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बुधवार, 31 दिसंबर 2014

मन्नतों का जवाब...


शाह   जब    बे-नक़ाब    होते हैं
देर   तक   दिल  ख़राब   होते हैं

ख़ार  हम    बाज़ वक़्त   होते हैं
यूं    अमूमन    गुलाब    होते हैं

कौन  चाहत   करे  फ़रिश्तों  की
लोग    भी    लाजवाब    होते हैं

आप   आंखें  खुली   रखा  कीजे
ख़्वाब    ख़ाना-ख़राब    होते हैं

दर्दे-दिल  मुफ़्त  में  नहीं  मिलते
मन्नतों     का    जवाब     होते हैं

ताज  सर   पर  नहीं  रहा   करते
ज़ुल्म   जब   बे-हिसाब    होते हैं

कोई  बतलाए,  कब   करें  सज्दा
होश  में   कब    जनाब   होते हैं ?

                                                               (2014)

                                                        -सुरेश स्वप्निल 

शब्दार्थ: बे-नक़ाब: अनावृत्त; ख़ार: कंटक; बाज़ वक़्त: कभी-कभार, समयानुसार; अमूमन: सामान्यतः; फ़रिश्तों: देवदूतों; 
ख़ाना-ख़राब: यायावर, यहां-वहां भटकने वाले; दर्दे-दिल: मन की पीड़ा; मन्नतों: प्रार्थनाओं; ज़ुल्म: अत्याचार; सज्दा: प्रणिपात;   
जनाब: श्रीमान, महोदय, यहां ईश्वर के संदर्भ में । 

सोमवार, 29 दिसंबर 2014

गहरा कुहासा ...

यूं  ज़ुबां  फिसली  तमाशा  हो  गया
हर  हक़ीक़त  का  ख़ुलासा  हो  गया

बाम  पर  आकर  खड़े  वो  क्या  हुए
चांद  का  चेहरा  ज़रा-सा  हो  गया

ख़्वाब  में  तस्वीर  उनकी  देख  ली
चश्मे-तश्ना  को  दिलासा  हो  गया

दाम    आटे-दाल   के    इतने  बढ़े
क़र्ज़  में  नीलाम  कासा  हो  गया

शाह  मुजरिम  है  गुलों  के  क़त्ल  का
तितलियों  पर    इस्तगासा   हो  गया

उफ़ !  निज़ामे-स्याह  की  बदकारियां
अर्श  तक    गहरा  कुहासा    हो  गया

मज़हबी  तकरीर  सुन  कर  ख़ुल्द  में
दर्दे-सर    फिर    बेतहाशा    हो  गया  !

                                                              (2014)

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़ुबां: जिव्हा, शब्द; हक़ीक़त: यथार्थ, सच्चाई; ख़ुलासा: उद्घाटन; बाम: वातायन; चश्मे-तश्ना: तृषित नयन; दिलासा: सांत्वना, आश्वस्ति; दाम: मूल्य; क़र्ज़: ऋण; कासा: भिक्षा-पात्र; मुजरिम: अपराधी; गुलों: पुष्पों; क़त्ल: हत्या; इस्तगासा: वाद; निज़ामे-स्याह: अंधेर का राज्य; बदकारियां: कुकर्म; अर्श: आकाश; मज़हबी: धार्मिक; तकरीर: भाषण; ख़ुल्द: स्वर्ग; दर्दे-सर: सिर की पीड़ा; बेतहाशा: अत्यधिक, असीम ।

गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

ये दौरे-दहशत...

न  दिल  रहेगा, न  जां  रहेगी
रहेगी      तो     दास्तां  रहेगी

है  वक़्त  अब  भी  निबाह  कर  लें
तो  ज़िंदगी  मेह्रबां  रहेगी

तुम्हारे  आमाल  तय  करेंगे
कि  रूह  आख़िर  कहां  रहेगी

थमा  सफ़र  जो  कभी  हमारा
ग़ज़ल  हमारी  रवां  रहेगी

मिरे  मकां  का  तवाफ़  करना
कि  हर  तमन्ना  जवां  रहेगी

ये  दौरे-दहशत  तवील  होगा
जो  चुप  अभी  भी  ज़ुबां  रहेगी

उड़ेगी  जब  ख़ाक  ज़र्रा-ज़र्रा
फ़िज़ा  में  अपनी   अज़ाँ  रहेगी !

                                                         (2014)

                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दास्तां: आख्यान, कथा; निबाह: निर्वाह; मेह्रबां: कृपालु; आमाल: आचरण; रवां: प्रवाहमान; मकां: समाधि, क़ब्र; तवाफ़: परिक्रमा; तमन्ना: अभिलाषा; जवां: युवा; दौरे-दहशत: आतंक का समय; तवील: विस्तृत; ज़ुबां: जिव्हा; ख़ाक: चिता की भस्म; ज़र्रा-ज़र्रा: कण-कण; फ़िज़ा: वातावरण । 

बुधवार, 24 दिसंबर 2014

ख़ुद को नवाज़ दें...

बस,  रिश्त:-ए-अज़ान  बचा  है  जनाब  से

दामन  छुड़ा  रहे  हैं  वो:  ख़ाना-ख़राब  से


मसरूर  रहे   हुस्ने-शह्र  में    कभी-कभी 

हालांकि,  दूर-दूर  रहे    हम     शराब  से


उन  चश्मे-ख़ुशमिज़ाज  के  अंदाज़  देखिए

करते  हैं      छेड़-छाड़      दरारे-नक़ाब   से


पर्दा   किए  हुए  हैं    ज़माने  से    आजकल

लेकिन  न  बच  सके  वो  तिलिस्मे-सराब  से



ज़र्रों  की   अहमियत    जनाब  भूल  गए  हैं

जबसे  मिले    ख़्याल   किसी  आफ़ताब  से



यूं  भी  हुए  शिकारे-अना  हम  विसाल  में

मस्ला  सुलझ  सका  न  किसी  भी  किताब  से



ख़ुद  का  रहे  ख़्याल  न  सज्दे  की  फ़िक्र  हो

गर  हो  कभी    नमाज़     हमारे  हिसाब  से


उनका  निज़ाम,  उनकी  अना,  उनके  फ़ैसले

ख़ुद  को  नवाज़  दें  न  ख़ुदा  के  ख़िताब  से  !

                                                                               (2014)

                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रिश्त:-ए-अज़ान: अज़ान  का संबंध; दामन: पल्लू, संबंध;  ख़ाना-ख़राब:गृह-विहीन, भटकने वाला; मसरूर: मदमत्त; हुस्ने-शह्र: नगर का सौन्दर्य; चश्मे-ख़ुशमिज़ाज: प्रसन्न-स्वभाव नयन; अंदाज़: भाव-भंगिमा; दरारे-नक़ाब: मुखावरण की संधि, बुर्क़े में देखने के लिए खुला स्थान; पर्दा: दूरी बनाना; तिलिस्मे-सराब: मृग-मरीचिका की माया; ज़र्रों: कणों; अहमियत: महत्ता; जनाब: महोदय, श्रीमान; ख़्याल: विचार; आफ़ताब: सूर्य, प्रसिद्ध व्यक्ति; शिकारे-अना: अहंकार-पीड़ित; विसाल: साक्षात्कार; मस्ला: समस्या; किताब: धर्म-ग्रंथ अथवा न्याय की पुस्तक; सज्दे: प्रणिपात; गर: यदि; निज़ाम: शासन; अना: अहंकार; नवाज़ना: उपकृत करना, देना; ख़िताब: उपाधि, पुरस्कार ।

मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

उन्हें जीना सिखा दें !

कहीं  हम  ही  बुरे  हों,  तो  बता  दें
कहीं  ख़ुद  में  कमी  हो  तो  छुपा  दें

हमारी  बेकसी  में  क्या  नया  है
समझ  लें  तो  रक़ीबों  को  सुना  दें

चलो, ये  ही  सही, अब  आप  हमको
हमेशा  के  लिए  दिल  से  हटा  दें

हमें  मत  भूल  कर  भी  आज़माना
न  हो  ऐसा  कि  हम  करके  दिखा  दें

हुकूमत  आपकी  है,  आप  जानें
भुला  दें,  या  सभी  वादे  निभा  दें

न  चाहें  नूर  से  गर  सामना  तो
चराग़े-दिल  हमारा  भी  बुझा  दें

 न  हों  बेज़ार  नाहक़  ज़िंदगी  से
कहें  तो  हम  उन्हें  जीना  सिखा  दें !

                                                              (2014)

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: बेकसी: असहायता; रक़ीबों: प्रतिद्वंदियों; नूर: प्रकाश, आत्म-बोध; गर: यदि; चराग़े-दिल: हृदय-दीप; बेज़ार: हतोत्साह, निराश; नाहक़: निरर्थक, व्यर्थ ।

सोमवार, 22 दिसंबर 2014

उम्मीदें सुब्हे-नौ की...


ख़ुदा को तूर ने रोका नहीं है
मगर अब मोजज़ा होता नहीं है

हमारा दिल किया वो: चाहता है
जहां ने जो कभी सोचा नहीं है

ग़लत है ख़्वाब पर क़ब्ज़ा जमाना
हमारे बीच यह सौदा नहीं है

हमारे दौर की मुश्किल यही है
कि इंसां टूट कर रोता नहीं है

बना है बाग़बां जो इस चमन का
दरख़्ते-गुल कहीं बोता नहीं है

कभी बा-ज़र्फ़ इंसां बेकसी में
तवाज़ुन ज़ेह्न  का खोता नहीं है

किए थे शाह ने वादे हज़ारों
भुलाना क्या उन्हें धोखा नहीं है ?

बचा रखिए उमीदें सुब्हे-नौ की
मुक़द्दर हिज्र में सोता नहीं है

चुकाना चाहते थे क़र्ज़ दिल का
हमारे पास अब मौक़ा नहीं है !

                                                                     (2014)

                                                              -सुरेश स्वप्निल 

शब्दार्थ: तूर: मिस्र का एक मिथकीय पर्वत, जहां हज़रत मूसा अ.स. ने ख़ुदा की एक झलक देखी थी; मोजज़ा: चमत्कार; क़ब्ज़ा: आधिपत्य; बाग़बां: माली; चमन: उद्यान; दरख़्ते-गुल: पुष्प-वृक्ष; बा-ज़र्फ़: गंभीर, धैर्यवान; बेकसी: असहायता; तवाज़ुन: संतुलन; ज़ेह्न: मस्तिष्क; सुब्हे-नौ: नया प्रभात; मुक़द्दर: भाग्य; हिज्र: वियोग । 

शनिवार, 20 दिसंबर 2014

ख़ुदा की हैसियत पाना...

तड़पना  और  तड़पाना  किसे  अच्छा  नहीं  लगता
ग़रीबों  पर  सितम  ढाना  किसे  अच्छा  नहीं  लगता

ज़रा-सी  ही  जहालत  में  कई  घर  टूट  जाते  हैं
मगर  अफ़वाह  फैलाना  किसे  अच्छा   नहीं  लगता

जहां  पर  मैकदे  में  वाइज़ों  को  मुफ़्त  मिलती  हो
वहां  मदहोश  हो  जाना  किसे  अच्छा  नहीं  लगता

अजब  क्या  है  सियासतदां  अगर  ज़रदार  हो  जाएं
वतन  को  लूट  कर  खाना  किसे  अच्छा  नहीं  लगता

हज़ारों  बार  लुट  कर  भी  वफ़ा  का  हाथ  थामे  हैं
हमारे  ख़्वाब  में  आना   किसे  अच्छा  नहीं  लगता

हमारी  साफ़गोई  से  भले  ही  कांप  जाते  हों
हमें  कमज़र्फ़  बतलाना  किसे  अच्छा  नहीं  लगता

बिछा  है  शाह  क़दमों  के  तले  सरमाएदारों  के 
मगर  ख़ुद्दार  कहलाना  किसे  अच्छा  नहीं  लगता

लुटाते  जा  रहे  हैं  बाप  की  दौलत  समझ  कर  सब
ख़ुदा  की  हैसियत  पाना  किसे  अच्छा  नहीं  लगता !

                                                                                              (2014)

                                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सितम: अत्याचार; जहालत: बुद्धिहीनता, अ-विवेक; मैकदे: मदिरालय; वाइज़ों: धर्मोपदेशकों; सियासतदां: राजनेता; 
ज़रदार: स्वर्णशाली, समृद्ध; वफ़ा: निष्ठा; साफ़गोई: स्पष्टवादिता; कमज़र्फ़: अ-गंभीर; तले: नीचे; सरमाएदारों: पूंजीपतियों; 
ख़ुद्दार: स्वाभिमानी; हैसियत: प्रास्थिति ।

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

मेरी परेशानी !


उन्हें  मेरी    परेशानी   समझ  में  आ  नहीं   सकती
निगाहों  की  पशेमानी  समझ  में  आ  नहीं  सकती

ख़ुदा  के  नाम  पर   तुमने    फ़रिश्ते  क़त्ल  कर  डाले
ख़ुदा  को   ही  ये  क़ुर्बानी  समझ  में  आ  नहीं  सकती

उन्हें   आज़ाद   रहने    दो   अगर   परवाज़   प्यारी है
परिंदों  को  निगहबानी   समझ  में  आ  नहीं   सकती

इसे   अब  कुफ़्र  कहिए,   जब्र  कहिए  या  ख़ता  कहिए
हमें    ये   चाल   शैतानी    समझ  में  आ  नहीं   सकती

जिन्हें  पाला  कभी  तुमने  उन्हीं  ने   घर  जला  डाला
तुम्हारी  आज   हैरानी   समझ  में    आ  नहीं  सकती

जिन्हें  फ़िरक़ापरस्ती  से  मिला   हो  शाह  का  रुतबा
उन्हीं  की  फ़िक्रे-बेमानी  समझ  में  आ  नहीं  सकती

ज़ुबां  पर   ज़ह्र  हो   जिनकी   नज़र  में  वहशतें  तारी
उन्हें   इस्लाहे-क़ुर'आनी   समझ  में  आ  नहीं  सकती

ख़ुदा  के  नूर  से  ख़ाली    तुम्हारे    मीरवाइज़  को
हमारी  सुर्ख़  पेशानी  समझ  में  आ  नहीं  सकती !

                                                                                   (2014)

                                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: पशेमानी: लज्जा; फ़रिश्ते: देवदूत; क़ुर्बानी: बलि; परवाज़: उड़ान; निगहबानी: सतर्कता; कुफ़्र: अधर्म; जब्र: बलात् कृत्य; 
ख़ता: अपराध; चाल: षड्यंत्र; दानवी; हैरानी: आश्चर्य; फ़िरक़ापरस्ती: सांप्रदायिकता; रुतबा: पद; फ़िक्रे-बेमानी: निरर्थक, दिखावे की चिंता; ज़ह्र: विष; वहशतें: क्रूरता; तारी: प्रच्छन्न; इस्लाहे-क़ुर'आनी: पवित्र क़ुर'आन का मार्गदर्शन; नूर: प्रकाश; मीरवाइज़: प्रधान धर्मोपदेशक; सुर्ख़: उत्तप्त, उज्ज्वल; पेशानी: भाल। 

बुधवार, 3 दिसंबर 2014

हमदम से हारे हैं !

हम  जब  भी  हारे,  मौसम  से  हारे  हैं
बिछड़े  अपनों  के  मातम  से  हारे  हैं

सहमे-सहमे    से    लगते  हैं  दरवाज़े
मेहमानों  के    रंजो-ग़म  से   हारे   हैं

गुलदस्तों  से,  पुरसिश  से,  हमदर्दी  से
दिल  के  ज़ख्म  कभी  मरहम  से  हारे  हैं ?

अपने-अपने     क़िस्से  हैं      रुसवाई  के 
हम  भी  तो  अक्सर  हमदम से  हारे  हैं !

गुमगश्ता  हैं  ख़्वाब  सफ़र  की  गर्दिश  में
तक़दीरों   के    पेचो - ख़म  से     हारे  हैं

कितने  ही    सरमायादारों   के     लश्कर 
मेहनतकश  हाथों   के    दम  से   हारे  हैं

ताजिर  आदमख़ोर  लहू  पी  जाते  हैं
ग़ुरबा  इस  क़ातिल  आलम  से  हारे  हैं !
                                                                           
                                                                                    (2014) 

                                                                           -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: मातम: शोक; रंजो-ग़म: खेद और दुःख; पुरसिश: पूछताछ; हमदर्दी: सहानुभूति; रुसवाई: अपमान; हमदम: साथी; 
गुमगश्ता: भटके हुए;  गर्दिश: भटकाव; पेचो - ख़म: मोड़ और जटिलता; सरमायादारों: पूंजीपतियों; लश्कर: सेनाएं; 
ताजिर: व्यापारी; आदमख़ोर: नरभक्षी; ग़ुरबा: निर्धन (बहुव.); आलम: परिस्थिति । 

सोमवार, 1 दिसंबर 2014

शाह का फ़र्ज़ी करिश्मा...

न  दिल  टूटे  न  दीवारें  तो   वो   क्या  था  जो  टूटा  है
सियासत    के   दयारों   में    भरोसा   था  जो  टूटा  है

हवाएं   रो  रही  हैं,    चांद  भी   कुछ    ग़मज़दा-सा  है
किसी   मासूम  बच्चे  का    खिलौना  था   जो  टूटा  है

अदावत  भी  तुम्हीं  ने  की,  शिकायत  भी  तुम्हीं  को  है
तुम्हारा  दिल   सलामत  है,  हमारा  था   जो   टूटा   है

हमारा   दिल    दिखाते  घूमते  थे    आप    दुनिया   में
उसी  से   आपका  भी  तो    गुज़ारा   था,   जो   टूटा  है

न   मंहगाई   हुई  है  कम,  न  ज़र  ही   हाथ  में  आया
तुम्हारे  शाह  का    फ़र्ज़ी    करिश्मा  था,   जो  टूटा  है

हमें  वो    ग़र्क़   कर  देता,    अगर  मौक़ा  मिला  होता
कहीं   तूफ़ान   के   दिल   में   इरादा  था,    जो  टूटा  है

निज़ामे-हिंद    पर     क़ाबिज़     फ़रेबी   हैं,   लुटेरे  हैं
ख़ुदा  पर  हर  किसी  को  ही  अक़ीदा  था  जो  टूटा  है !

                                                                                             (2014)

                                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:  दयारों: नगरों; ग़मज़दा: शोकग्रस्त; अदावत: शत्रुता; गुज़ारा: निर्वाह; फ़र्ज़ी: छलपूर्ण; करिश्मा: चमत्कार; ग़र्क़: जलमग्न; 
इरादा: संकल्प; निज़ामे-हिंद: भारत की व्यवस्था; क़ाबिज़: आधिपत्य में; फ़रेबी: कपटी; अक़ीदा: विश्वास, आस्था ।