मुर्शिदों के शहर में आए हैं
दिल तबर्रुख़ बना के लाए हैं
मोमिनों दाद तो दीजो हमको
वक़्त से क़ब्ल सफ़ लगाए हैं
रेशा- रेशा बसे हैं रग़-रग़ में
और कहते हैं हम पराए हैं
कोई तस्वीर खेंचियो इनकी
सौ बरस बाद मुस्कुराए हैं
हम हसीनों से दूर ही बेहतर
बात- बेबात दिल जलाए हैं
ऐ ख़ुदा माफ़ कीजियो हमको
बिन वुज़ू के हरम में आए हैं !
(2012)
ऐ ख़ुदा माफ़ कीजियो हमको
बिन वुज़ू के हरम में आए हैं !
(2012)
- सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ:मुर्शिदों:पीरों,गुरु जनों;तबर्रुख़:प्रसाद;मोमिनों:आस्थावान,आस्तिक-जन;बधाई;वक़्त से क़ब्ल:समय से पूर्व;सफ़:पंक्ति;रेशा-रेशा:तंतुओं;रग़-रग़:मांसपेशियां;वुज़ू: नमाज़ के पूर्व की जाने वाली देह-शुद्धि;हरम:मस्जिद।