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सोमवार, 13 जनवरी 2014

सुकूं उन्हें न हमें ...

मेरे  नसीब,  मेरी  मुफ़लिसी  की  बातों  से
निकल  गए  हैं  शबो-सहर  मेरे  हाथों  से

हमारे  हैं  तो  हर  सफ़र  में  साथ-साथ  चलें
सुकूं  उन्हें  न  हमें  चंद  मुलाक़ातों  से

मेरे  मकां  पे  कोई  रोज़  शम्'अ  रखता  है
के:  हम  न  सोए  न  जागे  हज़ार  रातों  से

कोई  बताए  कि  हम  किस  पे  ऐतबार  करें
निकलते  आ  रहे  हैं  शैख़  ख़राबातों  से

हुआ  करें  वो:  शहंशाह  बला  से  अपनी
ख़ुदा  बचाए  मेरे  रिज़्क़  को  ख़ैरातों  से

ख़ुदा  की  ज़ात  पे  हम  क्यूं  न  अक़ीदा  रक्खें
पिघल  गए  हैं  कई  कोह  मुनाजातों  से !

                                                                  ( 2014 )

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: नसीब: भाग्य, मुफ़लिसी: विपन्नता; रात्रि-प्रात:; सुकूं: संतोष; मकां: समाधि, क़ब्र, घर; ऐतबार: विश्वास; शैख़: धर्मोपदेशक; ख़राबातों: मदिरालयों; बला  से: दुर्भाग्य से; रिज़्क़: दैनिक भोजन; ख़ैरातों: दान-दक्षिणाओं; ज़ात: अस्तित्व; अक़ीदा: आस्था; कोह: पर्वत; मुनाजातों: प्रार्थनाओं।