इबादत न कीजे किसी शाह की
दग़ाबाज़ मक्कार गुमराह की
न जाने कहां ले गिरे रहनुमा
हक़ीक़त समझिए नई राह की
किसे दोस्त समझें किसे मुस्तफ़ा
हमारी किसी ने न परवाह की
जहां पीर ही पीर हों बज़्म में
वहां क्या ज़रूरत है इस्लाह की
न कीजे कभी ज़िक्र सदमात का
तबीयत बिगड़ती है ख़ुश ख़्वाह की
बहुत तेज़ हैं आंधियां ज़ुल्म की
कहीं लौ न बुझ जाए मिस्बाह की
ग़ज़ल याद रखिए न रखिए मेरी
मगर कीजिए फ़िक्र दरगाह की !
(2017)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: इबादत : पूजा; दग़ाबाज़: विश्वासघाती; मक्कार: छल करने वाला; गुमराह: मार्गच्युत; मुस्तफ़ा: धर्मगुरु;
रहनुमा: मार्गदर्शक; हक़ीक़त:वास्तविकता,यथार्थ; पीर:गुरु; बज़्म:सभा, जमावड़ा; इस्लाह:त्रुटि-सुधार,संशोधन;
सदमात: आघात; ख़ुशख़्वाह: शुभचिंतक; ज़ुल्म: अत्याचार; मिस्बाह: दीपक; दरगाह : समाधि।
दग़ाबाज़ मक्कार गुमराह की
न जाने कहां ले गिरे रहनुमा
हक़ीक़त समझिए नई राह की
किसे दोस्त समझें किसे मुस्तफ़ा
हमारी किसी ने न परवाह की
जहां पीर ही पीर हों बज़्म में
वहां क्या ज़रूरत है इस्लाह की
न कीजे कभी ज़िक्र सदमात का
तबीयत बिगड़ती है ख़ुश ख़्वाह की
बहुत तेज़ हैं आंधियां ज़ुल्म की
कहीं लौ न बुझ जाए मिस्बाह की
ग़ज़ल याद रखिए न रखिए मेरी
मगर कीजिए फ़िक्र दरगाह की !
(2017)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: इबादत : पूजा; दग़ाबाज़: विश्वासघाती; मक्कार: छल करने वाला; गुमराह: मार्गच्युत; मुस्तफ़ा: धर्मगुरु;
रहनुमा: मार्गदर्शक; हक़ीक़त:वास्तविकता,यथार्थ; पीर:गुरु; बज़्म:सभा, जमावड़ा; इस्लाह:त्रुटि-सुधार,संशोधन;
सदमात: आघात; ख़ुशख़्वाह: शुभचिंतक; ज़ुल्म: अत्याचार; मिस्बाह: दीपक; दरगाह : समाधि।