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शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

चराग़े-दिल की लौ...

ये  ज़ुबां  तल्ख़  बोल  देती  है
सच  को  कांटों  में  तौल  देती  है

क्या  रवायत  है  इस  क़बीले  की
मौत  भी  दिल  के  मोल  देती  है

उनके  दामन  को  छू  के  बादे-सबा
नफ़्स  में  इत्र  घोल  देती  है

अश्क  दिल  से  बहें  तो  बेहतर  है
चश्म  हर  राज़  खोल  देती  है

ख़ूब  सरकार  है  फ़रिश्तों  की
हर  बयां  गोल-मोल  देती  है 

तीरगी  के  सवाल  पर  अक्सर
रौशनी  झूठ  बोल  देती  है

डूबती-सी  चराग़े-दिल  की  लौ
सुब्हा  लाने  का   क़ौल  देती  है  !

                                                                         (2016)

                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़ुबां : जिव्हा; तल्ख़ : कटु, कठोर बात; रवायत: परंपरा; क़बीले : जातीय समुदाय ; दामन : आंचल, पल्लू; नफ़्स : सांस; 
इत्र : सुगंध ; अश्क : अश्रु; चश्म : नयन, दृष्टि; राज़ : रहस्य; फ़रिश्तों : देवदूतों; बयां : वक्तव्य, प्रतिक्रिया ; तीरगी : अंधकार; रौशनी : प्रकाश; चराग़े-दिल : हृदय-दीप; सुब्हा : प्रभात; क़ौल : वचन ।