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गुरुवार, 18 जून 2015

कभी ख़ुदा समझें !

हज़ार  ज़ुल्म  सहें   और   फिर  ख़ुदा  समझें
भला  बताएं  उन्हें  हम  अवाम  क्या  समझें

क़दम-क़दम     प'    सितारे   शुआ   लुटाएंगे
अगर  कहीं  हमें  वो   दोस्त-दिलरुबा  समझें

क़फ़स   में    उम्र  कटे,    बुलबुलें   सना   गाएं
अजीब  ज़िद  है,  ज़ौरो-जब्र  को  शिफ़ा  समझें

सवाल   उनकी   तरबियत   पे   रोज़    उट्ठेंगे
ख़मोशियों  को   अगर  वो    मेरी   रज़ा  समझें

जिन्हें   ख़्याल   नहीं   मुल्क   के   ग़रीबों   का
उन्हें  ख़ुदा  के  लिए   अब  न   रहनुमा  समझें

ख़ुदा    बचाए    हमें     शैख़    की    ज़हानत  से
पिलाएं    मुफ़्त    उन्हें   और  वो    बुरा  समझें

मिले  जो  वक़्त    उन्हें    शाह  की   इबादत  से
तो  अह् ले  दीन  ख़ुदा  को  कभी  ख़ुदा  समझें !

                                                                                       (2015)

                                                                                   -सुरेश  स्वप्निल  

शब्दार्थ: ज़ुल्म: अत्याचार; अवाम: जन-सामान्य; शुआ: किरण; दिलरुबा: मनमीत; क़फ़स: पिंजरा; सना: स्तुति; ज़ौरो-जब्र: बल-प्रयोग; शिफ़ा: उपचार, समाधान; तरबियत: शिक्षा-दीक्षा; रज़ा: स्वीकृति, सहमति; रहनुमा: मार्ग-दर्शक, नेता; शैख़: धर्मोपदेशक; ज़हानत: बुद्धिमत्ता; इबादत: पूजा; अह् ले  दीन: धार्मिक, अनुयायी।

सोमवार, 8 जून 2015

मैकदे में सुब्ह हो ...

जिस  शह्र  में   हर  किसी  की   आरज़ू  नाकाम  हो
क्यूं  न  फिर  उस  शह्र  की  आबो-हवा  बदनाम  हो

ख़ुशनसीबी   पर   हमें    उस   रोज़  आएगा   यक़ीं
जब    हमारे   हाथ   में   महबूब   का    पैग़ाम   हो

हम   न  चाहेंगे   हमारी   हिज्र  में  हो  मौत,  फिर
आपके  सर  पर   हमारे   क़त्ल  का  इल्ज़ाम  हो

बे-ख़याली   में   हमारी   बात   ही   कुछ   और  है 
मैकदे  में   सुब्ह   हो   तो   दैर   में   हर   शाम  हो

हर   नए     हिंदोस्तानी    का    यही    ईमान    है 
नाम  अहमद  का  ज़ेह्न  में  और  दिल  में  राम  हो

शाह  का  तख़्ता   पलट  देंगे   किसी  दिन,   देखना
फिर  भले  ही  इस  मुहिम  का  मौत  ही  अंजाम  हो

सामने  आ  कर  किसी  दिन  तब्सिरा  भी  कीजिए
क्यूं   हमें   इस्लाह   हर   दम    सूरते-इल्हाम   हो  !

                                                                                          (2015)

                                                                                -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: आरज़ू: अभिलाषा; नाकाम: असफल; आबो-हवा: पर्यावरण; बदनाम: कलंकित; ख़ुशनसीबी: सौभाग्य; यक़ीं: विश्वास;  महबूब: प्रिय;  पैग़ाम: संदेश; हिज्र: वियोग; क़त्ल: हत्या; इल्ज़ाम: आरोप; बे-ख़याली: आत्म-विस्मृति; मैकदे: मदिरालय; दैर: पूजाघर; ईमान: आस्था; अहमद: इस्लाम के अंतिम पैग़ंबर, हज़रत मोहम्मद स.अ.व. का दूसरा नाम; ज़ेह्न : मस्तिष्क; तख़्ता: राजासन; मुहिम: अभियान; अंजाम: परिणाम;  तब्सिरा: समीक्षा;  इस्लाह: परामर्श, अशुद्धियां बताना और उन्हें दूर करना; सूरते-इल्हाम: आकाशवाणी के रूप में । 




बुधवार, 3 जून 2015

मिट गए दहक़ां ...

शाम  का  दिल  लूट  कर  चलते  बने
आप  महफ़िल  लूट  कर  चलते  बने

हम  उन्हें  हमदर्द  समझे  थे  मगर
जान  क़ातिल  लूट  कर  चलते  बने

हमसफ़र  बन  कर  मिले  थे  जो  हमें
जश्ने-मंज़िल  लूट  कर  चलते  बने

जंग  तूफ़ां  से  लड़े  जिनके  लिए
मौजे-साहिल  लूट  कर  चलते  बने

सिर्फ़  सामां-ए-दफ़न  था  हाथ  में
चंद  ग़ाफ़िल  लूट  कर  चलते  बने

मिट  गए   दहक़ां  फ़सल  के  वास्ते
शाह  हासिल  लूट  कर  चलते  बने

मोतबर  थे  ख़्वाब  यूं  तो  फज्र  तक
आंख  का  तिल  लूट  कर  चलते  बने  !

                                                                      (2015)

                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: महफ़िल: सभा, गोष्ठी; हमदर्द: दुःख में सहभागी; क़ातिल: हत्यारा; हमसफ़र: सहयात्री; जश्ने-मंज़िल: लक्ष्य-प्राप्ति  का उत्सव, श्रेय; जंग: युद्ध; तूफ़ां: झंझावात; मौजे-साहिल: तट की लहरें; सामां-ए-दफ़न: दफ़न की सामग्री; चंद: कुछ; ग़ाफ़िल: दिग्भ्रमित; 
दहक़ां: कृषक गण; हासिल: अभिप्राप्ति; मोतबर: विश्वासपात्र; फज्र: उष:काल ।