे

दोस्तों  से    दुआओं  के    बदले
कोई  हदिया  वसूल  मत  कीजे

जब  तलक  सामने  न हो  मक़सद
तोहफ़:-ए-दिल  क़ुबूल  मत  कीजे

दिल  दुखाना  शग़ल  है  दुनिया  का
मुफ़्त  में  दिल  मलूल  मत  कीजे

हर  गली  में  ख़ुदाओं  के  घर  हैं
आप  सज्दा   फ़ुज़ूल  मत  कीजे

हैं      हमारे     ख़ुतूत     पाक़ीज़ा
नक़्श  कीजे   नुक़ूल  मत  कीजे  !

                                                              (2016)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आशिक़ी: प्रेम में पड़ना; उसूल: सिद्धांत; जल्व:गरी :बनना-संवरना, दिव्य रूप में प्रकट होना; नज़ूल : प्रदर्शित; हदिया: दक्षिणा, शुल्क; मक़सद: उद्देश्य; तोहफ़:-ए-दिल : हृदय रूपी उपहार, प्रेमोपहार; क़ुबूल: स्वीकार; शग़ल: समय बिताने का माध्यम; मलूल: खिन्न, मलिन; सज्दा: भूमिवत प्रणाम; फ़ुज़ूल: व्यर्थ, निरर्थक; ख़ुतूत: हस्तलिखित पत्र, हस्तलिपि, अक्षर; पाक़ीज़ा: पवित्र , नि:कलंक; नक़्श: हृदय में अंकित, यंत्र बना कर भुजा या कंठ में धारण करना; नुक़ूल : प्रतिलिपियां ।




शनिवार, 9 जनवरी 2016

मिले दाद मीर से ...

अपने     तसव्वुरात   को      आज़ाद   कीजिए
बेहतर  है    अब    ख़ुदी  पे    एतमाद  कीजिए

या  आप  कभी  बज़्म  की  क़िस्मत  संवारिए
या    ख़ास   मवाक़े   पे    हमें   याद   कीजिए

जम्हूरे-हिंद      आपकी      जागीर     हो  गया
जी   भर  के    लूट  खाइए    बर्बाद     कीजिए

मुमकिन  नहीं   मुदाव:-ए-ग़म   दोस्तियों  से
कुछ    कीमिय:-ए-कारगर    ईजाद   कीजिए

कहिए  वो  बात  जिस  पे  मिले  दाद  मीर  से
ग़ालिब  को    ग़ज़लगोई  में   उस्ताद  कीजिए

मिलती     नहीं     निजात    फ़िक्रे-रोज़गार  से
किस-किस  के  दर  पे  रोइए  फ़रयाद  कीजिए

अब  वक़्त  आ  गया  है  कि  हम  अलविदा  कहें
दिल   को    ग़िज़ा-ए-दर्द   से    फ़ौलाद   कीजिए  !

                                                                                      (2016)

                                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तसव्वुरात: कल्पनाएं, विचारों; ख़ुदी: स्वाभिमान,आत्म-बल; एतमाद: विश्वास; बज़्म: गोष्ठी; ख़ास मवाक़े: विशिष्ट अवसरों; जम्हूरे-हिंद : भारतीय लोकतंत्र, जागीर : अधिकृत क्षेत्र; मुमकिन: संभव; मुदाव:-ए-ग़म: दुःख का उपचार/ समाधान; कीमिय:-ए-कारगर: प्रभावी रसायन; ईजाद: आविष्कृत; दाद: सराहना; मीर : हज़रत मीर तक़ी 'मीर', हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब के पूर्ववर्त्ती महान उर्दू शायर; ग़ज़लगोई: ग़ज़ल-कथन/ लेखन; उस्ताद : गुरु; निजात: मुक्ति;  फ़िक्रे-रोज़गार: आजीविका की चिंता; दर: द्वार; फ़रयाद: निवेदन; अलविदा: अंतिम प्रणाम; ग़िज़ा-ए-दर्द :पीड़ा रूपी पौष्टिक तत्व/ विटामिन; फ़ौलाद: इस्पात ।

शुक्रवार, 8 जनवरी 2016

जाम में ज़हर...

हौसले  पर    मेरे     नज़र  रखिए
तो  बहुत  दूर  तक  ख़बर  रखिए

शौक़  परवाज़  का  किया  है  तो
ख़्वाहिशों  में  हसीन  पर  रखिए

ख़्वाब को  छीन लें  हक़ीक़त  से
वक़्त पर इस क़दर असर रखिए

हुस्न  काफ़ी  नहीं  करिश्मे  को
हाथ  में  इश्क़ का  हुनर  रखिए

रिंद   हो    शैख़  हों  कि   दीवाने
क्यूं किसी  जाम में ज़हर  रखिए

बंदगी    जान  को    न  आ  जाए
सब्र  रखिए  कि  दर्दे-सर  रखिए

कोई  शायर    ख़ुदा    नहीं  होता
ये: अना  आप अपने  घर रखिए !

                                                                      (2016)

                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हौसले: उत्साह; नज़र: दृष्टि; परवाज़ : उड़ान; ख़्वाहिशों : इच्छाओं; हसीन: सुंदर; पर: पंख; ख़्वाब: स्वप्न; हक़ीक़त: यथार्थ; 
क़दर: अधिक; असर: प्रभाव; हुस्न: सौंदर्य; काफ़ी: पर्याप्त; करिश्मे: चमत्कार; हुनर: कौशल; रिंद : मदिरा-प्रेमी; शैख़: धर्मोपदेशक; 
दीवाने: प्रेमोन्मत्त; जाम: मदिरा-पात्र; बंदगी : भक्ति; सब्र : धैर्य; दर्दे-सर : शिरो-पीड़ा; अना: घमण्ड ।

मंगलवार, 5 जनवरी 2016

फ़रिश्तों से दूर

लोग    जितना   ग़ुरूर   रखते  हैं
क्या  मुनासिब  शुऊर   रखते  हैं

एक  धेला  न  हो   कभी  घर  में
हम    ख़ुदी  तो    ज़ुरूर  रखते हैं

अस्र  अत्फ़ाल  पर  न  आ  जाए
घर   फ़रिश्तों  से   दूर  रखते  हैं

आप  ही    मुतमईं  नहीं    वरना
दिल तो  हम भी  हुज़ूर  रखते  हैं

आपको क्या ख़बर  कि  सीने  में
सिर्फ़  हम    कोहे-नूर   रखते  हैं

आप  तो    शाह  हैं,   सज़ा  दे  लें
गर       सुबूते-क़ुसूर     रखते  हैं

आएंगे      अर्शे-नुहुम     भी  तेरे
हौसला-ए-तुयूर           रखते  हैं  !

                                                                (2016)

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ग़ुरूर : अभिमान; मुनासिब : समुचित; शुऊर : संस्कार, शिष्टता; ख़ुदी : स्वाभिमान; अस्र : प्रभाव;  अत्फ़ाल : बच्चों; फ़रिश्तों : तथाकथित देवदूतों; मुतमईं : आश्वस्त; वरना : अन्यथा; हुज़ूर: श्रीमान, माननीय; कोहे-नूर: प्रकाश-पर्वत,विश्वविख्यात हीरा; गर: यदि ; सुबूते-क़ुसूर : अपराध का साक्ष्य; अर्शे-नुहुम: नवम आकाश, इस्लामी मिथक के अनुसार ख़ुदा का निवास, स्वर्ग; हौसला-ए-तुयूर : पक्षियों का साहस ।


सोमवार, 4 जनवरी 2016

हर शख़्स को मकां ...

हज़ार  बार      अक़ीदत  का     इम्तिहां  देंगे
तू  जिस तरह से  कहे  उस तरह से  जां  देंगे

नज़र  उठाइए     उम्मीदवार        कितने  हैं
कि  एक  दिल  है  इसे  कब-किसे-कहां  देंगे

तमाम   रहबरां     लंबी   ज़ुबान      रखते  हैं
ज़मीं  जो  दे  न  सके  क्या  वो  आस्मां   देंगे

जहां  जगह  नहीं    बैतुल  ख़ला   बनाने  की
वो  कह रहे हैं  कि  हर शख़्स  को  मकां  देंगे

अवाम    ढूंढ  रहे  हैं    वतन  के    वुज़रा  को 
जो    कह  रहे  थे    उन्हें      दौलते-जहां  देंगे

नए   मिज़ाज     पुराने    उसूल     क्यूं  मानें
नवा-ए-वक़्त  को     तरजीह     नौजवां  देंगे

जहां  के  दर्द    ग़ज़ल  में    बयान  तो  कीजे
दुआ   जनाब  को    दिन-रात     बेज़ुबां  देंगे !

                                                                                        (2016)

                                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अक़ीदत: आस्था; इम्तिहां:परीक्षा; उम्मीदवार:प्रत्याशी; रहबरां: नेतागण; लंबी ज़ुबान: अतिशयोक्ति करना; ज़मीं: भूमि; 
आस्मां: आकाश;बैतुल ख़ला: शौचालय; शख़्स: व्यक्ति; मकां: भवन; अवाम:जन-साधारण; वुज़रा: मंत्रीगण; दौलते-जहां: संसार-भर का धन; मिज़ाज: स्वभाव; उसूल: सिद्धांत; नवा-ए-वक़्त: आधुनिक विचारधारा; तरजीह: प्राथमिकता; बयान: अभिव्यक्त; दुआ: शुभकामना; जनाब: श्रीमान; बेज़ुबां: जिनके पास बोलने की क्षमता न हो, मूक ।

शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

मुंह छुपाने जगह...

इश्क़    ख़ानाख़राब     करता  है
सांस  लेना    अज़ाब   करता  है

क़त्ल  ग़ुन्चे  भी  कर  गुज़रते  हैं
ज़ुल्म   वो  वो   शबाब  करता  है

एक  ही  वस्फ़  है  वफ़ा  का  जो
दर्द  को     कामयाब    करता  है

एक  चेहरा  है  ख़्वाब  में  अक्सर
ख़्वाहिशों  को  गुलाब  करता  है

जज़्ब:-ए-इश्क़  हर  ज़माने  में
हर  अदा   लाजवाब   करता  है

मुंह  छुपाने जगह नहीं  मिलती
वक़्त  जब  बे-नक़ाब  करता  है

गर  ख़ुदा  ज़ख़्म  भर  नहीं  सकता
तो  तलब  क्यूं   जवाब    करता  है  ?

                                                              (2016)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ानाख़राब: गृह-विमुख; अज़ाब: पाप, श्राप समान; ग़ुन्चे: कलियां; ज़ुल्म: अत्याचार; शबाब: यौवन; वस्फ़: चारित्रिक गुण; वफ़ा: निष्ठा; कामयाब: सफल; ख़्वाहिशों: इच्छाओं; जज़्ब:-ए-इश्क़: प्रेम की भावना; तलब:मांगना।