अज़ां कहते हैं जिसको एक आशिक़ की सदा है
सनम जिसका ख़ुदा है बस ख़ुदा है बस ख़ुदा है
सर-ओ-पा तर-ब-तर हूँ बारिश-ए-मै-नूर-ए-यारां में
मेरी मस्जिद , मेरा का'बा , मेरा घर मैकदा है
नहीं है, .और है भी , है कभी ज़ाहिर कभी ओझल
कभी पहलू में बैठा है , कभी मीलों जुदा है
असर होता नहीं उस दुश्मन-ए-जां पे गदाई का
मेरी क़िस्मत में शायद हाथ मलना ही बदा है
मुहब्बत कर , इबादत कर, शिकायत कर मगर दिल से
मियां, मक़सूद के घर का ज़रा-सा क़ायदा है।
(24 दिसं ., 2012)
-सुरेश स्वप्निल