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सोमवार, 2 सितंबर 2013

हमें मुद्द'आ बनाते हैं...

हम  अगर  खुल  के मुस्कुराते  हैं
क्या  बताएं   के:  क्या  छुपाते  हैं

दिल तो महफ़ूज़ रख नहीं  पाए
दांव      ईमान    पे    लगाते  हैं

जो    शबे-ग़म    गुज़ार  लेते  हैं
अपनी  तक़दीर   ख़ुद  बनाते हैं

मांगते  हैं   दुआ   मुहब्बत  की
मौत    का    दायरा    बढ़ाते  हैं

जब कभी दिल पे बात आती है
वो:    हमें    मुद्द'आ   बनाते  हैं

मश्वरा    चाहिए    मुहब्बत  पे
मीरवाइज़     हमें     बुलाते  हैं

अर्श  जब-जब  फ़रेब  देता  है
ग़म  हमें    रास्ता  दिखाते  हैं  !

                                     ( 2013 )

                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: महफ़ूज़: सुरक्षित; ईमान: आस्था; शबे-ग़म: दुःख की रात्रि; मुद्द'आ: विषय; मश्वरा: परामर्श; 
मीरवाइज़: प्रमुख धर्मोपदेशक; अर्श: आसमान, भाग्य।