इश्क़ ख़ानाख़राब करता है
सांस लेना अज़ाब करता है
क़त्ल ग़ुन्चे भी कर गुज़रते हैं
ज़ुल्म वो वो शबाब करता है
एक ही वस्फ़ है वफ़ा का जो
दर्द को कामयाब करता है
एक चेहरा है ख़्वाब में अक्सर
ख़्वाहिशों को गुलाब करता है
जज़्ब:-ए-इश्क़ हर ज़माने में
हर अदा लाजवाब करता है
मुंह छुपाने जगह नहीं मिलती
वक़्त जब बे-नक़ाब करता है
गर ख़ुदा ज़ख़्म भर नहीं सकता
तो तलब क्यूं जवाब करता है ?
(2016)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: ख़ानाख़राब: गृह-विमुख; अज़ाब: पाप, श्राप समान; ग़ुन्चे: कलियां; ज़ुल्म: अत्याचार; शबाब: यौवन; वस्फ़: चारित्रिक गुण; वफ़ा: निष्ठा; कामयाब: सफल; ख़्वाहिशों: इच्छाओं; जज़्ब:-ए-इश्क़: प्रेम की भावना; तलब:मांगना।
सांस लेना अज़ाब करता है
क़त्ल ग़ुन्चे भी कर गुज़रते हैं
ज़ुल्म वो वो शबाब करता है
एक ही वस्फ़ है वफ़ा का जो
दर्द को कामयाब करता है
एक चेहरा है ख़्वाब में अक्सर
ख़्वाहिशों को गुलाब करता है
जज़्ब:-ए-इश्क़ हर ज़माने में
हर अदा लाजवाब करता है
मुंह छुपाने जगह नहीं मिलती
वक़्त जब बे-नक़ाब करता है
गर ख़ुदा ज़ख़्म भर नहीं सकता
तो तलब क्यूं जवाब करता है ?
(2016)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: ख़ानाख़राब: गृह-विमुख; अज़ाब: पाप, श्राप समान; ग़ुन्चे: कलियां; ज़ुल्म: अत्याचार; शबाब: यौवन; वस्फ़: चारित्रिक गुण; वफ़ा: निष्ठा; कामयाब: सफल; ख़्वाहिशों: इच्छाओं; जज़्ब:-ए-इश्क़: प्रेम की भावना; तलब:मांगना।