उठाए हाथ चार:गर दुआ को
मरीज़-ए-इश्क़ तरसे है दवा को
लबों पे तंज़, आँखों में शरारत
समझते हैं तुम्हारी हर अदा को
दहकते जिस्म हैं ग़ुञ्च:-ओ-गुल के
कोई ले आइये बाद-ए-सबा को
शहर पत्तों की तरह कांपते हैं
हुआ क्या है ज़माने की हवा को ?
हमारे नूर का जलवा भी होगा
के: जब पहुंचेंगे उल्फ़त की सज़ा को
हमें उस मोड़ पे पहुंचा न देना
के: दें हम बद्दुआ रस्म-ए-वफ़ा को।
( 1986 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: चार:गर: उपचारक; तंज़: व्यंग्य, ताना ; ग़ुञ्च:-ओ-गुल: कलियाँ और फूल;
बाद-ए-सबा: सुबह की हवा; नूर का जलवा: आभा-मंडल का प्रकटीकरण ;
उल्फ़त: प्रेम, लगाव, बद्दुआ: अभिशाप।
मरीज़-ए-इश्क़ तरसे है दवा को
लबों पे तंज़, आँखों में शरारत
समझते हैं तुम्हारी हर अदा को
दहकते जिस्म हैं ग़ुञ्च:-ओ-गुल के
कोई ले आइये बाद-ए-सबा को
शहर पत्तों की तरह कांपते हैं
हुआ क्या है ज़माने की हवा को ?
हमारे नूर का जलवा भी होगा
के: जब पहुंचेंगे उल्फ़त की सज़ा को
हमें उस मोड़ पे पहुंचा न देना
के: दें हम बद्दुआ रस्म-ए-वफ़ा को।
( 1986 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: चार:गर: उपचारक; तंज़: व्यंग्य, ताना ; ग़ुञ्च:-ओ-गुल: कलियाँ और फूल;
बाद-ए-सबा: सुबह की हवा; नूर का जलवा: आभा-मंडल का प्रकटीकरण ;
उल्फ़त: प्रेम, लगाव, बद्दुआ: अभिशाप।