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सोमवार, 6 अक्तूबर 2014

...हादसा होता मिलेगा !

तुम्हें  उस  शख़्स  से  धोखा  मिलेगा
जिसे    तन्हाई  में     मौक़ा  मिलेगा

निगाहे-शौक़    को   रुस्वा  न  कीजे
किसी  दिन  हमसफ़र  सच्चा  मिलेगा

हमारे   हाथ   में     भी     हैं    लकीरें 
हमें  भी  कुछ  कहीं  अच्छा  मिलेगा

हमारे  शहर    की    तस्वीर    ये  है
यहां   हर   आदमी    रोता  मिलेगा

जहां-ए-इश्क़  में  देखो  जहां  भी
वहीं  कुछ  हादसा  होता  मिलेगा

लगी  हो  आग  जब  अमराइयों में
मुहाफ़िज़  चैन  से  सोता  मिलेगा

हमामे-बदज़नां   है   ये  सियासत
जिसे  देखो,    वही   नंगा  मिलेगा

ज़ियारत  को  गया  है  दिल  हमारा
धड़कने  को   कहीं    कोना  मिलेगा ?

हमारी  रूह    जब    आज़ाद  होगी
दरे-फ़िरदौस  पर  मौला  मिलेगा

ज़माना   देखते  हैं,    क्या  कहेगा
हमें  जब  नूर  का  तोहफ़ा  मिलेगा !

महज़  पेशीनगोई  मत  समझिए
अमन  अब  वाक़ई  महंगा  मिलेगा !


                                                                (2014)

                                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: शख़्स: व्यक्ति; तन्हाई: एकांत; निगाहे-शौक़: अभिलाषा-पूर्ण दृष्टि, सौंदर्य-बोध; रुस्वा: लज्जित;   हमसफ़र: सहयात्री; जहां-ए-इश्क़: प्रेम का संसार; हादसा: दुर्घटना; मुहाफ़िज़: संरक्षक, रक्षा करने वाला; हमामे-बदज़नां: कुकर्मियों का स्नानागार; सियासत: राजनीति; ज़ियारत: तीर्थयात्रा; रूह: आत्मा; दरे-फ़िरदौस: स्वर्ग का द्वार; मौला: परमेश्वर; ज़माना: समाज; नूर: प्रकाश; तोहफ़ा: उपहार; महज़: केवल;  पेशीनगोई: भविष्य वाणी; अमन: शांति; वाक़ई: सचमुच। 



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