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बुधवार, 29 जून 2016

ख़ुदी से ख़लास...

चंद  अल्फ़ाज़  पास  बैठे  हैं
बस  यही  ग़मशनास  बैठे  हैं

आपने  आज  ग़ौर  फ़रमाया
हम  अज़ल  से  उदास  बैठे  हैं

रब्तो-दीदारो-वस्लो-याराना
फिर  ग़लत  सब  क़यास  बैठे  हैं

नफ़्स  ही  तो  जुदा  हुई  दिल  से
और  भी  ग़म  पचास  बैठे  हैं

तख़्ते-हिंदोस्तां  ख़ुदा  हाफ़िज़
दुश्मने-क़ौम  ख़ास  बैठे  हैं

यह  सियासत  नहीं  अजूबा  है
सब  ख़ुदी  से  ख़लास  बैठे  हैं

रूहे-शायर  को  क्या  मिली  जन्नत
शैख़  सब  बदहवास  बैठे  हैं  !

                                                                         (2016)

                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : चंद अल्फ़ाज़ : कुछ शब्द ; ग़मशनास : दुःख समझने वाले ; ग़ौर : ध्यान ; अज़ल : अनादिकाल ; रब्तो-दीदारो-वस्लो-याराना : संपर्क-दर्शन-मिलन और मित्रता ; क़यास : अनुमान ; नफ़्स : प्राण ; जुदा:विलग;
तख़्ते-हिंदोस्तां : भारत का राजासन ; दुश्मने-क़ौम : गण-शत्रु, अजूबा : विचित्र वस्तु ; ख़ुदी : स्वाभिमान ; ख़लास : रिक्त ; रूहे-शायर : शायर की आत्मा ; जन्नत : स्वर्ग ; शैख़ : धर्मांध व्यक्ति ।


बुधवार, 22 जून 2016

बग़ावतों की मजाल...

तुम्हारे  चेहरे  पे  जो  ख़ुशी  है  उसे  अज़ल  तक  संभाल  रखना
कि  रंजो-ग़म  में   मुसीबतों  में   हमारा  हक़  भी  बहाल  रखना

तुम्हारा   दावा   बहुत   बड़ा   है   जहाने-दिल  की   हुकूमतों  पर
रहो  हमेशा    उरूज   पर  तुम   मगर  ज़ेहन  में   जवाल  रखना

तुम्हारे  दिल  में    कहां  कमी  है    मुहब्बतों   की    इनायतों  की
जो  बांटो  सदक़ा-ए-फ़ित्र  सबको  हमारा  हिस्सा  निकाल  रखना

अभी   उन्हें   भी    कहां   है   फ़ुर्सत    तमाम   इशरत  बटोरने  से
मगर  वो  आएं  सलाम  को  जब  तो  सामने  सब  सवाल  रखना

निज़ामे-बेहिस    की    दुश्मनी   है   ग़रीब  ग़ुर्बा  की   बेहतरी   से
खुले  ज़ुबां  गर    मुख़ालिफ़त  में    बग़ावतों   की   मजाल  रखना

मिटा    रहे   हैं    वो:   नक़्श    सारी    इमारतों   के     इबारतों   के
चमन  की   रंगत   बदल  न   डाले   ज़रा  हवा  का   ख़याल  रखना

जिए  हो   अब  तक   फ़क़ीर  हो  कर    रहे  सलामत  ये  शाने-ईमां
चलो  जो  मुल्के-अदम  की  जानिब  ख़ुदी  की  क़ायम  मिसाल  रखना !

                                                                                                                     (2016)

                                                                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अज़ल : अनादि-अनंतकाल ; रंजो-ग़म : अवसाद  एवं दुःख ; मुसीबतों : संकटों ; हक़ : अधिकार ; बहाल : निरंतर, शास्वत ; जहाने-दिल : मन का साम्राज्य ; हुकूमतों : शासनों ;  उरूज : उत्कर्ष, शीर्ष ; ज़ेहन : मस्तिष्क, ध्यान ; जवाल : पतन ; इनायतों : कृपाओं ; सदक़ा-ए-फ़ित्र : उपासना का पुण्य-दान ; इशरत : विलासिताएं ; निज़ामे-बेहिस : संवेदन हीन शासन ; ग़रीब  ग़ुर्बा : दीन-हीन, दरिद्र जन ; बेहतरी : उन्नति ; ज़ुबां : जिव्हा ; गर : यदि ; मुख़ालिफ़त : विरोध ;   बग़ावतों : विद्रोहों ; मजाल : सामर्थ्य ; नक़्श : चिह्न ; इमारतों : भवनों, यहां आशय संस्थानों ; इबारतों : आलेखों, यहां आशय संविधान एवं विधि ; चमन : उपवन ; रंगत : रूप-रंग ; फ़क़ीर : साधु, निर्मोही, अकिंचन ; सलामत : सुरक्षित ; शाने-ईमां ; मुल्के-अदम : परलोक ; जानिब : ओर ; ख़ुदी : स्वाभिमान ; क़ायम : स्थायी ; मिसाल : उदाहरण ।




शुक्रवार, 17 जून 2016

शुआ की ज़रूरत ...

बयाज़े-दिल  में  तेरा  नाम  दर्ज  है  जब  तक
किसी  शुआ  की  ज़रूरत  नहीं  हमें  तब  तक

बड़ा  अजीब    सफ़र  है     मेरे  तख़य्युल  का
शबे-विसाल  से  आए  हैं  हिज्र  की  शब  तक

तू  अपने  सीने  की  वुस.अत  दिखाए  जाता  है
मगर  ये  जिस्म  तेरे  साथ  रहेगा  कब  तक

तेरे  निज़ाम  में  तालीम  की  वो  हालत  है
कि  कोई  तिफ़्ल  पहुंच  ही  न  पाए  मकतब  तक

कहां   जनाब    तरक़्क़ी  की    बात   करते  थे
कहां  ये  आग  चली  आ  रही  है  मज़्हब  तक

हमीं  हैं  शाह  से  खुल  कर  क़िले  लड़ाते  हैं
पहुंच  गए  हैं  वहीं  सब  नक़ीब  मंसब  तक

फ़िज़ूल  आप  मेरे  दिल  पे  हो  गए  क़ाबिज़
अज़ां  सुनाई  न  दी  आपको  मेरी  अब  तक !

                                                                                                  (2016)

                                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : बयाज़े-दिल : हृदय की दैनंदिनी ; दर्ज : अंकित ; शुआ : किरण ; तख़य्युल : विचारों , कल्पनाओं ; शबे-विसाल : मिलन निशा ; हिज्र : वियोग ; शब : निशा ; वुस.अत : विस्तार, माप ; जिस्म : शरीर ; निज़ाम : शासन ; तालीम : शिक्षा ; तिफ़्ल : बच्चा ; मकतब : पाठशाला ; तरक़्क़ी : प्रगति, विकास ; मज़्हब : धर्म ; क़िले : शतरंज के खेल में बनाए जाने वाले क़िले, युद्ध ; नक़ीब : चारण ; मंसब : नियमित वृत्तिका ; फ़िज़ूल : व्यर्थ ; क़ाबिज़ : अधिपति ।

गुरुवार, 16 जून 2016

समंदरों की सियासत ...

हमारे  दिल  की  हरारत  किसी  को  क्या  मालूम
ये:  मर्ज़  है  कि  मुहब्बत  किसी  को  क्या  मालूम

बड़े   सुकूं   से    वो:      शाने       मिलाए   बैठे   थे
कहां  हुई  है    शरारत    किसी  को    क्या  मालूम

सुबह   से     शाम   तलक     आज़माए    जाते   हैं
ये:  इम्तिहां  है  कि  चाहत  किसी  को  क्या  मालूम

किया   करो   हो     बहुत  तंज़     शक्लो-सूरत  पर
हमारे    तर्बो-तबीयत    किसी   को     क्या  मालूम

निज़ाम   को     है   फ़िक्र     बस     रसूख़दारों   की
कहां   करेंगे    इनायत    किसी   को   क्या  मालूम

हरेक   दरिय :   को    प्यारी   है    अपनी   आज़ादी
समंदरों  की    सियासत    किसी  को  क्या  मालूम

अभी-अभी    तो   कहन   में     निखार     आया  है
अभी   हमारी  मुहब्बत   किसी  को    क्या  मालूम

पढ़ी     नमाज़      न      सज्दागुज़ार     हैं     उनके
हमारा     रंगे-इबादत   किसी   को     क्या  मालूम !

                                                                                            (2016)

                                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : हरारत : ताप ; मर्ज़ : रोग ; सुकूं : आश्वस्ति ; शाने : कंधे ; तलक : तक ; इम्तिहां : परीक्षा ; चाहत : इच्छा ; करो हो : करते हो ; तंज़ : व्यंग्य ; शक्लो-सूरत : मुखाकृति ; तर्बो-तबीयत : संस्कार और स्वभाव ; निज़ाम : प्रशासन, सरकार ; रसूख़दारों : प्रभावशाली व्यक्तियों ; इनायत : कृपा ; दरिय: : नदी ; कहन :शैली;
सज्दागुज़ार :दंडवत प्रणाम करने वाले; रंगे-इबादत : पूजा का ढंग ।

मंगलवार, 14 जून 2016

... असर जाता नहीं !

अब्र  अक्सर  वक़्त  पर  छाता  नहीं
और  मौसम  भी  ख़बर  लाता  नहीं

ख़ुदकुशी  हर  बार  दहक़ां  क्यूं  करे
कोई  हाकिम  तो  ज़हर  खाता  नहीं

फ़िक्र  होती  शाह  को  गर  मुल्क  की
तो  सितम  यूं  रिज़्क़  पर  ढाता  नहीं

चाहता  है    सर   झुकाना   वो  मेरा
पर  कभी  मजबूर  कर  पाता  नहीं

मीर  का  दीवान    हमने   छू  दिया
उम्र  गुज़री  पर  असर  जाता  नहीं

जानता  है  मौसिक़ी  के  राज़  सब
वो  परिंदा    बे-बहर     गाता  नहीं

नफ़्स  में  तू  नब्ज़  में  तू  दिल  में  तू
अक्स  तेरा  क्यूं  नज़र  आता  नहीं  ?

                                                                               (2016)

                                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अब्र :मेघ ; ख़ुदकुशी : आत्महत्या ; दहक़ां : कृषक ; हाकिम : अधिकारी ; सितम : अत्याचार ; रिज़्क़ : भोजन, खाद्य-सामग्री ; मजबूर : विवश ; मीर :हज़रत मीर तक़ी 'मीर' , उर्दू के महान शायर ; दीवान : काव्य-संग्रह ; असर : प्रभाव ; मौसिक़ी : संगीत ; राज़ : रहस्य ; परिंदा : पक्षी ;  बे-बहर : छंद के विरुद्ध ; नफ़्स : सांस ; नब्ज़ : नाड़ी ; अक्स : प्रतिबिम्ब ।

सोमवार, 13 जून 2016

शौक़े-ख़ैरात ...

दुश्मनों  की  तरह  बात  मत  कीजिए
तंग  अपने  ख़यालात  मत  कीजिए

इश्क़  है  कोई  जंगे-सियासत  नहीं
डर  लगे  तो  मुलाक़ात  मत  कीजिए

राह  रुस्वाइयों  तक  पहुंचने  लगे
इस  क़दर  सर्द  जज़्बात  मत  कीजिए

क़र्ज़  हम  पर  वफ़ा  का  बहुत  चढ़  चुका
बस  हुआ  अब  इनायात  मत  कीजिए

ज़ोम  है  इक़्तिदारे-वतन  का  जिन्हें
उन  ख़रों  से  सवालात  मत  कीजिए

कोई  मज्बूर  नज़रें  चुराने  लगे
इस  तरह  शौक़े-ख़ैरात  मत  कीजिए

लोग  नाहक़  पशेमान  हो  जाएंगे
बज़्म  में  ज़िक्रे-सदमात  मत  कीजिए

दिल  में  भी  ढूंढिए  हमको  मूसा  मियां
कोह  चढ़  कर  ख़ुराफ़ात  मत  कीजिए  !

                                                                                (2016)

                                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तंग : संकीर्ण ; ख़यालात : विचार ; जंगे-सियासत : राजनैतिक संघर्ष ; रुस्वाइयों : लज्जाओं ; सर्द : शीतल ; जज़्बात : भावनाएं ; क़र्ज़ : ऋण ; वफ़ा : निष्ठा ; इनायात : कृपाएं ; ज़ोम : अहंकार ; इक़्तिदारे-वतन : देश की सत्ता ; ख़रों : गधों ; सवालात : प्रश्न-उत्तर, तर्क-वितर्क ; मज्बूर : विवश व्यक्ति ; शौक़े-ख़ैरात : दान करने की प्रवृत्ति / प्रदर्शन / अहंकार ; नाहक़ : व्यर्थ, निरर्थक ; पशेमान : लज्जित ; बज़्म : सभा, समूह ; ज़िक्रे-सदमात : आघातों की चर्चा / उल्लेख ; मूसा  मियां : हज़रत मूसा अलैहि सलाम ; कोह : पर्वत ; ख़ुराफ़ात : उपद्रव ।

शनिवार, 11 जून 2016

दो ग़ज़ ज़मीन

सब्र  मत  तौलिए दिवानों  का
है  दफ़ीना  कई  ज़मानों  का

रोज़  पैग़ाम  रोज़  फ़रियादें
जी  नहीं  मानता  जवानों  का

मुल्क  के  साथ  भी  दग़ाबाज़ी
क्या  करें  आपके  बयानों  का

लूट  कहिए  डकैतियां  कहिए
मश्ग़ला  है  बड़े  घरानों  का

बेच  डालें  ज़हर  दवा  कह  कर
क्या  भरोसा  नई  दुकानों  का

सिर्फ़  दो  ग़ज़  ज़मीन  काफ़ी  है
कीजिए  क्या  बड़े  मकानों  का

मांग  ही  लें  दुआएं  अब  हम  भी
देख  लें  ज़र्फ़  आसमानों  का  !

                                                                   (2016)

                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : सब्र : धैर्य ; दफ़ीना : गुप्त कोष, भूमि में गड़ा कर रखा गया कोष ; ज़मानों :युगों ; पैग़ाम : संदेश ; फ़रियादें : मांगें ; दग़ाबाज़ी : छल-प्रपंच ; बयानों : वक्तव्यों ; मश्ग़ला : अभिरुचि , समय बिताने का साधन ; भरोसा : विश्वास ; ज़र्फ़ : गांभीर्य ; आसमानों : देवलोक ।


मंगलवार, 7 जून 2016

बयांबाज़ चाहिए ...

गुल  में  भी  हुस्ने-यार के  अंदाज़  चाहिए
ख़ामोश  रंगो-बू  को  भी  आवाज़  चाहिए

शिद्दत-ए-तिश्नगी-तिफ़्ल  है  बहुत  मगर
मासूम  ख़यालात  को  परवाज़  चाहिए

देखे  हैं  हमने  ख़ूब  सितमगर  बयां  तिरे
अब  दिल  में  जो  निहा  हैं  वही  राज़  चाहिए

क़ुर्बान  न  हों  आप  अभी  शाह  के  लिए
मैदाने-इश्क़  में  भी  तो  जांबाज़  चाहिए

तकरीर  से  तस्वीर  बदलती  हो  तो  हमें
दोज़ख़  में  तेरी  तरहा  बयांबाज़  चाहिए

सफ़  में  हैं  तलबगार  यहां  से  वहां  तलक
मस्जिद  के  दायरे  में  करमसाज़  चाहिए

ये:  इक़्तिदारे-ज़ुल्म  कई  उम्र  जी  चुका
अब  दौरे-इंक़िलाब  का  आग़ाज़  चाहिए  !

                                                                                  (2016)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: गुल : पुष्प; हुस्ने-यार : प्रिय का सौन्दर्य; अंदाज़ : भंगिमा; रंगो-बू : रंग एवं गंध ; शिद्दत-ए-तिश्नगी-तिफ़्ल : छोटे बच्चे की प्यास की तीव्रता, यहां संदर्भ कर्बला का, जहां छह माह के अली असग़र अ.स. के वध का ; मासूम : अबोध ; ख़यालात : कल्पनाओं ; परवाज़ : उड़ान ; सितमगर : अत्याचारी ; बयां : वक्तव्य ; निहा : छिपे हुए ; राज़ : रहस्य, अप्रकट उद्देश्य ; क़ुर्बान : बलि ; मैदाने-इश्क़ : प्रेम-युद्ध ; जांबाज़ : प्राण दांव पर लगाने वाला ; तकरीर : भाषण ; तस्वीर : परिदृश्य ; दोज़ख़ : नर्क ; तरहा : तरह, भांति ; बयांबाज़ : खोखली बातें करने वाला ; सफ़ : पंक्ति, नमाज़ के समय खड़े लोग ; तलबगार : याचक ; दायरे : सीमा ; करमसाज़ : कृपा करके दिखाने वाला ; इक़्तिदारे-ज़ुल्म : अत्याचार की सत्ता ; उम्र : आयु, जन्म ; दौरे-इंक़िलाब : क्रांति / परिवर्त्तन काल ; आग़ाज़ : आरंभ ।

सोमवार, 6 जून 2016

अच्छा नहीं लगा ...

दिल  को  सुजूदे-शौक़  का  चस्का  नहीं  लगा
दुनिया  को  ये:  ख़याल  भी  अच्छा  नहीं  लगा

क्या  रंज  कीजिए  कि  कोई  बेवफ़ा  हुआ
दचका  लगा  ज़रूर  प'  ज़्यादा  नहीं  लगा

कहता  रहा  क़रीब  का  रिश्ता  है  आपसे
लेकिन  हमें  वो:  शख़्स  शनासा  नहीं  लगा

उसके  सिपाहियों  ने  किया  क़त्ले-आम  जब
दिल  में  उसे  दरेग़  ज़रा-सा  नहीं  लगा

जम्हूर  की  दुआ  से  बादशाह  क्या  हुए
सौ  क़त्ल  भी  किए  तो  मुक़दमा  नहीं  लगा

है  एहतरामे-हुस्न  हमारे  मिजाज़  में
यूं  दिल  प'  कभी  दाग़े-तमन्ना  नहीं  लगा

कांधे  पे  लाद  लाए  हमें  अर्श  के  जवां
हम  ख़ुश  हैं  इस  सफ़र  में  किराया  नहीं  लगा !

                                                                                                (2016)

                                                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सुजूदे-शौक़ : स्वेच्छा से/रुचि पूर्वक दंडवत करना ; चस्का : अभिवृत्ति ; रंज : खेद ; दचका : आघात ; शख़्स : व्यक्ति, शनासा: परिचित; क़त्ले-आम : व्यापक नरसंहार ; दरेग़ : दया ; जम्हूर : लोकतंत्र ; एहतरामे-हुस्न : सौंदर्य का सम्मान ; मिजाज़ : स्वभाव ; दाग़े-तमन्ना : उत्कट इच्छा का दोष ; अर्श के जवां : अर्श=आकाश, जवां : युवा, यहां आशय मृत्युदूत से ।

रविवार, 5 जून 2016

तरक़्क़ी के मा'नी

इस  तरह  तो  जहां  में  उजाला  न  हो
के:  शबे-तार  का  रंग  काला  न   हो

मैकदे  में  चला  आए  सैलाबे-नूर
मै  बहे  इस  क़दर  पीने  वाला  न  हो

शैख़  बतलाएं  कब  कब  ख़राबात  में
वो  गिरे  और  हमने  उठाया  न  हो

और  उम्मीद  क्या  कीजिए  आपसे
इश्क़  में  ही  अगर  बोल बाला  न  हो

उस  तरक़्क़ी  के  मा'नी  भला  क्या  हुए
हाथ  अत्फ़ाल  के  गर  निवाला  न  हो

कौन  उसको  कहेगा  तुम्हारी  ग़ज़ल
शे'र  दर  शे'र  जिसका  निराला  न  हो

कोई  शायर  नहीं  दो  जहां  में  जिसे
अर्श  वालों  ने  घर  से  निकाला  न  हो  !

                                                                                  (2016)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ :शबे-तार: अमावस्या ; मदिरालय ; सैलाबे-नूर : प्रकाश का उत्प्लावन ; मै : मदिरा ; क़दर : सीमा तक;
शैख़ : धर्म भीरु , मदिरा विरोधी ; ख़राबात : मदिरालय ; तरक़्क़ी : प्रगति, विकास ; मा'नी : अर्थ ; अत्फ़ाल : शिशुओं ; निवाला : कंवल, कौर ; अर्श वालों : आकाश वालों, ईश्वर ।

शुक्रवार, 3 जून 2016

थक गए राह में...

थाम  लें  हाथ  कमनसीबों  का
ज़र्फ़  बढ़  जाएगा  अदीबों  का

कोई  समझाए  शाहे-ग़ाफ़िल  को
रिज़्क़  तो  बख़्श  दे  ग़रीबों  का

दिल्लगी  ज़ख़्म  ही  न  दे  जाए
खेल  मत  खेलिए  क़ज़ीबों  का

ईद  पर  भी  गले  नहीं  मिलते
हाल  यह  है  मिरे  हबीबों  का

ज़ार  को  देवता  बताते  हैं
शोर  सुनिए  ज़रा  नक़ीबों  का

ज़िक्र  किरदार  का  जहां  आया
मुंह  बिगड़  जाएगा  नजीबों  का

खैंच  लेंगे  ज़ुबान  कब  मेरी
क्या  भरोसा  मिरे  रक़ीबों  का

थक  गए  राह  में  मियां  मंसूर
बार  उठता  नहीं  सलीबों  का  !

                                                                (2016)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: कमनसीबों : अल्प-भाग्य ; ज़र्फ़ : गांभीर्य ; अदीबों : साहित्यकारों ; शाहे-ग़ाफ़िल : मतिभ्रम-ग्रस्त शासक ; रिज़्क़ : भोजन ; बख़्श ( ना ) : छोड़ (ना);  हबीबों : प्रिय जनों ; दिल्लगी : हास-परिहास ; ज़ख़्म : घाव; क़ज़ीबों : तलवारों ; ज़ार : निरंकुश, अत्याचारी शासक ; नक़ीबों : चारणों ; ज़िक्र : संदर्भ , उल्लेख ; किरदार : चरित्र ;  ज़ुबान : जिव्हा ; भरोसा : विश्वास ; रक़ीबों : शत्रुओं; मंसूर : इस्लाम के अद्वैतवादी दार्शनिक, जिन्हें उनके विचारों  कारण सूली पर चढ़ा दिया गया था ; बार : बोझ।
 

गुरुवार, 2 जून 2016

दर्दे-दिल की वजह

हैं  परेशान  जो  ज़माने   से
रब्त  कर  लें  किसी  दिवाने  से

दर्दे-दिल  की  वजह  रहे  हैं  जो
क्या  मिलेगा  उन्हें  सुनाने  से

दोस्तों  पर  अगर  भरोसा  है
क्यूं  जिरह  कीजिए  बहाने  से

हिज्र  के  वक़्त  हौसला  देंगे
ख़्वाब  रख  दें  कहीं  ठिकाने  से

ख़ुम्र  का  रंग  उड़  गया  सारा
शैख़  को  बज़्म  में  बुलाने  से

सामना  कीजिए  दिलेरी  से
ज़ुल्म  बढ़ता  है  सर  झुकाने  से

सब्र  रक्खें  जनाबे-इज़राइल
चल  दिए  हम  ग़रीबख़ाने  से  !

                                                             (2016)

                                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ : रब्त : संपर्क, मेलजोल ; दर्दे-दिल : मन की पीड़ा ; वजह : कारण ; जिरह : तर्क-वितर्क ; हिज्र: वियोग ; हौसला : साहस ; ख़ुम्र : मदिरा ; शैख़ : उपदेशक ; बज़्म : सभा, समूह, आयोजन ; दिलेरी : साहसिकता ; ज़ुल्म : अत्याचार ; सब्र : धैर्य ; जनाब : श्रीमान ; इज़राइल : मृत्यु दूत ; इस्लामी दर्शन में यम के समकक्ष ; ग़रीबख़ाने : अकिंचन के / अपने घर ।


बुधवार, 1 जून 2016

उम्मीद की सहर

सब  जिसे  मौत  की  ख़बर  समझे
वो:  उसे  ख़ुम्र  का  असर  समझे

ज़ीस्त  उसको  बहुत  सताती  है
जो  न  क़िस्स:-ए-मुख़्तसर  समझे

लोग  जो  चाहते  समझ  लेते
आप  क्यूं   हमको  दर ब दर  समझे

वो:  शरारा  जला  गया  जी  को
हम  जिसे  इश्क़  की  नज़र  समझे

शैख़-सा  बदनसीब  कोई  नहीं
जो  भरे  जाम  को  ज़हर  समझे

शाह  का  हर्फ़  हर्फ़  झूठा  था
लोग  उम्मीद  की  सहर  समझे

राज़  समझे  वही  ख़ुदाई  का
जो  खुले  चश्म  देख  कर  समझे

आख़िरश  वो:  सराब  ही  निकला
लोग  नादां  जिसे  बहर  समझे

दिल  उन्हें  भी  दुआएं  ही  देगा
जो  मेरा  ग़म  न  उम्र  भर  समझे  !

                                                                     (2016)                                                                 

                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : ख़ुम्र : मदिरा ; ज़ीस्त : जीवन ; क़िस्स:-ए-मुख़्तसर : छोटी-सी कहानी, सार-संक्षेप ; दर ब दर : गृह-विहीन ; शरारा : अग्नि-पुंज, लपट ; जी : मन ; शैख़ : धर्म-भीरु ; जाम : मदिरा-पात्र ; हर्फ़ : अक्षर ; सहर : प्रातः, उष:काल ; राज़ : रहस्य ; ख़ुदाई : संसार, सृष्टि ; खुले चश्म : खुले नयन, बुद्धिमानी से ; आख़िरश :अंततः ; सराब : मृग जल, धूप में दिखाई देने वाला पानी का भ्रम ; नादां : अबोध, अ-ज्ञानी ; दुआएं : शुभकामनाएं ।