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बुधवार, 15 जनवरी 2014

... ख़ंजर नहीं मिले !

इक  हम  हैं,  हमें  दोस्तों  के  घर  नहीं  मिले
इक  वो:  हैं,  जिन्हें  वक़्त  पे  ख़ंजर  नहीं  मिले

क्यूं  कर  न  मुक़दमा-ए-हत्क  हो  हुज़ूर  पर
दावत  की  बात  कह  के  वक़्त  पर  नहीं  मिले

शाहों  से  मुलाक़ात  हुई  जब  कभी  कहीं
दुनिया  गवाह,  हम  कभी  झुक  कर  नहीं  मिले

नाबीना    आईनों   के     ख़रीदार    हो  गए
बीनाईयों  को   हुस्न  के  मंज़र  नहीं  मिले 

जम्हूरे-हिंद  हो  के:  निज़ामे-अमेरिका
इंसान  ख़ासो-आम  बराबर  नहीं  मिले

जन्नत  से  लौट  आए  मियां  शैख़  तश्न: लब
हूरों  के  यां  शराब-ओ-साग़र  नहीं  मिले

इल्ज़ामे-कुफ़्र  रिंद  पे  आयद  न  हो  सका
का'बे  में  उसे  लोग  मुनव्वर  नहीं  मिले !

                                                                     ( 2014 )

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ंजर: वध के काम आने वाली क्षुरी; मुक़दमा-ए-हत्क : मानहानि का वाद; नाबीना: दृष्टि-हीन; बीनाई: सौन्दर्य समझ सकने वाली दृष्टि; हुस्न  के  मंज़र : सौन्दर्य के दृश्य;  जम्हूरे-हिंद: भारत गणराज्य;  निज़ामे-अमेरिका: अमेरिका का राज्य; ख़ासो-आम: विशिष्ट और साधारण;  शैख़: धर्मोपदेशक; तश्न: लब: प्यासे होंठ; हूरों: अप्सराओं; यां: यहां, स्थान में, घर में; इल्ज़ामे-कुफ़्र: नास्तिकता का आरोप; 
रिंद: पियक्कड़; आयद: लागू; मुनव्वर: आत्मिक रूप से प्रकाशित 
का'बा: सऊदी अरब की राजधानी मक्क: शरीफ़ में एक पवित्र स्थान जिसे मुस्लिम-परंपरा में ईश्वर का घर एवं पृथ्वी का केन्द्र माना जाताहै। 

* अंतिम पंक्ति के लिए, युवा शायर भाई रामनाथ शोधार्थी का आभार।