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सोमवार, 25 नवंबर 2013

है परेशान ख़ुदा...!

चाक  दामन  उठे  हैं  महफ़िल  से
हाथ    धोते    हुए      रग़े-दिल  से

बेगुनाही         सुबूत        मांगेगी
रू-ब-रू  है   शिकार    क़ातिल  से

चांद   कैसे   तिलिस्म    करता  है
पूछ   लीजे    निगाहे-ग़ाफ़िल   से

वो:  सरे-बज़्म  लग  गए  दिल  से
बात  हमने   निभाई  मुश्किल  से

कोशिशों  में   कमी   उन्हीं  की  है
दूर  जो    रह  गए  हैं   मंज़िल  से

बोल    कश्ती    कहां     डुबोनी  है
नाख़ुदा     पूछता  है    साहिल  से

रोज़  इक  ज़ख़्म  उठा  लाता  है
है  परेशान   ख़ुदा   बिस्मिल  से !

                                             (2013)

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: चाक  दामन: विदीर्ण हृदय; महफ़िल: गोष्ठी, सभा; रग़े-दिल: हृदय-पिण्ड; बेगुनाही: निर्दोषिता; तिलिस्म: मायाजाल; 
निगाहे-ग़ाफ़िल: सिरफिरे, भ्रमित व्यक्ति की दृष्टि; सरे-बज़्म: भरी सभा में;   कश्ती: नौका; नाख़ुदा: नाविक;   साहिल: तट; 
ज़ख़्म: घाव; बिस्मिल: घायल। 

शनिवार, 23 नवंबर 2013

हुस्ने-हूर की बातें !

अल्लः  अल्लः  हुज़ूर  की  बातें
मुफ़लिसी  में   ग़ुरूर  की   बातें

शिद्दते-इश्क़   का   करिश्मा  है
पास  लगती  हैं    दूर  की  बातें

दाल-रोटी    यहां    नसीब  नहीं
ख़ाक  सुनिए   फ़ुतूर  की  बातें

जाम  पीकर  सिखा  गए  ज़ाहिद
आसमानी     शऊर    की   बातें

नाम  ग़ालिब  युं ही  नहीं  उनका
ख़ुल्द  में  भी     सुरूर  की  बातें

बाग़े-रिज़वां   तलाश  आए  हम
झूठ  हैं    हुस्ने-हूर     की   बातें

आज   मेहमां  हैं  वो:  हमारे  घर
याद  करते  हैं    तूर  की    बातें !

                                           (2013)

                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मुफ़लिसी: विपन्नता ; ग़ुरूर: घमंड; शिद्दते-इश्क़: प्रेम की तीव्रता; करिश्मा: चमत्कार;  फ़ुतूर: मनोविकार; ज़ाहिद: तपस्वी, संयमी, उपदेशक; आसमानी शऊर: स्वर्गिक, पारलौकिक शिष्टाचार; ग़ालिब: महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब; ख़ुल्द: स्वर्ग;  
सुरूर: नशा, उन्माद; बाग़े-रिज़वां: रिज़वान का बाग़, स्वर्ग का वह बाग़ जिसका रक्षक रिज़वान है; हुस्ने-हूर: अप्सराओं का सौंदर्य; 
तूर: अरब का एक मिथकीय पर्वत जहां हज़रत मूसा अ. स. ने ख़ुदा के प्रकाश की झलक देखी। 

शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

फ़िक्रे-दुनिया...!

बात     पूरी     अगर    न  हो  पाए
आज    शायद    सहर  न  हो  पाए

ख़्वाब  जो   साथ  छोड़  दें  अपना
रात  फिर   उम्र  भर   न   हो  पाए

बात  हो    इस  तरह    निगाहों  में
दुश्मनों  को    ख़बर     न  हो  पाए

इश्क़    करते    हुए    ख़याल   रहे
ज़िंदगी    ये:    ज़हर    न  हो  पाए

यार  की    नींद  में    पनाह  न  हो
ख़्वाब  यूं   शब-बदर   न  हो  पाए

अहले-ईमां  को  इश्क़  का  हक़  है
दिल   इधर  से  उधर   न  हो  पाए

फ़िक्रे-दुनिया  भी  कीजिए  लेकिन
जां  पे    बेजा  असर     न  हो  पाए

रूह    को     मग़फ़िरत    ज़रूरी  है
बस   ख़ुदा    बेख़बर    न  हो  पाए !

                                            (2013)

                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ईमानदार, आस्थावान; फ़िक्रे-दुनिया: सांसारिक चिंता; रूह: आत्मा; मग़फ़िरत: मोक्ष।

जवां-उम्र में कीजे तौबा

जिसे    फ़रेबे -जहां    से    गिला   नहीं  होता
वो:  शख्स  अपने-आप  से  ख़फ़ा  नहीं  होता

देख   नासेह     गरेबां  में    झांक   कर   अपने
वक़्त  मुंसिफ़  है  किसी  का  सगा  नहीं  होता

हर   गुनहगार     ज़माने  से    मुंह  छुपाता  है
जब  तलक  आग  न  हो  तो  धुंवा  नहीं  होता

शोर    करता  है     वही    दूर  रह  के  मैदां  से
जिसमें   लड़ने   का    कोई   माद्दा  नहीं  होता

झूठ-ओ-मक्र  जो  दिल  में  छुपाए  रखता  हो
ऐसे   इंसान   के    हक़  में    ख़ुदा  नहीं  होता

ये:  सियासत  है  यहां  काम  क्या  शरीफ़ों  का
दूध  का    कोई    यहां  पर  धुला  नहीं  होता

बात  तब  है  के:  जवां-उम्र  में   कीजे  तौबा
मौत  के  बाद    कोई    रास्ता     नहीं  होता

अहले-ईमां  ही   सचाई  की   क़द्र  करते  हैं
बे-ईमानों  का  कोई  फ़लसफ़ा  नहीं  होता !

                                                               ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़रेबे -जहां: दुनिया के छल; गिला: शिकायत; नासेह: धार्मिक शिक्षा देने वाला; मुंसिफ़: न्यायकर्त्ता; 
गुनहगार: अपराधी; माद्दा: शक्ति; मक्र: छद्म; अहले-ईमां: ईमानदार लोग; फ़लसफ़ा: दर्शन, सिद्धांत।

बुधवार, 20 नवंबर 2013

नशा नज़र का...!

तेरा  ख़याल  निगाहों  में  फिर  संवर  आया
यहां  वहां  से    लौट  के   परिंद:  घर  आया

हमें  वो:  अजनबी   जो  तूर  पर   नज़र  आया
ख़याल  क्यूं  उसी  का  फिर  शबो-सहर  आया

असर  तेरा  है    के:  बस   ख़ाम-ख़याली  मेरी
रग़े-जिगर  में  तेरा  अक्स  फिर  उभर  आया

मिले तो इस तरह  के:  नाम तक न पूछ  सके
नशा  नज़र  का  मगर  रूह  तक  उतर  आया

नफ़स-नफ़स  में  तेरा  नाम  लिए  जाते  थे
तुझे   ख़याल    हमारा    लबे-सफ़र    आया

उतर  गया  जो  शख़्स    एक  बार   नज़रों  से
हमारे  दिल  में  पलट  के   न  उम्र  भर  आया

ख़ुदा  क़सम  ये:  तेरा  शहर  छोड़  देंगे  हम
दिलों  के  बीच  कहीं  फ़ासला  अगर  आया !

                                                             ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: तूर: अरब में सीना की वादी में स्थित एक मिथकीय पर्वत जहां हज़रत मूसा को ख़ुदा के नूर की एक झलक मिली; 
शबो-सहर: रात और प्रात:; ख़ाम-ख़याली: व्यर्थ भ्रम; रग़े-जिगर: हृदय की पेशी; अक्स: छाया, प्रतिबिम्ब; 
नफ़स-नफ़स: सांस-सांस; लबे-सफ़र: (अंतिम) यात्रा पर निकलते समय; फ़ासला:अंतराल। 

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

तोड़ दें सब तिलिस्म !

शोख़  जज़्बात    पर  यक़ीन  नहीं
आपकी   बात     पर  यक़ीन  नहीं

यूं  यक़ीं  है    वफ़ाओं  पर  उनकी
बाज़  अवक़ात   पर  यक़ीन  नहीं

ख़्वाब  आएं  न  आएं  अब  हमको
रात  की  ज़ात   पर    यक़ीन  नहीं

तोड़  दें  सब  तिलिस्म  हम  उनके
गो    ख़ुराफ़ात    पर   यक़ीन  नहीं

पैदलों   ने     क़िला    तबाह  किया
शाह  को    मात  पर   यक़ीन  नहीं

था     भरोसा     कभी    ख़ुदाई  पर
आज    हालात  पर    यक़ीन  नहीं

ख़ाक    कर  दें     ज़मीर  को   मेरे
उन   इनायात  पर   यक़ीन  नहीं !

                                           ( 2013 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शोख़  जज़्बात: चंचल भावनाएं;   वफ़ाओं;आस्थाओं; बाज़  अवक़ात: कुछ अवसर/समय; तिलिस्म: मायाजाल; गो: यद्यपि; ख़ुराफ़ात: उद्दंडता, बदमाशी; ख़ुदाई: ईश्वरीय कृति; ख़ाक: राख़;  ज़मीर: स्वाभिमान; इनायात: कृपाएं। 

सोच का दायरा

रास्तों  की  शम'अ  बुझा  लीजे
आज    ईमान    आज़मा  लीजे

है  दिमाग़ी  फ़ितूर  हुस्न  अगर
हो  सके  तो   नज़र   हटा  लीजे

आप  वाईज़  हैं  कीजिए  इस्ला:
मैकदे     से     हमें    उठा  लीजे

ख़ौफ़  है  गर  तुम्हें  ज़माने  का
तो  हमें   ख़्वाब  में   बसा  लीजे

शायरी   की    दूकान  से    आगे
सोच  का    दायरा     बढ़ा  लीजे

दूसरों   के   लिए     दुआ  करके
रूह   को    सुर्ख़रू:     बना  लीजे !

                                            ( 2013 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दिमाग़ी  फ़ितूर: मानसिक भ्रम; वाईज़: धर्मोपदेशक, विद्वान; इस्ला::परामर्श; मैकदे: मदिरालय; ख़ौफ़: भय;  सुर्ख़रू:: सफल। 

रविवार, 17 नवंबर 2013

हज़ारों दाग़ हैं ...!

हमारे  पास  है  ही  क्या  किसी  का  दिल  लुभाने  को
हज़ारों  दाग़  हैं     दिल  पे     ज़माने  से     छुपाने  को

न  जाने  क्या     समझ  बैठे   के:  हंगामा  मचा  डाला
ज़रा  सी  बात  थी     हमने  कहा  था     मुस्कुराने  को

न  पूछो    सामने  सब  के   हमारी  कैफ़ियत  क्या  है
सफ़ेदी  ही    बहुत  है    बज़्म  में    नज़रें  झुकाने  को

हमारी  नज़्म  पढ़  आते  हैं  वो:   अपने  तख़ल्लुस  से
नई    ईजाद     लाए      हैं    हमें     नीचा  दिखाने   को

हमीं   पे    चोट   करते   हैं     हमीं   से    रूठ   जाते  हैं
ज़रा   सा    पास   होता   तो    चले  आते    मनाने  को

अज़ीयतदेह  हैं   आमाल   अब     अहले-सियासत  के
ख़ुदा   का    नाम    लेते  हैं    जहां  को    बरग़लाने  को

हमारे   ही     पड़ोसी   हैं     खड़े   हैं    असलहे    ले  कर
हमारी   जान    लेने   को    तुम्हारा   घर    जलाने  को !

                                                                             ( 2013 )

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: कैफ़ियत: हाल-चाल; सफ़ेदी: वृद्धावस्था, सफ़ेद बाल; बज़्म: महफ़िल, गोष्ठी; नज़्म: गीत; तख़ल्लुस: कवि-नाम;  
ईजाद: आविष्कार;  पास: चिंता; अज़ीयतदेह: कष्टदायक; आमाल: आचरण;   अहले-सियासत: राजनैतिक लोग; जहां: संसार;   
बरग़लाने: भ्रमित करने; असलहे: शस्त्रास्त्र। 

शनिवार, 16 नवंबर 2013

नींद आए न तुझे !

क्या ख़बर  किसकी दुआ  लग  जाए
 यार    को      मर्ज़े-वफ़ा   लग  जाए

कौन  बचता  है    घाट  का   घर  का
जो   ज़माने   की    हवा    लग  जाए

शायरी    के      सिवा      पनाह  नहीं
जो  दिल  पे    संगे-जफ़ा   लग  जाए

हो   शिफ़ा    इश्क़   की     हरारत  से
शैख़  साहब    की     दवा   लग  जाए

जान     बच     जाए      बेगुनाहों  की
काश!  क़ातिल  को   हया  लग  जाए

वो:  तेरा  अक्स  लगेगा   जिस  दिन
चांद    को     रंगे-हिना      लग  जाए

नींद   आए   न     तुझे   भी    या  रब
क़ैस   की      आहो-सदा    लग  जाए !

                                            ( 2013 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मर्ज़े-वफ़ा: निर्वाह का रोग; पनाह: शरण; संगे-जफ़ा: बे-ईमानी/अन्याय का पत्थर; शिफ़ा: आरोग्य;
हरारत: गर्मी, बुख़ार; शैख़: धर्म-भीरु, मद्यपान-विरोधी;हया: लज्जा; अक्स: प्रतिबिम्ब; रंगे-हिना: मेंहदी का रंग;
क़ैस: लैला का प्रेमी, मजनूं, प्रेमोन्मादी; आहो-सदा: चीख़-पुकार।

शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

क़द्र करते हैं !

हम  जियालों  की  क़द्र  करते  हैं
बा-कमालों     की  क़द्र  करते  हैं

दर्दमंदों       पे    जां     लुटाते   हैं
दिल के छालों  की  क़द्र  करते  हैं

जो   उतरते   हैं    रूह  से     सीधे
उन  ख़यालों   की  क़द्र  करते  हैं

आप  खुल  कर  उठाइए  हम  पे
हम  सवालों   की  क़द्र  करते  हैं

जो   शबे -तार   को    उजाले  दें
उन  मशालों  की  क़द्र  करते  हैं

हम  रईसों  को   दिल  नहीं  देते
ग़म  के पालों की  क़द्र  करते  हैं

हैं  हमारे  ख़ुदा    जो    ग़ुरबा  के
आहो-नालों    की  क़द्र  करते  हैं!

                                           ( 2013 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जियालों: बहादुरों; बा-कमालों: प्रतिभाशालियों; दर्दमंदों: संवेदनशीलों; शबे -तार: अंधेरी रात; 
ग़ुरबा: निर्धनों; आहो-नालों: आर्त्तनाद। 

रविवार, 10 नवंबर 2013

बग़ावत इसी में है !

हो     एहतरामे-उम्र     शराफ़त    इसी  में  है
ढहते  हुए    मज़ार  की    इज़्ज़त इसी  में  है 

हो      वक़्ते-ज़रूरत   तो     मुंह  न  दिखाइए
नादान    दोस्तों  की    नदामत    इसी  में  है

हो  निगहबां  तेरा   वही  अव्वल  वही  आख़िर
दुनिया  के    दांव-पेच  से    राहत  इसी  में  है

इज़्ज़त  का  रिज़्क़  हो  न  झुकानी  पड़े  नज़र
अल्लाह  की    इंसां  पे     इनायत   इसी  में  है

हथियार    हाथ  में    न  उठा  फ़तह  के  लिए
ऐ     आशिक़े-हुसैन     बग़ावत   इसी  में  है !

                                                            ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:   एहतरामे-उम्र: आयु का सम्मान; मज़ार: क़ब्र, यहां भावार्थ जर्जर शरीर; वक़्ते-ज़रूरत: आवश्यकता के समय; नदामत: विनम्रता, पश्चाताप; निगहबां: संरक्षक, ध्यान रखने वाला; अव्वल-आख़िर : आदि-अंत, ब्रह्म; रिज़्क़: आहार; इनायत: कृपा; फ़तह: विजय; नृशंस शासक यज़ीद के विरुद्ध अहिंसात्मक प्रतिरोध करने वाले, हज़रत इमाम हुसैन अ. स. के अनुयायी; बग़ावत: विद्रोह। 

शनिवार, 9 नवंबर 2013

घोंसले परिंदों के

नोंच   कर     फेंक   दिए     घोंसले    परिंदों  के
अब  भी     अरमान  अधूरे  हैं   कुछ  दरिंदों  के

लोग  तूफ़ान  से  बच-बच  के  निकल  जाते  हैं
क्या  फ़रिश्ते  भी  मुहाफ़िज़  नहीं  चरिन्दों  के

जाम  में   अक्से-ज़ुल्फ़   बाम  पे  निगाहे-ख़ुदा
होश  क्यूं  कर  न  फ़ाख़्ता  हों  आज  रिंदों  के !

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                                                                          ( 2013 )

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: परिंदों: पक्षियों; दरिंदों: हिंस्र पशुओं; फ़रिश्ते: देवदूत; मुहाफ़िज़: रक्षक; चरिन्दों: घास चरने वाले पशुओं; जाम: मदिरा-पात्र; अक्से-ज़ुल्फ़: लट का प्रतिबिम्ब; बाम: झरोखा; रिंदों: मद्यपों।
* ग़ज़ल फ़िलहाल नामुकम्मल है, वजह है क़ाफ़ियात का दायरा बेहद तंग होना …
** ऐतिहासिक मिथक के अनुसार, सोमनाथ मंदिर को लूटने वाले सुल्तान महमूद ग़ज़नवी का एक बेहद सुंदर ग़ुलाम था, अयाज़। एक रात जब अयाज़ महमूद के प्याले में शराब ढाल रहा था तो महमूद को उसकी ज़ुल्फ़ों की परछाईं शराब में दिखाई पड़ी.... महमूद उसी क्षण अयाज़ पर मोहित हो गया और फिर उसे दिन-रात साथ रखे रहा, अपनी मृत्यु होने तक ! इसी को लेकर अज़ीम शायर अल्लामा इक़बाल ने एक लाजवाब ग़ज़ल कही है, जिस का मक़ता है:
'न  वो:  हुस्न  में    रही  शोख़ियां     न  वो: इश्क़  में  रही  गर्मियां
न  वो:  ग़ज़नवी में  तड़प  रही  न  वो:  ख़म  है  ज़ुल्फ़े-अयाज़  में !'

गुरुवार, 7 नवंबर 2013

ये: नुक़तए-नज़र ...

हमको    तीरे-नज़र  क़ुबूल  नहीं
बेशऊरों  का    दर    क़ुबूल  नहीं


दुश्मने-हुस्न   हम  नहीं  लेकिन
दिल पे  बेजा  असर  क़ुबूल  नहीं

अज़मते-मुल्क    बेचने     वालों
ये:   नुक़तए-नज़र   क़ुबूल  नहीं

चंद   सरमायदार   की     ख़ातिर
मुफ़लिसों  पे  क़हर  क़ुबूल  नहीं

कोई  समझाओ   इन  दरिंदों  को
नफ़रतों   का  ज़हर   क़ुबूल  नहीं

हमको   दोज़ख़  क़ुबूल है लेकिन
शाह    तेरा  शहर     क़ुबूल  नहीं

इब्ने-हैदर   को    छीन  ले  जाए
हमको  ऐसी  सहर  क़ुबूल  नहीं

आज   मातम   हुसैन  का  होगा
ज़िक्रे-माहो-क़मर  क़ुबूल  नहीं !

                                          ( 2013 )

                                   -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:



अल्लः मियां बुलाते हैं !


जब  भी  तूफ़ां  क़रीब  आते  हैं
नाख़ुदा    साथ    छोड़  जाते  हैं

देख  के  लोग  साथ-साथ  हमें
संखिया  खा  के  बैठ  जाते  हैं

ज़िल्लते-हिंद  हैं  सियासतदां
क़ौम  की  बोटियां   चबाते  हैं

गर  सियासत  हमें  पसंद  नहीं
मुद्द'आ    क्यूं   इसे    बनाते  हैं

वो:  अगर शाम तक न आ पाएं
रात  भर  ख़्वाब   छटपटाते  हैं

आ   रहें    वो:     ज़रा    मदीने  से
फिर  कोई  सिलसिला  जमाते  हैं

आपके  नाम  रहा    शौक़े-सुख़न
हमको  अल्लः  मियां  बुलाते  हैं !

                                            (  2013 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: नाख़ुदा: नाविक; संखिया: एक घातक विष; ज़िल्लते-हिंद: भारत के कलंक; क़ौम: राष्ट्र; मुद्द'आ: विवाद का विषय; 
सिलसिला: मिल बैठने की युक्ति;  शौक़े-सुख़न: रचना-कर्म। 




मंगलवार, 5 नवंबर 2013

आपका जामे-नज़र ...

जी    बड़ा   तेज़    ज़हर   पीते  हैं
आजकल    आठ  पहर    पीते  हैं

जब  कोई  ज़ख़्म  उभर  आता  है
भूल   के    अपनी    उम्र   पीते  हैं

जाम   उमरा   नहीं    छुआ  करते
ख़ूने-इंसान        मगर      पीते  हैं

जीत   के    आए   हैं     अंधेरों  को
जश्न   में     जामे-सहर     पीते  हैं

उज्र  क्यूं  हो  किसी  फ़रिश्ते  को
अपने  हिस्से  की  अगर  पीते  हैं

ईद    पे     आप     बग़लगीर  हुए
उस  इनायत  का   असर  पीते  हैं

तूर   पे    त'अर्रुफ़    हुआ   जबसे
आपका     जामे-नज़र     पीते  हैं  !

                                                 ( 2013 )

                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जाम: मदिरा-पात्र; उमरा: अमीर ( बहुव. ), संभ्रांत-जन; ख़ूने-इंसान: मनुष्य-रक्त; जामे-सहर: उष: काल के प्रकाश की मदिरा; उज्र: आपत्ति; फ़रिश्ते: देवदूत;  बग़लगीर: गले लगना;  इनायत: कृपा; तूर: अरब का एक पहाड़ जहां हज़रत मूसा अ. स. को ख़ुदा के प्रकाश की झलक मिली; त'अर्रुफ़: परिचय; जामे-नज़र: दृष्टि-रूपी मदिरा। 


रविवार, 3 नवंबर 2013

दुश्मने-चैनो-अमन

ख़्वाब  पलकों  का  वतन  छोड़  गए
सुर्ख़   आंखों  में     जलन  छोड़  गए

चार   पत्ते      हवा   से       क्या  टूटे
सारे    सुर्ख़ाब     चमन     छोड़  गए

ख़ूब   मोहसिन   हुए     मेरे   मेहमां
चंद    अंगुश्त    क़फ़न     छोड़  गए

ख़ार    दिल  से    निकल  गए   सारे
ज़िंदगी  भर  की   चुभन   छोड़  गए

हिंद  को      अज़्म      बख़्शने  वाले
दुश्मने-चैनो-अमन          छोड़  गए

ले      गए       रूह       आसमां  वाले
जिस्म   मिट्टी  में   दफ़्न  छोड़  गए

मीरो-ग़ालिब       हमारे      हिस्से  में
सिर्फ़      आज़ारे-सुख़न     छोड़  गए !

                                               ( 2013 )

                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सुर्ख़: लाल; परिंद: पक्षी; मोहसिन: कृपालु-जन; चंद  अंगुश्ते-क़फ़न: चार अंगुल शवावरण; ख़ार: कांटे; अज़्म: महत्ता; 
दुश्मने-चैनो-अमन: सुख-शांति के शत्रु; रूह: आत्मा; आसमां वाले : परलोक-वासी, मृत्यु-दूत; जिस्म: शरीर; 
मीरो-ग़ालिब: हज़रात मीर तक़ी 'मीर' और मिर्ज़ा ग़ालिब, उर्दू  के  महानतम शायर; आज़ारे-सुख़न: रचना-कर्म का रोग।

शनिवार, 2 नवंबर 2013

सौग़ाते-नूर !

एक      सौग़ाते-नूर     ले  आए
देखिए     क्या    हुज़ूर  ले  आए

तिफ़्ल  हमसे  उम्मीद  रखते  हैं
कुछ  न  कुछ  तो  ज़ुरूर  ले  आए

ज़िद  पे   आए  हैं   दुश्मने-तौबा
चश्म  भर  के    सुरूर    ले  आए

ख़ूब  ग़म  का    इलाज    ढूंढा  है
मयकदे   में     तुयूर     ले  आए

क्या  अदा  पाई  मोहसिने-जां  ने
दो-जहां   का    ग़ुरूर     ले  आए

शाह    सुनता  नहीं    ग़रीबों  की
लोग      आवाज़े-सूर     ले  आए

हम   फ़क़ीरों के  पास  है  भी  क्या
शायरी   का     शऊर     ले  आए  !

                                                       ( 2013 )

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सौग़ाते-नूर: प्रकाश का उपहार; हुज़ूर: स्वामी, ईश्वर; तिफ़्ल: बच्चे; दुश्मने-तौबा: शराब न पीने की प्रतिज्ञा के शत्रु;  
चश्म: आंख; सुरूर: नशा, मदिरा; मयकदा: मदिरालय; तुयूर: चहकने वाली चिड़िएं; मोहसिने-जां: प्राणों पर अनुग्रह करने वाला;  
दो-जहां: दोनों लोक, इहलोक-परलोक; ग़ुरूर: घमण्ड;  आवाज़े-सूर: दुंदुभि का स्वर; फ़क़ीर: संत; शऊर: शिष्टाचार।

शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

डूबेगा ज़माना !

तरब  से  शौक़  से  ज़िंदादिली  से
कभी  गुज़रो  मेरे  दिल  की  गली से

गरेबां  चाक  कर  लें  दिल  जला  दें
मिले  आराम  शायद   काहिली  से

हमारे     साथ      डूबेगा     ज़माना
करेगा  साज़िशें  गर  बुजदिली  से

बिगड़  जाए  न  बनती  बात  अपनी
ज़रा  कह  दो  निगाहे-आजिली  से

न  रोज़ी  का  ठिकाना  है  न  घर  का
जिए  जाते  हैं  बस  दरियादिली  से

न  जाने  कब  रुकें  मंहगाईयां  ये:
परेशां  हो  गए  सब  बेकली  से

हमें  उस  मोड़  तक  पहुंचा  न  देना
के:  दुनिया  छोड़  दें  हम  बेदिली  से

रहें  वो:  साथ  तूफ़ां  में  हमारे
गुज़ारिश  है  यही  मौला  अली  से !

                                                    ( 2013 )

                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तरब: प्रसन्नता; शौक़: रुचि; ज़िंदादिली: जीवंतता; गरेबां: गला; चाक करना: काटना; काहिली: अकर्मण्यता; साज़िशें: षड्यंत्र;  
गर: यदि; बुजदिली: कायरता; निगाहे-आजिली: जल्दबाज़ी करने वाली दृष्टि;रोज़ी: आजीविका;  दरियादिली: नदी-जैसा, उदार स्वभाव; 
बेकली: बेचैनी; गुज़ारिश: प्रार्थना; मौला  अली: हज़रत अली अ. स., इस्लाम के ख़लीफ़ा, एक मत से पहले और दूसरे मत से चौथे।