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सोमवार, 26 मई 2014

बादशाह है कोई ...!

क्या  ग़रीबी  गुनाह  है  कोई
या  कि  बदनाम  राह  है  कोई

रो  रहा  है  मसल-मसल  कर  दिल
ख़ुदकुशी  का  गवाह  है  कोई

दुश्मनी  में  ख़ुदा  हुए  साहिब
दोस्ती  में  तबाह  है  कोई

दीजिए  क्या  सज़ा  दिवाने  को
आशिक़ी  भी गुनाह  है  कोई  ?

दावते-हुक्मरां  के  मजमे  में
एक  भी  बेगुनाह  है  कोई  ?

कर  रहा  है  सलाम  शायर  को
मुल्क  का  बादशाह  है  कोई  !

मौत  पुरसाने-हाल  है  अपनी
शुक्र  है,  ख़ैरख़्वाह  है  कोई

रात  भर  मुंतज़िर  रहे  ग़ालिब
और  वादा-निबाह  है  कोई  !

                                                     ( 2014 )

                                             -सुरेश  स्वप्निल  

शब्दार्थ: दावते-हुक्मरां: शासक का भोज; मजमे  में : एकत्र जन, भीड़; पुरसाने-हाल: हाल पूछने वाला/ली; ख़ैरख़्वाह: शुभचिंतक;   मुंतज़िर: प्रतीक्षारत; ग़ालिब: हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब, उर्दू के महान शायर; वादा-निबाह: वचन पालन करने वाला, यह शे'र हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब की प्रख्यात ग़ज़ल 'वो जो  हममें-तुममें  क़रार था...' के प्रति आदरांजलि स्वरूप ।

शनिवार, 17 मई 2014

गिरे काश ! दीवार...

करें  जो  न  पूरी  उमीदें  जहां  की
लगेगी  उन्हें  बद्दुआ  आसमां  की

ज़ेह्न  में  तिरे  मुद्द'आ  कुछ  नहीं  है
कहे  जा  रहा  है  यहां  की,  वहां  की

कभी  हाथ  में  गुल,  कभी  तेज़ नश्तर
अजब  हैं  अदाएं  मिरे   मेह्रबां  की

हुई  हुक्मरां  क़ातिलों  की  जमा'अत
हिफ़ाज़त  कहां  अब  रही  जिस्मो-जां  की

जिन्हें  मुंतख़ब  कर  लिया  आंधियों  ने
उन्हें  फ़िक्र  क्यूं  हो  मिरे  आशियां  की

बहुत  हो  चुकीं  दूरियां  दो  दिलों  में
गिरे  काश ! दीवार  ये:  दरमियां  की

सुनी  है  फ़लक़  पर  अज़ां  जो  ख़ुदा  ने
शिकायत  है  वो:  एक  ज़ख्मे-निहां  की !

                                                              ( 2014 )

                                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: जहां: संसार; बद्दुआ: श्राप; आसमां: आकाश, देवलोक, ईश्वर; ज़ेह्न: मस्तिष्क; मुद्द'आ: विषय, प्रश्न; गुल: पुष्प; नश्तर: छुरी, नुकीली वस्तु; अदाएं: भंगिमाएं; मेह्रबां: दयालु, शुभचिंतक; हुक्मरां: शासक; जमा'अत: दल, संगठन; हिफ़ाज़त: सुरक्षा; जिस्मो-जां: शरीर और प्राण, तन-मन; मुंतख़ब: निर्वाचित; आशियां: भवन, झोपड़ी; दरमियां: बीच;  फ़लक़: आकाश; ज़ख्मे-निहां: अन्तर्मन का घाव ।




रविवार, 4 मई 2014

कहते हैं जिसे अश्क ...

चाहे       हमारे    मर्ग़     की    कोई    ख़बर     न  हो
मुमकिन  नहीं  कि  आपके  दिल  पर  असर  न  हो

हम  क्या  हुए  कि  खोल  के  रख  दें  न  दिल  अभी
वो:   यार   क्या  हुआ    कि  कभी    मोतबर   न  हो

कहते  हैं  जिसे  अश्क,   रग़-ए-दिल   का    है  लहू
टपके   ज़रूर    आंख    से,   प'  दर-ब-दर   न   हो  !

पीने    से     क़ब्ल      कौन     नमाज़ें     पढ़ा    करे
शायद    हमारे  जाम   में    बिल्कुल    ज़हर  न  हो

मांगी      तो    हैं    दुआएं      तेरे     वास्ते     मगर
तेरी    तरह   ख़ुदा     भी     कहीं    बेख़बर  न  हो  !

                                                                              ( 201 4 )

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:  मर्ग़: निधन; मुमकिन: संभव; मोतबर: विश्वसनीय; अश्क: आंसू; रग़-ए-दिल: हृदय-तंतु; 
लहू: रक्त; दर-ब-दर: आश्रय-विहीन; क़ब्ल:पूर्व; जाम: मदिरा-पात्र ।

शुक्रवार, 2 मई 2014

दोस्त तंगहाल रहे !

मेरे  क़रीब  से  गुज़रो  तो  ये:  ख़्याल  रहे
मेरे  असर  का  कहीं  दिल  में  न  मलाल  रहे

हमें  नज़र  में  बसाएं  तो  ये:  समझ  लीजे
कि  हम  जहां  रहे  वहां  हज़ार  साल  रहे

ख़ुदा  बचाए  हमें  इश्क़  की   नियामत  से
जिगर  में  दर्द  रहे,   ज़ेहन   में  सवाल  रहे

जो  एक  बार   चढ़  गए   तेरी  निगाहों  में
तेरी  नज़र  में  वही  सिर्फ़  बा-कमाल  रहे

ख़ुदा  भी  माफ़  न  कर  पाएगा  तुझे  शायद
जला  के  बस्तियां  अगर  तेरा  जलाल  रहे

तमाम  वक़्त  निभाया  किए  अना  तेरी  
तमाम  उम्र    तेरे  दोस्त     तंगहाल  रहे  

निभा   न  पाए  हम  पाबंदिए-नमाज़  कभी
तेरे  करम  के  मगर  सिलसिले  बहाल  रहे  !

                                                                    ( 2014 ) 

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मलाल: खेद; नियामत: देन, कृपा; जिगर: हृदय-क्षेत्र; ज़ेहन: मस्तिष्क; बा-कमाल: काम के लोग, सुयोग्य;   जलाल: प्रताप; 
अना: गर्व; पाबंदिए-नमाज़: नमाज़ की नियमबद्धता; करम: कृपा; सिलसिले: क्रम; बहाल: यथावत ।