करते हैं अश्क ज़ाया दामन की आड़ कर के
यानी वो ख़ुश नहीं हैं हमसे बिगाड़ कर के
थी जान जिस्म में जब देखा न सर उठा कर
अब दिल तलाशते हैं वो चीर-फाड़ कर के
पर्दे में भी किसी का दिल बख़्शते नहीं थे
क्या जान लीजिए अब चेहरा उघाड़ कर के
क़ाबिज़ थे वादिए-दिल पर आप उम्र भर से
यूं अलविदा न कहिए गुलशन उजाड़ कर के
किस काम के सिकंदर ! शेरे-बबर तुम्हारे
पिंजरे में छुप गए सब रस्मे-दहाड़ कर के
शाहों को लग गया है आज़ार -ए-फ़क़ीरी
मस्जिद में रह रहे हैं घर को कबाड़ कर के
इंसाफ़ हो रहा है माज़ी की ग़फ़लतों का
बदला चुका रहे हैं मुर्दे उखाड़ कर के !
(2017)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ : अश्क :अश्रु; ज़ाया : व्यर्थ; दामन : पल्लू , आंचल; जिस्म : शरीर; पर्दे : आवरण; बख़्शते : छोड़ते; क़ाबिज़ : आधिपत्य में; वादिए-दिल : हृदय की उपत्यका; अलविदा : अंतिम प्रणाम; आज़ार-ए-फ़क़ीरी : साधुता का रोग; माज़ी : अतीत; ग़फ़लतों : भूल-चूकों।
यानी वो ख़ुश नहीं हैं हमसे बिगाड़ कर के
थी जान जिस्म में जब देखा न सर उठा कर
अब दिल तलाशते हैं वो चीर-फाड़ कर के
पर्दे में भी किसी का दिल बख़्शते नहीं थे
क्या जान लीजिए अब चेहरा उघाड़ कर के
क़ाबिज़ थे वादिए-दिल पर आप उम्र भर से
यूं अलविदा न कहिए गुलशन उजाड़ कर के
किस काम के सिकंदर ! शेरे-बबर तुम्हारे
पिंजरे में छुप गए सब रस्मे-दहाड़ कर के
शाहों को लग गया है आज़ार -ए-फ़क़ीरी
मस्जिद में रह रहे हैं घर को कबाड़ कर के
इंसाफ़ हो रहा है माज़ी की ग़फ़लतों का
बदला चुका रहे हैं मुर्दे उखाड़ कर के !
(2017)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ : अश्क :अश्रु; ज़ाया : व्यर्थ; दामन : पल्लू , आंचल; जिस्म : शरीर; पर्दे : आवरण; बख़्शते : छोड़ते; क़ाबिज़ : आधिपत्य में; वादिए-दिल : हृदय की उपत्यका; अलविदा : अंतिम प्रणाम; आज़ार-ए-फ़क़ीरी : साधुता का रोग; माज़ी : अतीत; ग़फ़लतों : भूल-चूकों।