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सोमवार, 30 दिसंबर 2013

...साहिल की तरह !

देखो  न  हमें  क़ातिल  की  तरह
डर  जाएं  क्या  बुज़दिल  की  तरह

वो:  ख़्वाब  में  अक्सर  आते  हैं
ढूँढा  था  जिन्हें  मंज़िल  की  तरह

दिल  की  क़ीमत  ईमान  है  क्या
बहको  न  किसी  ग़ाफ़िल  की  तरह

तूफ़ान       हज़ारों       हार  गए
मौजूद  हैं  हम  साहिल  की  तरह

क्या   ख़ाक  मुहब्बत   की  तुमने
तड़पा  न  किए  बिस्मिल  की  तरह

कैसे   जाने    दें      तुम  ही  कहो
आए  हो  दुआ-ए-दिल  की  तरह

रखते  हैं  ख़ुदी  कुछ  तो   हम  भी
तोड़ो  न   दिल-ए-साइल  की  तरह !

                                                       ( 2013 )

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: क़ातिल: वधिक; बुज़दिल: कायर; ईमान: आस्था; ग़ाफ़िल: भ्रमित; साहिल: किनारा; बिस्मिल: घायल;  
दुआ-ए-दिल: हृदय की प्रार्थना; ख़ुदी: स्वाभिमान; दिल-ए-साइल: याचक का हृदय।


रविवार, 29 दिसंबर 2013

न मुस्कुराओ गुनाह करके !

किसी  के  दिल  को  तबाह  करके
न     मुस्कुराओ      गुनाह  करके

चलो  यह  माना   जफ़ा  नहीं  की
कहो      ख़ुदा  को    गवाह  करके

हमें   फ़लक  पर   बिठा  दिया  है
सहर    ने     ज़ेरे-पनाह     करके

न  क़ाफ़िया   न  बहर  मुकम्मल
मिलेगा   क्या    वाह  वाह  करके

किसी  पे  मिटना   ख़ता  नहीं  है
चलो  न    नीची   निगाह   करके

किया  है   दुश्मन  को  आश्ना  गर
दिखाइए  अब     निबाह     करके

ख़ुदा  को  क्या  मुंह  दिखाएंगे  वो:
जिए  जो  रू:  को  सियाह  करके  !

                                              ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जफ़ा: बेईमानी; फ़लक: आकाश; सहर: उषः काल; ज़ेरे-पनाह: शरणागत; क़ाफ़िया : शे'र की दूसरी पंक्ति में  अंतिम से पूर्व का शब्द; बहर: छंद; मुकम्मल: परिपूर्ण; ख़ता : दोष, अपराध; आश्ना: मित्र,साथी; गर: यदि; रू:: आत्मा; सियाह: काला।

गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

ग़ालिब …ग़ालिब … सिर्फ़ ग़ालिब !

उर्दू शायरी के पीराने-पीर, अज़ीम-तरीन शाहकार हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब ( 27 दिस. 1797- 15 फ़र.1869 ) का आज 216 वां यौमे-पैदाइश है। उनके लिए ख़ेराजे-अक़ीदत के तौर पर उन्हीं की एक बेहद मक़बूल ग़ज़ल आज आपके लिए पेश है, मुलाहिज़ा फ़रमाएं:

यह  न  थी  हमारी  क़िस्मत  कि  विसाल-ए-यार  होता
अगर  और  जीते  रहते,  यही  इंतिज़ार  होता

तिरे  वा'दे  पर  जिए  हम  तो  यह  जान,  झूठ  जाना
कि  ख़ुशी  से  मर  न  जाते,  अगर  ए'तबार  होता

तिरी  नाज़ुकी  से  जाना  कि  बंधा  था  'अहद  बोदा
कभी  तू  न  तोड़  सकता,  अगर  उस्तुवार  होता

कोई  मेरे  दिल  से  पूछे,  तिरे  तीरे-नीमकश  को
यह  ख़लिश  कहाँ  से  होती,  जो  जिगर  के  पार  होता

यह  कहाँ  की  दोस्ती  है, कि  बने  हैं  दोस्त, नासेह
कोई  चार: साज़  होता,  कोई  ग़म-गुसार  होता

रग-ए-संग  से  टपकता,  वह  लहू,  कि  फिर  न  थमता
जिसे  ग़म  समझ  रहे  हो,  यह  अगर  शरार  होता

ग़म  अगरचे:  जाँ गुसिल  है,  प'  कहाँ  बचें,  कि  दिल  है
ग़म-ए-इश्क़  गर  न  होता,  ग़म-ए-रोज़गार  होता

कहूँ  किससे  मैं  कि  क्या  है,  शबे-ग़म  बुरी  बला  है
मुझे  क्या  बुरा  था  मरना,  अगर  एक  बार  होता

हुए  मरके  हम  जो  रुस्वा,  हुए  क्यों  न  ग़र्क़े-दरिया
न  कभी  जनाज़:  उठता  न  कहीं  मज़ार  होता

उसे  कौन  देख  सकता,  कि  यगान:  है  वह  यकता
जो  दुई  की  बू  भी  होती,  तो  कहीं  दुचार  होता

यह  मसाइल-ए-तसव्वुफ़,  यह  तिरा  बयान,  ग़ालिब
तुझे  हम  वली  समझते,  जो  न  बाद: ख़्वार  होता

                                                                     -मिर्ज़ा  असद उल्लाह  ख़ां  'ग़ालिब'

शब्दार्थ: विसाल-ए-यार: पिया-मिलन; वा'दे: वचन; ए'तबार: विश्वास; 'अहद: प्रतिज्ञा, वचन; बोदा: कच्चा; उस्तुवार: दृढ़, पुष्ट; तीरे-नीमकश: आधा खिंचा हुआ तीर; ख़लिश: खटक, चुभन; नासेह: उपदेशक; चार: साज़: उपचारक; ग़म-गुसार: हितैषी, 
दुःख का सहभागी; रग-ए-संग: पत्थर की नस; शरार: चिंगारी; जाँ गुसिल: जानलेवा, प्राणघातक; ग़म-ए-इश्क़: प्रेम का दुःख; ग़म-ए-रोज़गार: आजीविका का दुःख;   शबे-ग़म: दुःख की निशा; रुस्वा: अपमानित; ग़र्क़े-दरिया: नदी या पानी में डूबा; जनाज़: : अर्थी; मज़ार: समाधि; यगान: : अनुपम; यकता: अद्वितीय; दुई: द्वैत; दुचार: दो-चार, आमने-सामने; मसाइल-ए-तसव्वुफ़: भक्ति की समस्याएं; बयान: वर्णन; वली: ऋषि, ज्ञानी; बाद: ख़्वार: मद्यप।

बुधवार, 25 दिसंबर 2013

ख़ुदा नहीं हैं वो: !

जानते  हैं    ख़फ़ा  नहीं  हैं  वो:
बस  ज़रा  बेवफ़ा  नहीं  हैं  वो:

दोस्त  हैं  हम  उन्हें  मना  लेंगे
आपका   मुद्द'आ  नहीं  हैं  वो:

दुश्मने-जां  नहीं  मगर  फिर  भी
दर्दे-दिल  की  दवा  नहीं  हैं  वो:

आसमां  का  निज़ाम  क़ायम  है
रास्ते  से    जुदा     नहीं  हैं  वो:

आतिशे-ख़ूं  रवां  हैं  रग़  रग़  में
सिर्फ़    रंगे-हिना   नहीं  हैं  वो:

पीर  हैं   बादशाह  हैं   सब  हैं
गो  हमारे  ख़ुदा  नहीं  हैं  वो: !

आज  शायद  ग़ज़ल  न  हो  पाए
आज  जल्व: नुमा  नहीं  हैं  वो : !

                                                  ( 2013 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़फ़ा: रुष्ट; बेवफ़ा: बे-ईमान, निर्वाह न करने वाला; मुद्द'आ: विषय; दुश्मने-जां: प्राण का शत्रु; दर्दे-दिल: हृदय की पीड़ा; आसमां: ब्रह्माण्ड; निज़ाम: व्यवस्था;   क़ायम: नियमित, सुचारु; आतिशे-ख़ूं: रक्त की ऊष्मा/अग्नि; प्रवाहित; रग़  रग़: नस-नस;   रंगे-हिना: मेहंदी का रंग; पीर: पहुंचे हुए संत; जल्व: नुमा: प्रकट।

वो: सुबह दीजिए...!'

दोस्तों  आज  हमको  तरह  दीजिए
शाइरी  की  मुनासिब  वजह  दीजिए

मिसर:-ए-उन्सियत  दे  दिया  आपको
आप  ही  ख़ूबसूरत  गिरह  दीजिए

मर  न  जाएं  कहीं  हिज्र  में  आपके
दीजिए  तो  दुआ  बेतरह  दीजिए

तज़्किराते-मसाइल-ए-इंसां  में  अब
जज़्ब:-ए-फ़ाक़ाकश  को  जगह  दीजिए

रौशनी  जिसकी  क़ायम  अज़ल  तक  रहे
ज़िंदगी  को  कभी  वो:  सुबह  दीजिए

ज़ात-ओ-मज़्हब  के  हर  दायरे  से  परे
रहबरों  को  नई  इक  निगह  दीजिए

जल्व:गर  हो  न  जाएं  सरे-बज़्म  वो:
नज़्रे-मैकश  को  ज़र्फ़े-क़दह  दीजिए  !

                                                         ( 2013 )

                                                   -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: तरह: शे'र की एक  पंक्ति, ऐसी पंक्ति जिस पर शे'र कहा जा सके; मुनासिब  वजह: उचित  कारण; मिसर:-ए-उन्सियत: स्नेह-पूर्ण पंक्ति; गिरह: शे'र की दूसरी पंक्ति, ऐसी पंक्ति जिसे सम्मिलित करके शे'र पूरा हो सके; हिज्र: अनुपस्थिति, वियोग; दुआ: शुभकामना; 
बेतरह: जम कर, बहुत अधिक; तज़्किराते-मसाइल-ए-इंसां: मनुष्य की समस्याओं पर चर्चा; जज़्ब:-ए-फ़ाक़ाकश: भूखे रह कर जीने वाले लोगों की भावना; क़ायम: स्थापित; अज़ल: मृत्यु, प्रलय; ज़ात-ओ-मज़्हब: जाति और धर्म; जल्व:गर: प्रकट, दृश्यमान; सरे-बज़्म:भरी सभा में; नज़्रे-मैकश: मद्यप की दृष्टि, दर्शन-रूपी मदिरा पीने वाले की दृष्टि; ज़र्फ़े-क़दह:पात्र संभालने का साहस 

मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

दिन बदल गए !

ऐसा   करम   हुआ    के:  मेरे  दिन  बदल  गए
किसकी  लगी  दुआ  के:  मेरे  दिन  बदल  गए

दुश्मन  ने   मेरा  नाम   ज़ेहन  से  मिटा  दिया
कैसी   हुई     ख़ता    के:  मेरे  दिन  बदल  गए

बदलीं   ज़रूर   कुछ  तो   ज़माने  की   निगाहें
जिस दिन अयां हुआ  के:  मेरे  दिन  बदल  गए

हिर्सो-हवस    हो     के:   तेरा    अंदाज़े-गुफ़्तगू
सब  कुछ  बदल  गया  के:  मेरे  दिन  बदल  गए

अब  भी   वही  हूं  मैं    तेरे  दर  पर  पड़ा  हुआ
किस बात की  अना  के:  मेरे  दिन  बदल  गए

मोहसिन   कहें    हबीब   कहें    या   ख़ुदा  कहें
वो: दिल  में आ बसा के:  मेरे  दिन  बदल  गए

उस  नूरे-इलाही  में     अक़ीदत  की    बात  है
ज़ानू  से  सर  लगा  के:  मेरे  दिन  बदल  गए  !

                                                                    ( 2013 )

                                                             -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: करम: कृपा; दुआ: शुभकामना; ज़ेहन: मनोमस्तिष्क; ख़ता: अपराध, दोष; अयां: स्पष्ट; हिर्सो-हवस: लोभ-लालच; 
अंदाज़े-गुफ़्तगू: बातचीत की शैली; अना: अहंकार; मोहसिन: अनुग्रह करने वाला; हबीब: प्रेमी, शुभचिंतक; 
नूरे-इलाही: ईश्वरीय प्रकाश, ईश्वर का आभा-मंडल; अक़ीदत: आस्था; ज़ानू: घुटना। 

सोमवार, 23 दिसंबर 2013

तेरी क़ुर्बत के लिए ...!

मौत  ने  जीना  हमारा  और  आसां  कर  दिया
फिर  दरे-मेहबूब  पर  सज्दे  का  सामां  कर  दिया

हूं  बहुत  मज़्कूर  मैं  उस  हुस्ने-शामो-सहर   का
जिसने  मेरी  अंजुमन  को  रश्क़े-रिज़्वां  कर  दिया

शुक्रिया  अय  दोस्त  तेरा  रहनुमाई  के  लिए
तूने  मेरी  हर  दुआ  को  गुहरे-मिश्गां  कर  दिया

और  क्या  करते  भला  हम  बंदगी  के  नाम  पर
तेरी  क़ुर्बत  के  लिए  ईमान  क़ुर्बां  कर  दिया

पुर्सिशों  से  ज़ल्ज़ला  सा  आ  गया  घर  में  मेरे
लज़्ज़ते-गिरिय:  ने  हमको  फिर  पशेमां  कर  दिया

फिर  किसी  ने  ख़ुल्द  में  दिल  से  पुकारा  है  हमें
फिर  मेरे  दर्दे-निहां  को  राहते-जां  कर  दिया

बेख़याली  बदगुमानी  बदनसीबी  सब  यहीं
ज़िंदगी  दे  कर  ख़ुदा  ने  ख़ाक  एहसां  कर  दिया  !

                                                                       ( 2013 )

                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आसां: आसान, सरल; दरे-मेहबूब: प्रिय/ईश्वर का द्वार ; सज्दे  का  सामां: पृथ्वी पर सिर झुका कर प्रणाम करने का प्रबंध; 
मज़्कूर: शुक्रगुज़ार, आभारी; हुस्ने-शामो-सहर: संध्या और उषा का सौंदर्य; अंजुमन: सभा; रश्क़े-रिज़्वां: रिज़वान, जन्नत का प्रहरी की ईर्ष्या का कारण; रहनुमाई: मार्गदर्शन; गुहरे-मिश्गां: पलकों के मोती, अश्रु; बंदगी: भक्ति; क़ुर्बत: निकटता;   ईमान: आस्था; क़ुर्बां: बलिदान; पुर्सिश: हाल पूछना;  ज़ल्ज़ला: भूकम्प; लज़्ज़ते-गिरिय: : रोने का आनंद; पशेमां: लज्जित, अवमानित;  ख़ुल्द: स्वर्ग; दर्दे-निहां: अंतर्मन की पीड़ा; राहते-जां: प्राणाधार; बेख़याली: अन्यमनस्कता; बदगुमानी: दूसरों की कु-धारणाएं; बदनसीबी: दुर्भाग्य; 
ख़ाक: व्यर्थ, धूल के समान; एहसां: एहसान, अनुचित कृपा।

शनिवार, 21 दिसंबर 2013

बहारों के कर्ज़दार...!

तेरी   नज़रों   में      ऐतबार  नहीं
तू  मेरी बज़्म  का  किरदार  नहीं

ये:   ख़िजाएं    क़ुबूल    हैं  हमको
हम   बहारों   के   कर्ज़दार    नहीं

ख़ास  एहबाब की  नशिस्त  है  ये:
आप  फ़ेहरिस्त   में  शुमार  नहीं

सौदा-ए-दिल    सुकून  में  कीजे
ये:   तिजारत   सरे-बाज़ार  नहीं

लोग     डरते   हैं   कामयाबी  से
मरहले   इश्क़  के    दुश्वार  नहीं

आ  किसी  और  शहर  चलते  हैं
यां  कोई  आज   ग़मगुसार  नहीं

शोर  करते  हैं  जो  वफ़ाओं  का
वो:  शबे-ग़म  के  राज़दार  नहीं !

                                           ( 2013 )

                                    -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ऐतबार: विश्वास; बज़्म: गोष्ठी; किरदार: चरित्र; ख़िजाएं: पतझड़; ऋणी; ख़ास  एहबाब: विशिष्ट मित्र-गण; 
नशिस्त: सभा, गोष्ठी;   फ़ेहरिस्त: सूची;   शुमार: सम्मिलित, गण्य; सौदा-ए-दिल: हृदय का लेन-देन; सुकून: निश्चिंतता; 
तिजारत: व्यापार; सरे-बाज़ार: बीच बाज़ार; मरहले: पड़ाव;  दुश्वार: कठिन; यां: यहां; ग़मगुसार: दुःख में सांत्वना देने वाला; 
शबे-ग़म: दुःख की निशा;  राज़दार: रहस्य में भागीदार। 

गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

ख़ुशफ़हमी सा सस्ता !

अपने  अंदर  बच्चा  रह
गुरबानी-सा  सच्चा  रह

तूफ़ां   है    पतवार  उठा
गिर्दाबों  से   लड़ता  रह

तालाबों में  रुकना  क्या
दरिया-जैसा  बहता  रह

सहरा  में  शबनम बनके
सारी  रात   बरसता  रह

जिन्सों  की   मंहगाई  में
ख़ुशफ़हमी सा  सस्ता रह

उर्फ़    हिमाला    है  तेरा
मक़सद मक़सद ऊंचा रह

मुफ़लिस  है  लाचार  नहीं
सजता  और  संवरता  रह  !

                                           ( 2013 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: गुरबानी: सिखों का धर्म-ग्रंथ, गुरु की वाणी; गिर्दाब: भंवर; सहरा: मरुस्थल; 
शबनम: ओस; जिन्स: वस्तु; उर्फ़: प्रचलित नाम; मक़सद: उद्देश्य; मुफ़लिस: निर्धन।


रूह रौशन-ख़याल

पेश   हक़  का   सवाल  है  यारों
वक़्त    शर्मिंद:  हाल    है  यारों

ख़ुदकुशी कर गए कितने अनवर
क्या किसी  को  मलाल  है  यारों

कौन मुंसिफ़ है  कौन है मुजरिम
ये:    सियासत   कमाल  है  यारों

दाल-रोटी   तलक    नसीब  नहीं
क़ीमतों    में    उछाल    है  यारों

हर  तरफ़    बेबसी  के   साये  हैं
मुल्क  यूं    बेमिसाल    है  यारों

रहनुमा  से   सवाल  क्या  कीजे
कौन  किसका   दलाल  है  यारों

क्या  हुआ  जो  ग़रीब  घर  से  हैं
रूह    रौशन - ख़याल     है  यारों  !

                                             ( 2013 )

                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: पेश: सम्मुख, प्रस्तुत; हक़: न्याय; शर्मिंद:  हाल: लज्जित स्थिति में; ख़ुदकुशी: आत्म-हत्या; अनवर: मरहूम कॉमरेड 
ख़ुर्शीद अनवर साहब, जिन्होंने ग़लत आरोप से दुःखी हो कर कल, यानी 18 दिस. 2013 को ख़ुदकुशी कर ली; मलाल: दुःख, खेद; 
मुंसिफ़: न्यायाधीश; मुजरिम: अपराधी;   नसीब: उपलब्ध; बेमिसाल: अद्वितीय; रहनुमा: नेता; रौशन - ख़याल: सुविचारों से प्रकाशित। 

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

ज़रा ज़िंदगी ही सही !

दिल्लगी  है  तो  ये:   दिल्लगी  ही  सही
आज  के  दिन  तुम्हारी  ख़ुशी  ही  सही

हम  न छोड़ेंगे  दामन  ख़ुदा  की  क़सम
ज़िद  हमारी  नहीं  तो  किसी  की  सही

दिल  चुरा लाए  हैं   बिन  कहे   आपका
ख़्वाब  में  एक  दिन  बदज़नी  ही  सही

हिज्र   ही   है   इलाजे-ग़मे-दिल   अगर
इस    मुदावात    में    बेरुख़ी   ही  सही

इन्क़िलाबी    हवाएं      मचलने   लगीं
मुल्क  में  इन दिनों  ख़लबली ही  सही

दस्तबस्ता     खड़े  हैं    तेरी  बज़्म  में
इश्क़  हो   या  न  हो    बंदगी  ही  सही

हैं  अगरचे  ख़फ़ा  वो:  ग़ज़ल   पे  मेरी
चंद   अल्फ़ाज़  की  ख़ुदकुशी  ही  सही

लौट  आए  हैं  ये:  सोच कर  ख़ुल्द  से
साथ    तेरे   ज़रा    ज़िंदगी    ही  सही  !

                                                    ( 2013 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दिल्लगी: परिहास; दामन: आंचल, साथ; बदज़नी: बुरा काम; हिज्र: वियोग; इलाजे-ग़मे-दिल: हृदय के दु:ख का उपचार; 
मुदावात: चिकित्सा-क्रम; बेरुख़ी: उपेक्षा; इन्क़िलाबी: क्रांतिधर्मा; दस्तबस्ता: कर बद्ध; बज़्म: सभा; बंदगी: भक्ति; अगरचे: यदि कहीं; 
ख़फ़ा: रुष्ट; चंद  अल्फ़ाज़: कुछ शब्द; ख़ुदकुशी: आत्मनाश; ख़ुल्द: स्वर्ग। 

सोमवार, 16 दिसंबर 2013

हैं गुनहगार हम ...

हैं  गुनहगार   हम    ज़माने  के
वक़्त  को   आइना  दिखाने  के

आपको  कुछ  गिला  नहीं  हमसे
खेल  हैं  ये:    महज़    सताने  के

रूठ  जाएं    मगर     ख़याल  रहे
हम  भी   उस्ताद  हैं   मनाने  के

मश्क़   करते  रहें    निभाने  की
दिन  मुबारक   क़रीब  आने  के

दर्द  दिल  के  सहेज  कर  रखिए
ये:   नहीं   बज़्म  को  सुनाने  के

कीजिए  कुछ  जतन  मियां  वाइज़
मैकदे   में     हमें       बुलाने  के

बुत    हमारा     बना  रहे  हैं   वो:
जो  मुहाफ़िज़  हैं  क़त्लख़ाने  के  !

                                               ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: गुनहगार: अपराधी; गिला: आक्षेप; महज़: मात्र; मश्क़: अभ्यास; मुबारक: शुभ हों; बज़्म: सभा, गोष्ठी; 
जतन: यत्न; वाइज़: धर्मोपदेशक; मदिरालय; बुत: मूर्त्ति; मुहाफ़िज़: संरक्षक; क़त्लख़ाना: वध-गृह। 

बारिशे-जज़्बात... !

अल्फ़ाज़  में  वो:  बात  नज़र  आती  नहीं  हमें
राहत  की   नर्म  रात    नज़र  आती  नहीं  हमें

हसरत  से     देखते  हैं     आजकल   दरे-हबीब
उम्मीदे- मुलाक़ात       नज़र   आती  नहीं  हमें

मग़रिब  हुई  के:  बुझ  गए  दिल  के  सभी  चराग़
अब    नूर  की  सौग़ात   नज़र  आती  नहीं  हमें

वो:    सोज़े - आशनाई   में    भीगे    हुए  ख़याल
वो:    बारिशे-जज़्बात    नज़र   आती  नहीं  हमें

इस    दौरे-मुश्किलात    की   रुस्वाइयों  से  अब
आसां     रहे - निजात    नज़र   आती  नहीं  हमें

लड़ते     रहेंगे     ज़ौरो - जब्र    के     निज़ाम  से
जब  तक  के:  तेरी  मात  नज़र  आती  नहीं  हमें

मुद्दत    से     मुंतज़िर   हैं     कोहे-तूर  पे    मगर
जल्वों  की     करामात     नज़र  आती  नहीं  हमें  !

                                                                    ( 2013 )

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अल्फ़ाज़: शब्द (बहु.); दरे-हबीब: प्रिय का द्वार; उम्मीदे- मुलाक़ात: भेंट की आशा; मग़रिब: सूर्यास्त; 
नूर  की  सौग़ात: प्रकाश का उपहार; सोज़े - आशनाई: स्नेह का माधुर्य;  बारिशे-जज़्बात: भावनाओं की वर्षा; 
दौरे-मुश्किलात: कठिनाइयों का समय; रुस्वाइयों: अपमानों; आसां  रहे-निजात: मुक्ति का सरल मार्ग; ज़ौरो- जब्र: अत्याचार और बलात कृत्य; निज़ाम: शासन; मुंतज़िर: प्रतीक्षारत; कोहे-तूर: अंधकार का पर्वत; जल्वों  की करामात: ( ईश्वर के ) दर्शन का चमत्कार। 


शनिवार, 14 दिसंबर 2013

मना न पाए तो ?

ज़ीस्त  में  जी  लगा  न  पाए  तो
अज़्म  अपना  बचा  न  पाए  तो

तेज़    रफ़्तार    तिफ़्ल  हैं    सारे
हम  क़दम  ही  मिला  न  पाए  तो

रूठने  का    ख़याल    जायज़  है
वक़्त  रहते   मना    न  पाए  तो

एक  तस्वीर    साथ    रख  लेते
दूर  रह  कर  भुला  न  पाए  तो

ईद  अपनी  बिगाड़िए  क्यूं  कर
वो:  गले  से  लगा  न  पाए  तो

बंदगी  का    क़रार   कर  तो  लें
आप  रिश्ता  निभा  न  पाए  तो

रात  में  जल्व: गर  न  हों  साहब
ख़्वाब  में  सर  झुका  न  पाए  तो  ?

                                                 ( 2013 )

                                          -सुरेश  स्वप्निल 


शब्दार्थ: ज़ीस्त: जीवन; अज़्म: अस्मिता; तिफ़्ल: बच्चे; जायज़: उचित, वैध; बंदगी का क़रार: भक्ति का अनुबंध; जल्व: गर: प्रकट।


शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013

अपना अपना सराब !

अपनी  अपनी  शराब  है  यारों
अपना  अपना  सराब  है  यारों

रिज़्क़  हासिल  नहीं  फ़क़ीरों  को
वक़्त    ख़ाना- ख़राब  है  यारों 

अंदलीबे-चमन  को  होश  नहीं
और  सर  पर  उक़ाब  है  यारों

ज़िंदगी  मुख़्तसर  फ़साना  है
चंद  रोज़ा    हिसाब    है  यारों

अश्क  सीने  में  जम  गए  सारे
इसलिए    इज़्तेराब   है  यारों

जांच  लीजे  क़रीब  आ  के  भी
दिल  सरासर  गुलाब  है  यारों

वो:  हमारा  ख़ुदा  नहीं  हरगिज़
उसके  रुख़  पे  हिजाब  है  यारों

शौक़  से भूल  जाइए  इसको
यूं  ग़ज़ल  लाजवाब  है  यारों !

                                            ( 2013 )

                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: सराब: मरुजल, छलावा; रिज़्क़: भोजन, दैनिक ख़ुराक़; फ़क़ीरों: भिक्षुकों, सन्यासियों; ख़ाना- ख़राब: बे-घर, भटकता हुआ; अंदलीबे-चमन: उपवन की कोयल; उक़ाब:  गरुड़, छोटे पक्षियों का शिकार करने वाला पक्षी; मुख़्तसर: संक्षिप्त;  फ़साना: मिथ्या कहानी; 
चंद रोज़ा: चार दिन का;  इज़्तेराब: व्याकुलता; रुख़: मुख;  हिजाब: आवरण। .




गुनहगार ख़ुश रहे !

इस  दौर  का  अमल  है  के:  सरकार  ख़ुश  रहे
अल्लाह    ख़ुश   रहे  न   रहे    ज़ार    ख़ुश  रहे

मरती   रहे     अवाम     अगर    भूख   से   मरे
हाकिम  है   फ़िक्रमंद    के:    बाज़ार  ख़ुश  रहे

इस  दौरे-सियासत    के    क़वायद  कमाल  हैं
कट  जाएं  सब  सिपाही  प'  सरदार  ख़ुश  रहे

एहसान   कीजिए   के:  चले  आएं    ख़्वाब  में
क्यूं  कर  न  कभी   आपका  बीमार  ख़ुश  रहे

करता  है   बंदगी  में   वफ़ा  की   अगर  उमीद
तेरा   भी   फ़र्ज़  है   के:   तलबगार    ख़ुश  रहे

क्या  तब  भी    इन्क़िलाब    ज़रूरी  नहीं  यहां
मासूम   क़ैद    में    हों    गुनहगार     ख़ुश  रहे

अब  कीजिए  अहद  के:  लौट  आएं  वही  दिन
जब  मुफ़लिसो-मज़ूर  का  घर-बार  ख़ुश  रहे  !

                                                                  ( 2013 )

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अमल: आचरण; ज़ार: रूस के निर्दयी, जन-विरोधी शासक जो 1917 की  जन-क्रांति में परास्त हुए; 
अवाम: जनता; हाकिम: शासक; फ़िक्रमंद: चिंतित; दौरे-सियासत: राजनैतिक युग;  क़वायद: नियम (बहु.);
बंदगी: भक्ति; वफ़ा: आस्था, ईमानदारी; फ़र्ज़: कर्त्तव्य; तलबगार: आशा रखने वाला; इन्क़िलाब: क्रान्ति; 
मासूम: निर्दोष; गुनहगार: अपराधी; अहद: संकल्प, प्रतिज्ञा; मुफ़लिसो-मज़ूर: निर्धन और श्रमिक-वर्ग।


गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

दावा पयम्बरी का ...!

ख़्वाब  अपना  ख़ता  न  हो  जाए
फिर  नया   हादसा   न   हो  जाए

दोस्त-एहबाब    फेर  लें     नज़रें
वक़्त    इतना    बुरा  न  हो जाए

भीड़     में     हुस्न      ढूंढने  वाले
दोस्त  से    सामना    न  हो  जाए

बाद   तर्के-वफ़ा    सलाम  न  कर
ज़ख़्म  फिर  से  हरा  न  हो  जाए

इश्क़  में  भी   वफ़ा  की  अफ़वाहें
ये:  सियासत   सज़ा  न  हो  जाए

आज     दावा      पयम्बरी  का  है
कल  कहीं   वो:  ख़ुदा  न  हो  जाए !

                                         

                                              ( 2013 )

                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ता: अपराध; हादसा: दुर्घटना; दोस्त-एहबाब: मित्र-गण; बाद तर्के-वफ़ा: सम्बंध-विच्छेद के बाद; 
पयम्बर :ईश्वरीय सन्देश ले कर आने वाला देव-दूत।

मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

दिल का ऊंचा मेयार

इश्क़  जब    बेक़रार    होता  है
दिल  का  ऊंचा  मेयार  होता  है

यार  आए  न  आए  क़िस्मत  है
ख़्वाब   में    इंतज़ार    होता  है

सिर्फ़  मय  ही  नशा  नहीं  देती
दर्द  में   भी    ख़ुमार    होता  है

जब  इबादत   क़ुबूल  हो  जाए
तिफ़्ल  भी  शहसवार  होता  है

आसमां  से  क़हर  बरसता  है
इश्क़  जब   दाग़दार   होता  है

नूरे-अल्लाह  जब  बिखरता  है
वक़्त  के   आर-पार    होता  है

सामना  जब  ख़ुदा  से  होता  है
हर  अमल  का  शुमार  होता  है !

                                            (2013)

                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: बेक़रार: व्याकुल; मेयार: स्थिति, स्थान; ख़ुमार: तन्द्रा, उन्माद; तिफ़्ल: छोटा बच्चा, शिशु; शहसवार: घुड़सवार
क़हर: ईश्वरीय प्रकोप; दाग़दार: कलंकित; अमल: कर्म, आचरण; शुमार: गिनती।


सोमवार, 9 दिसंबर 2013

तेरे निज़ाम में जज़्बात ...

तेरे   ग़ुरूर    के    आगे    बिखर    गए  होते
ज़मीर    साथ  न   देता    तो  मर  गए  होते

तेरे  निज़ाम  में  जज़्बात  की  जगह  होती
हमारे   ख़्वाब  भी  शायद   संवर  गए  होते 

किसी  ने  काश  हमें  आज़मा  लिया  होता
तो  हम   जहां  में  कई  रंग  भर  गए  होते 

रहे-अज़ल   में    अगर  आप   सदा  दे  देते
जहां    क़दम   थे    हमारे    ठहर गए  होते

हुए  न    कर्बला  में   हम   हुसैन  के  साथी
वगरन:   हम    हुदूद   से   गुज़र  गए  होते 

ख़ुदा  यक़ीन  न  करता  अगर  अक़ीदत  पर
तो  हम  कभी  के  नज़र  से  उतर  गए  होते !

                                                           (2013)

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 


  शब्दार्थ: ग़ुरूर: घमण्ड; ज़मीर: विवेक; निज़ाम: राज; भावनाएं;मृत्यु का मार्ग;  
  सदा: आवाज़, पुकार;  वगरन:: वर्ना, अन्यथा; हुदूद: सीमाएं;  अक़ीदत: आस्था। 



रविवार, 8 दिसंबर 2013

दोबारा सफ़र में

अब  क़यामत  शहर  में  हो  तो  हो
वो:  हमारे  असर  में  हो  तो  हो

आशिक़ों  के  भरम  निराले  हैं
दाग़  माहो-क़मर  में  हो  तो  हो

खोल  रक्खी  हैं  खिड़कियां  हमने
रौशनी  उनके  घर  में  हो  तो  हो

उम्र  भर  लोग  दिल  लगाते  हैं
फ़ैसला  इक  नज़र  में  हो  तो  हो

मंज़िलों  से  पुकार  आई  है
दिल  दोबारा  सफ़र  में  हो  तो  हो

हम  न  तूफ़ां  से  हार  मानेंगे
फिर  सफ़ीना  भंवर  में  हो  तो  हो

हम  के:  बामे-नुहुम  पे  आ  पहुंचे
ज़िक्र  अपना  ख़बर  में  हो  तो  हो !

                                                 (2013)
                                   
                                           -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: क़यामत: प्रलय; माहो-क़मर: चंद्रमा; सफ़ीना: नाव; बामे-नुहुम: नौवां आकाश,परलोक का प्रवेश-द्वार। 

शनिवार, 7 दिसंबर 2013

मलाल अपना...!

नींद  उनकी  ख़याल  अपना  है
ज़िंदगी  का  सवाल  अपना  है

चश्मे-नम  राज़  फ़ाश  करती  है
दर्द  उनका    मलाल    अपना  है

रहबरी      की  है     ख़ूब  लूटेंगे
मुल्क  रैयत  का  माल  अपना  है

सहर  के   हुस्न  में   नया  जो है
वो:  नज़र  का  कमाल  अपना  है

बात  दिल  पर  कहीं  लगे  उनके
शे'र   तो   बेमिसाल    अपना  है

कुछ  कमी  रह  गई  है  दावत  में
आजकल  ख़स्त: हाल  अपना  है

शान  से  कीजिए  न  बिस्मिल्लाह
दाना  दाना     हलाल      अपना  है !

                                                  ( 2013 )

                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: चश्मे-नम: भीगी आंख; राज़  फ़ाश: रहस्योद्घाटन;  मलाल: विषाद, खेद; मार्गदर्शन, नेतृत्व; रैयत: जन-साधारण; 
सहर: उष: काल; बेमिसाल: अद्वितीय;  ख़स्त: हाल: बुरी हालत; बिस्मिल्लाह: शुभारंभ; हलाल: धर्मानुमत।

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

ख़ेराजे-अक़ीदत

                                               ख़ेराजे-अक़ीदत
               
                                      जनाब  मरहूम  नेल्सन  मंडेला 


                         उसके  क़दमों  के  निशां  वक़्त  के  सीने  पे  हैं 

                         चला  ज़रूर  गया  है  वो:  शख़्स  दुनिया  से  …



                     कामरेड  नेल्सन  मंडेला  ज़िंदाबाद !  ज़िंदाबाद !
                     कामरेड  नेल्सन  मंडेला  अमर  रहें!  अमर  रहें !


                                                                                          6  दिसं  2013


                                                             -सुरेश  स्वप्निल  और  इंसानियत  के  तमाम  सिपाही
                                                                       

बुधवार, 4 दिसंबर 2013

सिला - ए - इंतज़ार

रुख़  - ए - बहार   मेरे  शह्र  ने    नहीं  देखा
सिला - ए - इंतज़ार    सब्र   ने    नहीं  देखा

तू  बदगुमाँ  है   ग़रीबां  पे   ज़ुल्म  ढाता है
मेरा   जलाल    तेरे  जब्र  ने     नहीं   देखा

फ़रेब-ओ-मक्र  की   इफ़रात  है  जहाँ  देखो
ये:  दौर   और  किसी  उम्र  ने    नहीं  देखा

तू संगदिल तो नहीं है   मगर कभी तुझको
मेरे  मकां  पे   शब् - ए -क़द्र  ने  नहीं देखा !

हर एक सिम्त  आसमां से नियामत बरसी
सहरा-ए-दिल की तरफ़  अब्र ने नहीं देखा।

                                                  (2010)

                                       -सुरेश स्वप्निल  

शब्दार्थ: रुख़  - ए - बहार: बसंत का मुख; सिला - ए - इंतज़ार: प्रतीक्षा का पुरस्कार; बदगुमाँ: भ्रमित, बुरे विचार वाला; ग़रीबां: कर्बला में हज़रत इमाम हुसैन अ. स. के साथी; ज़ुल्म: अत्याचार; जलाल: तेज; जब्र: अन्याय, विवश करना; फ़रेब-ओ-मक्र: छल-छद्म; 
इफ़रात: बहुतायत; संगदिल: पाषाण-हृदय; मकां: क़ब्र, समाधि; शब् - ए -क़द्र: मृतात्माओं के सम्मान की रात; सिम्त: ओर; आसमां: स्वर्ग, परलोक; नियामत: कृपा; सहरा-ए-दिल: हृदय का मरुस्थल; अब्र: मेघ।

सोमवार, 2 दिसंबर 2013

आरज़ू होती नहीं ...

जश्ने-जिस्मां  की  किसी  दम  जुस्तजू  होती  नहीं
ख़ाक   दिल    में    रौशनी-ए-आरज़ू     होती  नहीं

यूं  बहारें   इस  शहर  में    मुस्तक़िल  रहने  लगीं
क्यूं   मगर    बादे-सबा   में    रंगो-बू    होती  नहीं

अश्कबारी  का    इबादत  से    कोई    रिश्त:  नहीं
आबे-नमकीं  से    मुसलमां  की   वुज़ू  होती  नहीं

लो  तुम्हारी  ही  सही  हम  भी  मुसलमां  हो  गए
अब  न  कहियो    के:  हमारी   आरज़ू  होती  नहीं

क्या  मुअज़्ज़िन  सो  गया  है  ख़ुम्र  पी  के  दैर  में
जो  जुहर  तक   भी    सदा-ए-अल्लहू   होती  नहीं

देख  ली     हमने   इबादत  आपकी  भी   शैख़  जी
जिस्म  सज्दे  में  पड़ा  है     रू:    निगू  होती  नहीं

जब  तलक  थे  आसमां  पे  रोज़  करते  थे  कलाम
सामने   बैठे   हैं   अब   वो:    गुफ़्तगू     होती  नहीं  !

                                                                      (1996-'13)

                                                                 -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: जश्ने-जिस्मां: शरीरोत्सव; दम: क्षण; जुस्तजू: खोज; ख़ाक: बुझा हुआ; रौशनी-ए-आरज़ू: इच्छाओं का प्रकाश; मुस्तक़िल: स्थायी रूप से; बादे-सबा: प्रभात समीर;  रंगो-बू : रंग और सुगंध; अश्कबारी: रोना-धोना;  इबादत: पूजा; आबे-नमकीं: नमकीन पानी, आंसू; मुसलमां: आस्तिक;  वुज़ू: देह-शुद्धि; मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला; ख़ुम्र: मद्य; दैर: मस्जिद; जुहर, जुह्र: दोपहर की नमाज़; सदा-ए-अल्लहू: ईश्वर की पुकार, अज़ान; शैख़: ढोंगी धर्म-भीरु; सज्दा:नतमस्तक  प्रणाम; रू: : आत्मा; निगू: नत, झुकी हुई; कलाम:संवाद;  गुफ़्तगू:वार्तालाप।