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बुधवार, 21 नवंबर 2012

मुर्शिदों के शहर में



मुर्शिदों के    शहर में  आए  हैं
दिल तबर्रुख़    बना के  लाए हैं

मोमिनों   दाद तो  दीजो हमको
वक़्त से क़ब्ल   सफ़  लगाए हैं

रेशा- रेशा बसे हैं  रग़-रग़   में 
और  कहते  हैं  हम  पराए  हैं

कोई  तस्वीर  खेंचियो   इनकी
सौ  बरस   बाद  मुस्कुराए  हैं

हम हसीनों से  दूर ही   बेहतर
बात- बेबात   दिल जलाए   हैं 

ऐ ख़ुदा  माफ़  कीजियो  हमको 
बिन वुज़ू के  हरम में  आए हैं !

                     (2012)

                - सुरेश स्वप्निल 

शब्दार्थ:मुर्शिदों:पीरों,गुरु जनों;तबर्रुख़:प्रसाद;मोमिनों:आस्थावान,आस्तिक-जन;बधाई;वक़्त से क़ब्ल:समय से पूर्व;सफ़:पंक्ति;रेशा-रेशा:तंतुओं;रग़-रग़:मांसपेशियां;वुज़ू: नमाज़ के पूर्व की जाने वाली देह-शुद्धि;हरम:मस्जिद।