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रविवार, 26 मार्च 2017

मौक़ा नहीं मिला ...

हमको  तेरे  विसाल  का  मौक़ा  नहीं  मिला
इस  पर  तुझे  ख़याल  का  मौक़ा  नहीं  मिला

ताउम्र  तेरी  फ़िक्र  हमें   इस  तरह  रही
ख़ुद  अपनी  देखभाल  का  मौक़ा  नहीं  मिला

जो  शख़्स  मेरे  साथ  बहुत  दूर  तक  चला
उससे  भी  अर्ज़े-हाल  का  मौक़ा  नहीं  मिला

एहसास  था  उसे  कि  मेरा  दिल  दुखा  दिया
लेकिन  उसे  मलाल  का   मौक़ा  नहीं  मिला

अरमान  था  उन्हें  कि  मेरा  सर  झुका  सकें
आंखों  के  इस्तेमाल  का  मौक़ा  नहीं  मिला

दिल  की  गली  में  आग  लगाने  चले  थे  वो
आशिक़  के  घर  बवाल  का  मौक़ा  नहीं  मिला

हमने  ख़ुदा  को  तूर  पे  ला  कर  दिखा  दिया
दुनिया  को  फिर  सवाल  का  मौक़ा  नहीं  मिला !

                                                                                      (2017)

                                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थः विसाल: दर्शन; ख़याल: विचार, चिंता; शख़्स: व्यक्ति; अर्ज़े-हाल: स्थिति बताना; ताउम्र: आजीवन; एहसास: अनुभूति; मलाल: खेद; अरमान: इच्छा; इस्तेमाल: प्रयोग; आशिक़: प्रेमी; बवाल: उत्पात; तूर: अरब के साम क्षेत्र में एक मिथकीय पर्वत, जहां हज़रत मूसा अ. स. के बुलाने पर ईश्वर के प्रकट होने का आख्यान है।  

शनिवार, 25 मार्च 2017

ज़ीस्त का इंतज़ार...

शाह  पर  एतबार  किसको  है
ये:  दिमाग़ी  बुख़ार  किसको  है

हाकिमों  की  अदा  गवाही  है
हैसियत  का  ख़ुमार  किसको  है

ज़ार  सबको  थमा  गया  कासा
दिक़्क़ते-रोज़गार   किसको  है

थक  गए  जिस्म  .गुंच:-ओ-गुल  के
अब  उमीदे-बहार  किसको  है

हम  फ़क़ीरी  में  मस्त  हैं  अपनी
चाहते-इक़्तिदार  किसको  है

मौत  सफ़  में  लगा  गई  जबसे
ज़ीस्त  का  इंतज़ार  किसको  है

देख  लेंगे  नमाज़  भी  पढ़  कर
आस्मां   पर  क़रार  किसको  है !

                                                                    (2017)

                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थः एतबार: विश्वास; हाकिमों: सत्ताधारियों, अधिकारियों; अदा: भंगिमा; गवाही: साक्ष्य; हैसियत: प्रास्थिति; ख़ुमार: मद; ज़ार: अत्याचारी शासक; कासा: भिक्षा-पात्र; दिक़्क़ते-रोज़गार: आजीविका की कठिनाई; जिस्म: शरीर; .गुंच:-ओ-गुल: कलियां और फूल; उमीदे-बहार: बसंत की आशा; फ़क़ीरी: सधुक्कड़ी, निर्धनता; चाहते-इक़्तिदार: सत्ता-प्राप्ति की इच्छा; सफ़: पंक्ति; ज़ीस्त: जीवन; क़रार: आश्वस्ति।  


शुक्रवार, 24 मार्च 2017

मसख़रों का ज़माना ...

ख़रों  को  मुबारक  ख़रों  का  ज़माना
अजब  सरफिरे   रहबरों  का  ज़माना

न  देखेगी  नरगिस  न  गाएगी  बुलबुल
न  आएगा     दीदावरों  का    ज़माना

जहां  मौसिक़ी  की  इजाज़त  न  होगी
वहां  क्या  करेगा    सुरों  का  ज़माना

जिन्होंने  चुना  है  बड़े  शौक़  से  अब
निभाएं  वही    मसख़रों  का   ज़माना

ये  जम्हूर  आख़िर  कहां  तक  सहेगा
सियासत  के   बाज़ीगरों  का  ज़माना

चुराने  लगा   मुफ़लिसों  की   कमाई
नई   तर्ज़  के   मुख़बिरों  का  ज़माना

यही  वक़्त  है  लाल  परचम  उठाओ
बदल  दो   बड़े  साहिरों  का  ज़माना

मुहब्बत   बसाएगी   वो  घर   दोबारा
मिटाएगा  जो   ताजिरों  का   ज़माना !

                                                                (2016)

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थः ख़रों : गधों; रहबरों: नेताओं; नरगिस: एक फूल, जिसकी एक पंखुड़ी में आंख के समान आकृति बनी होती है; बुलबुल: कोयल; दीदावरों: दृष्टि-संपन्न व्यक्तियों; मसख़रों: भांडों; जम्हूर: लोकतंत्र; सियासत: राजनीति; बाज़ीगरों: खिलाड़ियों; परचम: ध्वज, पताका; मुफ़लिसों: वंचितों, दीन हीनों; तर्ज़: शैली; साहिरों: जादूगरों, मायावियों; मुख़बिरों: टोह लेने वालों; ताजिरों: व्यापारियों, पूंजीपतियों।  


रविवार, 5 मार्च 2017

फ़रेब सीरत के ...

मुद्द'आ  यूं  मिटा  तमाशों  में
दब  गई  आह  ढोल-ताशों  में

सोज़े-तकरीर  हुस्न  खो  बैठा
तल्ख़  तन्क़ीदो-इफ़्तिराशों  में

शक्ले-इंसां  नज़र  नहीं  आती
मसख़रों  से  भरी  क़िमाशों  में

रहनुमा  आए  हैं  दवा  ले कर
फूंकने  जान    सर्द  लाशों  में

हैं  नुमाया  फ़रेब  सीरत  के
शाह  के  रेशमी  क़ुमाशों  में 

गंद  में  जिस्म  सन  गया  सारा
साफ़  किरदार  की  तलाशों  में

खेलिए  क्या  ग़रीब  के  दिल  से
.खूं  छलक  आएगा  ख़राशों  में !

                                                                  (2017)

                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मुद्द'आ: विषय; सोज़े-तकरीर: भाषण का माधुर्य; हुस्न: सौंदर्य; तल्ख़: तीक्ष्ण; तन्क़ीदो-इफ़्तिराशों: टिप्पणियों एवं निंदाओं; शक्ले-इंसां: मनुष्य का रूप; मसख़रों: भांडों; क़िमाशों: ताश की गड्डियों; रहनुमा: मार्ग दिखाने वाले, नेता गण; सर्द लाशों: ठंडे शवों; नुमाया: प्रकट; फ़रेब: छद्म; सीरत: चरित्र, स्वभाव; क़ुमाशों: वस्त्र-विन्यास, रूप-सज्जा; गंद: मलिनता; जिस्म: देह; किरदार: चरित्र, व्यक्तित्व; तलाशों: अनुसंधानों; .खूं : रक्त, ख़राशों: खरोंचों ।


 

बुधवार, 1 मार्च 2017

खिलेंगे ख़ुद-ब-ख़ुद ...

जो  दानिशवर  परिंदों  की  ज़ुबां  को  जानते  हैं
यक़ीनन  वो   तिलिस्मे-आसमां    को  जानते  हैं

तू  कहता  रह  कि  तू  ख़ुद्दार  है  झुकता  नहीं  है
मगर   हम  भी   तेरे   हर  मेह्रबां    को  जानते  हैं

वही     बातें      वही     वादे     वही     बेरोज़गारी
वतन  के   नौजवां   सब  रहनुमां  को    जानते  हैं

कहां  नीयत  कहां  नज़रें  कहां  मंज़िल  सफ़र  की
सभी   रस्ते     अमीरे-कारवां      को    जानते  हैं

खिलेंगे  ख़ुद-ब-ख़ुद  दिल  में  किसी  दिन  आपके  भी
गुलो-ग़ुञ्चे   मुहब्बत  के    निशां     को   जानते  हैं

कहीं  ये  आ  गए  ज़िद  पर  तो  दुनिया  को  डुबो  दें
तेरे   लश्कर    मेरे  अश्के-रवां     को    जानते  हैं

तेरे  अहकाम  पर    चलती  नहीं    मख़लूक़  तेरी
इलाही !  हम    तेरे  दर्दे-निहां    को     जानते  हैं  !

                                                                                                     (2017)

                                                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दानिशवर : विद्वत्जन; परिंदों : पक्षियों; ज़ुबां : भाषा; यक़ीनन : निश्चय ही; तिलिस्मे-आसमां : आकाश/ईश्वर का रहस्य; ख़ुद्दार : स्वाभिमानी; मेह्रबां : कृपा करने वाले; रहनुमां : नेता गण; अमीरे-कारवां : यात्री दल का प्रमुख; ख़ुद-ब-ख़ुद : स्वयंमेव; गुलो-ग़ुञ्चे : पुष्प एवं कलियां; निशां : चिह्न; लश्कर : सैन्य-दल; अश्के-रवां : बहते आंसू; अहकाम : आदेशों; मख़लूक़ : सृष्टि; इलाही : ईश्वर; दर्दे-निहां : गुप्त पीड़ा ।