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गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

फ़ैसला अच्छा नहीं !

जंग  हो  जज़्बात  की  ये  सिलसिला  अच्छा  नहीं
दोस्ती  में  रात-दिन  शिकवा-गिला   अच्छा  नहीं

उम्र  भर  का  साथ  हो  तो  क्या  ख़ुदी,  कैसी  अना
हमसफ़र  से  हर क़दम  पर  फ़ासला  अच्छा  नहीं

क़ुदरतन  टूटे  क़ह्र  तो  क्या  शिकायत  अर्श  से
सहर:-ए-दिल   में  उठे  जो  ज़लज़ला,  अच्छा  नहीं

रात-दिन  डूबे  हुए  हैं  शायरी  की  फ़िक्र  में
घर  चलाने  के  लिए  ये  मश्ग़ला  अच्छा  नहीं

इब्ने-इन्सां  के  लिए  ये  ज़िंदगी  भी  फ़र्ज़  है
मग़फ़िरत  को  ख़ुदकुशी  का  रास्ता  अच्छा  नहीं

एक  ख़ालिक़,  एक  मालिक,  कौन-सा  फ़िरक़ा  बड़ा ?
रहबरी  के  नाम  पर  ये  मुद्द'आ  अच्छा  नहीं

रह  गईं  हों  जब  रिआया  की  दलीलें  अनसुनी
शाह  के  हक़  में  ख़ुदा  का  फ़ैसला   अच्छा  नहीं  !

                                                                                       (2014)

                                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जंग: युद्ध, संघर्ष; जज़्बात: भावनाएं; सिलसिला: क्रम; शिकवा-गिला: उलाहने; ख़ुदी: स्वाभिमान; अना: अहंकार; हमसफ़र: सहयात्री, जीवनसाथी; फ़ासला: अंतराल, दूरी; क़ुदरतन: प्राकृतिक रूप से; क़ह्र: आपदा; अर्श: आकाश, ईश्वर, नियति; सहर:-ए-दिल: हृदय का मरुस्थल, शुष्क मन; ज़लज़ला: भूकम्प; मश्ग़ला: व्यस्तता, दिनचर्या; इब्ने-इन्सां: मनुष्य-संतान;  फ़र्ज़: कर्त्तव्य; मग़फ़िरत को: मोक्ष हेतु; ख़ुदकुशी: आत्म-हत्या;  ख़ालिक़: सृजन कर्त्ता; मालिक: ईश्वर, ब्रह्म; फ़िरक़ा: संप्रदाय; रहबरी: नेतृत्व, नेतागीरी;   मुद्द'आ: विषय, बिंदु; रिआया: प्रजा, जनसामान्य;  दलीलें: प्रतिवाद;  हक़: पक्ष।  

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