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शुक्रवार, 28 जून 2013

ऐसा न हुआ होता ..

मक़तूल  की  आहों  को  तूने  जो  सुना  होता
क़ातिल  तेरी  आंखों  से  क़तरा  तो  ढहा  होता

शायद  मेरे  ख़्वाबों  की  ताबीर  अलग  होती
शाहों  को  जो  ग़ुरबत   का  अहसास  रहा  होता

मक़तूल  के  सीने  में  जज़्बात  का  तूफ़ां  था
कुछ  तूने  सुना  होता  कुछ  तूने  सुना  होता

करता  जो  क़त्ल  मुझको  तू  अपनी  निगाहों  से
हरग़िज़   मेरी  आंखों  से  यूं  खूं  न  बहा  होता

इक  'अह्द  का  मस्ला  था  करते  तो  बुरा  क्या  था
इल्ज़ाम-ए-बुतपरस्ती  हमने  न  सहा  होता

वाइज़  की  तरह   हम  भी  जन्नतनशीं  न  होते
कलमा  जो  क़रीने  से  इक  रोज़  पढ़ा  होता

मरने  के  बाद  मेरे  अब  इसपे  तज़्किरा  है
'ऐसा  न  हुआ  होता  वैसा  न  हुआ  होता !'

                                                              ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: मक़तूल: वध किया हुआ व्यक्ति;  क़तरा: बूंद; ताबीर:मूर्त्त-रूप; ग़ुरबत: निर्धनता; जज़्बात: भावनाएं; तूफ़ां: तूफ़ान; 'अह्द  का  मस्ला: संकल्प की बात; इल्ज़ाम-ए-बुतपरस्ती: मूर्त्ति-पूजा, व्यक्ति-पूजा; वाइज़: धर्मोपदेशक; जन्नतनशीं: स्वर्गवासी; कलमा: आस्था-मंत्र; क़रीने से: भली-भांति; तज़्किरा: बहस।