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गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

बंदगी का इम्तेहां

बड़े  सुकूं  से  मेरा  यार  दिलो-जां  मांगे
मगर  ये:  बात  न  हुई  के:  वो:  ईमां  मांगे

हमें  हंसी  न  आएगी  के:  जब  कोई  क़ासिद
पयामे-यार  से  पहले  कोई  निशां   मांगे

मेरी  परवाज़  पे  हंसते  हैं  जो  जहां  वाले
उन्हीं  से  आज  मेरा  अज़्म  आस्मां  मांगे

मेरे  ख़यालो-ओ-तसव्वुर  की  हद  नहीं  कोई
मेरा  वक़ार  कई  और  भी  जहां  मांगे

हमारे  इश्क़  की  तौहीन  और  क्या  होगी
ख़ुदा  हमीं  से  बंदगी  का  इम्तेहां  मांगे  !

                                                             ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सुकूं: शांति;   ईमां: आस्था; क़ासिद: पत्र-वाहक; पयामे-यार: प्रेमी का संदेश, निशां: पहचान-चिह्न; परवाज़: उड़ान; जहां: दुनिया; अज़्म: अहम्मन्यता; आस्मां:आकाश; विचार और कल्पना-शक्ति; हद: सीमा; वक़ार: प्रतिष्ठा; जहां: ब्रह्माण्ड; तौहीन: अपमान; बंदगी: भक्ति।

बुधवार, 30 अक्तूबर 2013

ख़ाना-ख़राब की बातें

छोड़िए  भी    किताब    की  बातें
ये:     गुनाहो-सवाब     की   बातें

आप  जो  बिन  पिए  बहकते  हैं
क्या  सुनें  हम  जनाब  की  बातें

उलझे-उलझे   सवाल  हैं   उनके
हम  कहें  क्या  जवाब  की  बातें

भूल  ही  जाएं  तो  बुरा  क्या  है
सूरतों  की    हिजाब    की  बातें

मुद्द'आ  मत  बनाइए  दिल  का
एक    ख़ाना-ख़राब     की  बातें

कोई  कम्बख़्त   ना  करे  हमसे
मुफ़लिसी  में   शराब  की  बातें

बेशक़ीमत  है    तोहफ़:-ए-यारी
छोड़    दीजे    हिसाब  की  बातें

पी   रहे   हैं   शराब    आंखों  से
सोचते  हैं     अज़ाब    की  बातें  !

                                          ( 2013 )

                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: किताब: धर्म-ग्रंथ, क़ुर'आन;  गुनाहो-सवाब: पाप-पुण्य;  हिजाब: पर्दा, मुखावरण; मुद्द'आ: बिंदु, विषय;  ख़ाना-ख़राब: गृह-त्यागी; कम्बख़्त: अभागा; मुफ़लिसी: विपन्नता; बेशक़ीमत: अति-मूल्यवान; तोहफ़:-ए-यारी: मित्रता का उपहार;  अज़ाब: पाप का फल। 

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

पहली सालगिरह !

आदाब अर्ज़, दोस्तों !
आज आपका 'साझा आसमान' अपनी पहली सालगिरह मना रहा है।
पिछले साल ठीक इसी दिन, यानी 29 अक्टूबर को हमने-यानी आपका यह ख़ादिम और भाई जनाब शरद कोकास ने दुर्ग में 'साझा आसमान' की शुरुआत की थी। इस एक साल के दरमियान हमने तक़रीबन 275 ग़ज़लें क़ारीन के सामने पेश कीं जिनमें  225 एकदम नई ग़ज़लें हैं ! हमें इस दौरान दुनिया के तक़रीबन 190 मुमालिक के क़ारीन का भरपूर प्यार मिला।
'साझा आसमान' जैसे संजीदा शायरी पेश करने वाले ब्लॉग के लिए यह एक बेहद अहम् मक़ाम और बड़ी कामयाबी ही मानी जाएगी। ज़ाहिर है कि हम ख़ुश हैं, हालांकि हम यह भी जानते हैं कि हम इससे कहीं बेहतर काम कर सकते थे…!
इस कामयाबी का सेहरा सबसे पहले आप सब क़ारीन के सर जाता है। यह आप सब के उन्सो-ख़ुलूस और त'अव्वुन का ही नतीजा है कि आज हम यहां तक आ सके।
शुक्रिया, दोस्तों !
इस मौक़े पर मैं ख़ास तौर पर जिन साथियों का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं, उनमें अव्वल हैं मेरी शरीक़े-हयात मोहतरिमा कविता जी, जिन्होंने मेरी चोरी हो चुकी क़रीब 150 ग़ज़लें दोबारा ढूंढ निकालीं; और दूसरे हैं भाई जनाब शरद कोकास, जिन्होंने 'साझा आसमान' का ख़ाका तैयार किया। वक़्त-ज़रूरत भाई जनाब प्रमोद ताम्बट और भाई पल्लव आज़ाद ने भी काफ़ी मदद की। इन सभी साथियों का तहे-दिल से शुक्रिया !
इस मौक़े पर ज़ाहिर है, एक नई ग़ज़ल बनती ही है, वह पेश कर रहा हूं।
अर्ज़ किया है,

             रहेंगे  याद  हम


देख  लो    पीछा  छुड़ा  कर    देख  लो
दो  क़दम  भी   दूर  जा  कर  देख  लो

अब  कहां  वो:  दोस्त  जो  जां  दे  सकें
दांव  ये:  भी   आज़मा  कर   देख  लो

यूं   हमें    उम्मीद    ख़ुद  से  ही  नहीं
हो  सके  तो  तुम  निभा  कर  देख  लो

ख़ाक   हो  के  भी    रहेंगे    याद  हम 
नक़्शे-पा  दिल  से  मिटा  कर  देख  लो

है  मु'अय्यन   मौत  जब  भी  आएगी
एक  पल   आगे   बढ़ा  कर    देख  लो

लाख     बेहतर  है     हमारा  आशियां 
ख़ुल्द  में    फेरा  लगा  कर    देख  लो

वो:     जहां  चाहे     अयां   हो  जाएगा
मयकदे  में  सर  झुका  कर  देख  लो !

                                                     ( 29/10/2013 )

                                                   - सुरेश  स्वप्निल  

शब्दार्थ: ख़ाक: धूल;  नक़्शे-पा: पग-चिह्न;   मु'अय्यन: सुनिश्चित; आशियां: आवास, घर;  ख़ुल्द: ईश्वर का घर, स्वर्ग;   अयां: प्रकट; मयकदा: मदिरालय।     

बुधवार, 23 अक्तूबर 2013

ख़ेराजे-अकीदत: मन्ना दा

                                                      ख़ेराजे-अकीदत: मन्ना  दा

हिंदी फिल्मों के अज़ीम-तरीन गुलूकार जनाब प्रबोध चन्द्र डे उर्फ़ मन्ना डे, अपने करोड़ों मुरीदों के दिल में मेयारी मक़ाम रखने वाले और हम सब के अज़ीज़ फ़नकार मन्ना दा आज अल-फ़जर दुनिया-ए-फ़ानी को अलविदा कह गए…। 'साझा आसमान' उस लाजवाब फ़नकार और लासानी इन्सान को तहे-दिल से अपनी ख़ेराजे-अक़ीदत पेश करता है:


                                       ग़ुरुब  हुआ  वो:  शम्से-मौसिक़ी  अल-सुब्हा 

                                      जिसकी  आवाज़  थी  अज़ां-ए-फ़जर  के मानिंद!


अलविदा,  मन्ना  दा ! अल्लाह आपकी रूह को अपने क़रीब जगह अता करे…. ! आमीन !


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ख़्वाब पर ऐतबार...!

वो:  हक़ीक़त  से  प्यार  करते  हैं
ख़्वाब  पर     ऐतबार    करते  हैं

हो  ज़रूरत    तो   जान  ले  जाएं
हम    ख़ुशी  से   उधार  करते  हैं

हमपे  दावा   न   कीजिए  साहब
आप  आशिक़    हज़ार  करते  हैं

ख़्वाब  आंखों  से  दूर  ही  बेहतर
रूह   को     बेक़रार       करते  हैं

डालिए  ख़ाक  उनपे  जो  शो'अरा
दर्द    का     इश्तिहार     करते  हैं

चांद  से  उनको  दुश्मनी  क्या  है
शबो-शब     शर्मसार     करते  हैं

क़त्ल  कीजे     कभी    क़रीने  से
क्यूं  ज़िबह    बार-बार   करते  हैं

असलहे    आपको    मुबारक  हों
हम  नज़र     धारदार    करते  हैं

हममें  कुछ  है  के:  आसमां  वाले
दोस्तों   में     शुमार     करते  हैं  !

                                                   ( 2013 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ऐतबार: विश्वास; बेक़रार: बेचैन, विचलित;  ख़ाक: धूल, भस्म; शो'अरा: शायर का बहुवचन;  इश्तिहार: विज्ञापन; शबो-शब: निशा-प्रतिनिशा; शर्मसार: लज्जित;  क़रीने से: शिष्टाचार पूर्वक;  ज़िबह: छुरी फेरना; असलहे: शस्त्रास्त्र; आसमां वाले: परलोक वासी, देवता-गण; शुमार: गणना। 

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

बदी न कर बैठें !

ख़ुदी  को  भूल  के   हम  ख़ुदकुशी  न  कर  बैठें
ग़मों  से  टूट  के    ये:   बुजदिली    न  कर  बैठें

ख़ुदा   बचाए     जा   रहे   हैं  वो:   सियासत  में
रवायतों   के   मुताबिक़     बदी     न  कर  बैठें

नज़र  नज़र  में  कर  लिया  किसी  से  अह्दे-वफ़ा
हंसी  हंसी  में     वो:    दीवानगी     न  कर  बैठें

उठाए       ख़ूब       मफ़ायद       चुकाएंगे  कैसे
दबाव  में    वो:   ग़लत  को   सही  न  कर  बैठें

ख़ुदा  पे    हमको     यक़ीं  है    कभी   न  हारेंगे
मगर    जूनून    में    बादाकशी     न  कर  बैठें

की    एक  बार    जो  तौबा    हज़ार  बार  करी
कहीं  ख़ुदा  से  भी  हम  दिल्लगी  न  कर  बैठें !

                                                                  ( 2013 )

                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ुदी: अस्मिता, स्वाभिमान; ख़ुदकुशी: आत्म-घात; बुजदिली: कायरता; सियासत: राजनीति; रवायतों: परम्पराओं; 
मुताबिक़: अनुसार; बदी: अ-कर्म, बुरा काम; अह्दे-वफ़ा: निर्वाह का संकल्प; दीवानगी: पागलपन, मूर्खता;मफ़ायद: फ़ायदा का बहुवचन, लाभ; जूनून: उन्माद; बादाकशी: मद्यपान;  दिल्लगी: परिहास। 

रविवार, 20 अक्तूबर 2013

वारदात बाक़ी है !

रंजो-ग़म  से  निजात  बाक़ी  है
क्यूं  ये:    क़ैदे-हयात   बाक़ी  है

कोई  हमदर्द    आसपास   नहीं
दुश्मनों  की   जमात  बाक़ी  है

एक  हम  ही    नहीं  रहे   बाक़ी
कुल  जमा  कायनात  बाक़ी  है

क़त्लो-ग़ारत  ज़िना-ओ-बदकारी
कौन  सी    वारदात     बाक़ी  है

मौत  कमबख़्त     रास्ते  में  है
और  बदबख़्त    रात  बाक़ी  है

शाह  बे-ख़ौफ़  चाल  चलता  है
पैदली  शह-ओ-मात  बाक़ी  है

उस  गली  पे  ख़ुदा  का  साया  है
जिस गली  में  निशात  बाक़ी  है !

                                               ( 2013 )

                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: निजात: मुक्ति; क़ैदे-हयात: जीवन-रूपी कारावास; हमदर्द: पीड़ा बंटाने वाला; जमात: समूह; कुल जमा  कायनात: समग्र सृष्टि; हत्या और हिंसा; ज़िना-ओ-बदकारी: बलात्कार और दुष्कर्म; वारदात: आपराधिक घटना; कमबख़्त:हतभाग्य; बदबख़्त:अभागी;  
बे-ख़ौफ़: निर्द्वन्द्व; पैदली  शह-ओ-मात: पैदल सेना की चुनौती और विरोधी राजा की हार;  साया: छाँव; निशात: हर्ष। 

शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

ख़ुदा ख़िलाफ़ रहे ...

हुए  हैं  हम  शिकार  जबसे  उसके  अहसां  के
उठा    रहे     हैं  नाज़     बे- शुमार  मेहमां  के

है    फ़िक्रे-दोस्ती    तो   क्यूं  न  हो  गए  मेरे
मिज़ाज    पूछते   हैं    अब   दिले-पशेमां  के

अना   संभाल   के   उड़ते   गए    ख़यालों  में
न  महफ़िलों  के   रहे   और  न    बियाबां के

जहां  में  नाम  है   जिनका   हरामख़ोरी   में
सुबूत   मांग   रहे  हैं    वो:    हमसे  ईमां  के

वक़्त  जाता  है  तो  आंसू  भी  पलट  जाते  हैं
ख़ुदा   ख़िलाफ़    रहे  या  न    रहे  इन्सां  के

करेंगे  लाख  जतन   वो:  शम्अ  बुझाने  के
ख़याल   नेक  नहीं    आज  अहले-तूफ़ां  के

ख़ुदा  भी     देख   रहा  है    इनायतें  उनकी
बने  हुए  हैं  जो  दुश्मन  हमारे  अरमां  के !

                                                            ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: नाज़: नख़रे; बे-शुमार: अगणित; फ़िक्रे-दोस्ती: मित्रता की चिंता; मिज़ाज: हाल-चाल; दिले-पशेमां: लज्जित हृदय; अना: अहंकार;  महफ़िलों: सभा, गोष्ठी; बियाबां: उजाड़, निर्जन प्रदेश; अहले-तूफ़ां: झंझावात के साथी; इनायतें: कृपाएं; अरमां: अभिलाषा। 

घर जला बैठे !

रहे-अज़ल  में  फ़रिश्ते   से  दिल  लगा  बैठे
विसाल  हो  न  सका  मग़फ़िरत  गंवा   बैठे

न  राहे-रास्त  लगा  रिंद    लाख  समझाया
ग़लत  जगह  पे  शैख़    हाथ  आज़मा   बैठे

ख़ुदा  को  रास  न  आया   बयान  शायर  का
सज़ाए-ज़ीस्त    सात   बार   की    सुना  बैठे

हमें  जहां  न  मिला  हम  जहां  को  मिल  न  सके
जहां-जहां      से    उठे     रास्ता    भुला  बैठे

हुआ  हबीब  से  रिश्ता    तो   खुल  गईं  रहें
ख़ुदा  को  याद  किया  और  घर  जला  बैठे !

                                                              ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रहे-अज़ल: मृत्यु-मार्ग; फ़रिश्ते: देवदूत; विसाल: मिलन; मग़फ़िरत: मोक्ष; राहे-रास्त: उचित मार्ग; 
रिंद: मद्यप; शैख़: उत्साही धर्मोपदेशक; सज़ाए-ज़ीस्त: जीवन-दंड;  हबीब: प्रेमी, गुरु, पीर। 

सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

आपकी उमर भी है !

जहां  में  आग  लगी  है  तुम्हें  ख़बर  भी है
तुम्हारे  दिल  पे  किसी  बात  का  असर  भी  है

अभी  है  वक़्त  मुरीदों  की  दुआएं  ले  लो
अदा  है  नाज़  भी  है  आपकी  उमर  भी  है

सहर  भी  आएगी  बादे-सबा  भी  आएगी
अभी  बहार  भी  है  और  दीदावर  भी  है

समझ के  सोच  के  पीना  निगाहे-साक़ी  से
ये:  जाम  राहते-जां  ही  नहीं  ज़हर  भी  है

निखार  दें  नक़ूश  आओ  रू-ब-रू  बैठो
हमारे  पास  आंख  भी  है  और  नज़र  भी  है

अभी  से  हार  न  मानो  उम्मीद  बाक़ी  है
निज़ामे-कुहन  के  आगे नई  सहर  भी  है

हमारा  काम  इबादत  है  हुस्न  हो  के:  ख़ुदा
दुआ  अगर  है  इधर  तो  असर  उधर  भी  है

ख़ुदा  ने  ख़ूब  संवारा  है  ख़ू-ए-शायर  को
एक  ही  वक़्त  सिकन्दर  है  दर-ब-दर  भी  है !

                                                              ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: 



मक़ाम 10000 !

आदाब अर्ज़, दोस्तों !
आज  बहुत अरसे बाद आपसे सीधे मुखातिब हो रहा हूँ। सोच रहा था के 'साझा आसमान' की पहली सालगिरह पर, यानी 29 अक्टूबर को ही बात करूँगा, मगर आपके उन्सो-ख़ुलूस ने मुझे आज वाकई मजबूर कर दिया …
वजह ???
आज आपके 'साझा आसमान' ने एक मक़ाम हासिल किया है, 10,000 बार देखे जाने का !
यह शायद कोई बहुत बड़ी, ख़ुशी या फ़ख़्र की बात नहीं है मगर एक मक़ाम तो है ही !
हमने यह मक़ाम हासिल किया, वह भी सिर्फ़ 350 दिन और 265 पोस्ट्स के ज़रिए !
बधाई तो बनती है, और इसके असली हक़दार हैं आप सभी...क़ारीन और चाहने वाले, अच्छे-बुरे वक़्त में साथ निभाने वाले... !
बहुत-बहुत मुबारक, ख़्वातीनो-हज़रात ! आप सबके प्यार और तअव्वुन के बिना यह मक़ाम हासिल हो पाना मुमकिन नहीं था !
आपका
सुरेश स्वप्निल

जोश का इम्तेहान...

जोश  का  इम्तेहान  हो   जाए
आज    ऊंची   उड़ान  हो  जाए

वो:  अगर  मेहेरबान  हो  जाए
हर  शहर  हमज़ुबान  हो  जाए

काश  गुज़रे  चमन  से  बादे-सबा
ग़ुंच:-ए-दिल   जवान  हो  जाए

खोल  दें  दिल  कहीं  सभी  पे  हम
घर  बुतों  की  दुकान  हो  जाए

बर्फ़  पिघले  ज़रा  निगाहों  की
हर   तमन्ना  बयान  हो  जाए

एक  परवाज़  चाहिए  दिल  से
और  सर  आसमान  हो  जाए !

                                                   ( 2013 )

                                             -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:

रविवार, 13 अक्तूबर 2013

करिश्मा-ए-इश्क़ ...

आसमां  यूं    भी   तेरे  क़र्ज़  उतारे  हमने
लहू-ए-दिल  से  कई  हुस्न  संवारे  हमने    

कहेगी  वक़्ते-अज़ल  रूह  शुक्रिया  तुझको
के:  ये:    लम्हात    तेरे  संग  गुज़ारे  हमने

जहां-जहां  से  भी  गुज़रे  तेरी  दुआओं  से
बुझा  दिए  हैं     नफ़रतों  के  शरारे  हमने

हमारे   हक़    में  फ़रिश्ते  गवाहियाँ  देंगे
दिए  उन्हें  भी  बाज़  वक़्त  सहारे  हमने

ये: करिश्मा-ए-इश्क़  है  के: सामने  हो  के
बदल  दिए  हैं   बुरे  वक़्त  के  धारे  हमने

किया  करें  वो:  शौक़  से  हिजाब  के  दावे
दरख़्ते-तूर  पे      देखे  हैं     नज़ारे  हमने !      

                                                            ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आसमां: परलोक, विधाता; लहू-ए-दिल: ह्रदय का रक्त; हुस्न: सौन्दर्य; वक़्ते-अज़ल: मृत्यु के समय; रूह: आत्मा; 
लम्हात: क्षण ( बहुव.); शरारे: चिंगारियां; फ़रिश्ते:ईश्वर के दूत;  बाज़  वक़्त: समय पड़ने पर, अनेक बार;  करिश्मा-ए-इश्क़: प्रेम का चमत्कार; हिजाब: आवरण में रहना, आवरण में रहने के नियम मानना; दरख़्ते-तूर: कोहे-तूर पर स्थित वह वृक्ष, जिसके पीछे 
हज़रत मूसा अ.स. ने ख़ुदा के रूप ( प्रकाश ) की  एक झलक देखी थी; नज़ारे: दर्शन,  दृश्य।

शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

घर सजाओ कभी...!

सर  उठाओ       कभी    मेरी  ख़ातिर
मुस्कुराओ        कभी    मेरी  ख़ातिर

ज़िंदगी         बेमज़ा       नहीं  इतनी
दिल  लगाओ   कभी     मेरी  ख़ातिर

रास्तों   में          बहार      बिखरी  है
देख  आओ   कभी        मेरी  ख़ातिर

रंजो-ग़म     दिल  को    तोड़  देते  हैं
भूल  जाओ        कभी  मेरी  ख़ातिर

है  तरन्नुम     तुम्हारी     आँखों  में
गुनगुनाओ        कभी  मेरी  ख़ातिर

लौट  जाएं     न    बाम  से  ख़ुशियाँ
घर  सजाओ      कभी  मेरी  ख़ातिर

अश्क    दिल    का     ग़ुरूर  होते  हैं
मत  बहाओ      कभी  मेरी  ख़ातिर

तोड़  कर       बेबसी  की      दीवारें
ज़िद  दिखाओ  कभी  मेरी  ख़ातिर !

                                                  ( 2013 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: 

शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

आशिक़ी की उमर...

वक़्त    गुज़रा    सहर     नहीं  आई
आज     अच्छी   ख़बर    नहीं  आई

क़ैद          सरमाएदार      के  हाथों
रौशनी      लौट    कर     नहीं  आई

रूठ  कर मुफ़लिसी  से  निकली थी
ज़िन्दगी   फिर   नज़र   नहीं  आई

हुस्ने-बेताब      सब्र  तो        कीजे
आशिक़ी    की    उमर    नहीं  आई

शब  ने  मेरे  ख़िलाफ़  साज़िश  की
नींद    कल    रात  भर   नहीं  आई

ख़ुशनसीबी    प'   शेर  क्या  कहते
बात        ज़ेरे-बहर        नहीं  आई

ख़ुल्द  में    तश्न:काम  हैं    ग़ालिब
कोई    उम्मीद    बर    नहीं  आई !

                                          ( 2013 )

                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सहर: उष:काल; सरमाएदार: पूंजीपति; मुफ़लिसी: निर्धनता; हुस्ने-बेताब: अधीर सौन्दर्य; सब्र: धैर्य; 
प्रेम-प्रसंग; साज़िश: षड्यंत्र; ख़ुशनसीबी: सौभाग्य; ज़ेरे-बहर: छन्द में; ख़ुल्द: जन्नत, स्वर्ग;   तश्न:काम: प्यासे;
ग़ालिब: उर्दू शायरी के पीराने-पीर, हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब, विजेता; बर: पूर्ण।


गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

शाह बदकार है...!

दोस्त  समझे    न   आशना  समझे
आप  हमको  न  जाने  क्या  समझे

मुफ़लिसी   का    क़ुसूर    है     सारा
लोग    नाहक़      हमें    बुरा  समझे

वक़्त   पड़ते    ही    चल  दिए  सारे
दोस्तों  को     मेरे    ख़ुदा     समझे

तिफ़्ल   वो:   दूर   तलक   जाता  है
जो  नसीहत  को   भी  दुआ  समझे

शाह      बदकार    है      फ़राउन  है
वक़्त  देखे    न   मुद्द'आ    समझे

क्या  कहें  उस   निज़ामे-शाही  को
आप-हम  को  महज़  गदा   समझे

ये:  ख़ुदा  के   ख़िलाफ़   साज़िश  है
कोई  हमको  अगर   ख़ुदा  समझे !

                                             ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

 शब्दार्थ: आशना: साथी, प्रेमी; मुफ़लिसी: निर्धनता; क़ुसूर: दोष; नाहक: अकारण, निरर्थक; तिफ़्ल: बच्चा; नसीहत: समझाइश; 
दुआ: शुभकामना; बदकार: बुरे काम करने वाला; फ़राउन: मृत्यु के बाद जीवित होने में विश्वास करने वाले मिस्र के निर्दयी शासक, 
जिनकी क़ब्र में उनके सेवकों को उनके शव के साथ जीवित दफ़ना दिया जाता था; महज़: मात्र; गदा: भिखारी।




बुधवार, 9 अक्तूबर 2013

'... ख़ुदा-ख़ुदा कहते !

हिज्र  में        दोस्तों से        क्या  कहते
चल     बसे     बस      ख़ुदा-ख़ुदा  कहते

उम्र   भर        को    मुरीद       कर  लेते
तुमपे  हम   सिर्फ़   इक  क़त'आ  कहते
       
हम    वफ़ा    का     यक़ीन     कर  लेते
तुम         सरे-बज़्म       आशना  कहते

दुश्मनों      में        शुमार       हो  जाते
जो     कभी     उनको      बेवफ़ा  कहते

सी  लिए   लब    तो   रह  गई  इज़्ज़त
लोग   वरना     न   जाने    क्या  कहते

मंज़िलें      मुंतज़िर      हैं      मुद्दत  से
हम   ही    डरते   हैं     अलविदा  कहते

हां,   शिकायत    ख़ुदा  से     कर  आए
ज़ख़्म  को  किस  तरह  शिफ़ा  कहते !'

                                                     ( 2013 )
                               
                                               -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: हिज्र: वियोग; मुरीद: प्रशंसक; क़त'आ: किसी ग़ज़ल के दो अश'आर;  सरे-बज़्म: भरी सभा में, सबके बीच; 
आशना: मित्र,साथी,प्रेमी;  शुमार: गिना जाना; मुंतज़िर: प्रतीक्षारत; शिफ़ा: आरोग्य।  


मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

कारवां नहीं मिलते !

तेरे  शहर  में     ख़ुदा  के    निशां    नहीं  मिलते
उफ़क़   तलक   पे    ज़मीं-आस्मां  नहीं  मिलते

नज़र  की  बात  है   कम्बख़्त  जहां   जा  अटके
दिलों   को     लूटने   वाले     कहां   नहीं  मिलते

न  दिल  में  सब्र  न  नज़रों  में  कहीं  शर्म-हया
हवस  के  दौर  में   दिल  के  बयां  नहीं  मिलते

तेरे   शहर   में    रह  के   जान  लिया  है  हमने
यहां      वफ़ापरस्त      नौजवां      नहीं  मिलते

सियासतों   ने     दिलों    में   दरार     वो:  डाली
मुसीबतों    के    वक़्त    हमज़ुबां  नहीं  मिलते

कली-कली  है   अश्कबार  अपनी  क़िस्मत  पे
सरे-बहार       उन्हें      बाग़बां      नहीं  मिलते

कठिन  डगर  है  किसी  हमसफ़र  का  साथ  नहीं
रहे-ख़ुदा    में      कभी      कारवां     नहीं  मिलते !

                                                                  ( 2013 )

                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: उफ़क़: क्षितिज; हवस: काम-वासना; हया: लज्जा; वफ़ापरस्त:निर्वाह करने वाले; हमज़ुबां: सह-भाषी, अपनी भाषा बोलने वाले; अश्कबार: आंसू बहाती हुई; सरे-बहार: बसंत के मध्य; बाग़बां: माली; हमसफ़र: सहयात्री; ईश्वरका मार्ग; कारवां: यात्री-समूह !


सोमवार, 7 अक्तूबर 2013

ख़्वाबीदा उर्फ़ रखते हैं

मरहले     रास्ता      नहीं  होते
मंज़िलों  का    पता  नहीं  होते

मालो-ज़र  से  जिन्हें  मुहब्बत  है
वो:      हबीबे-ख़ुदा   नहीं  होते

मुस्कुराना    अगर     नहीं  आता
तुम   मेरा    मर्तबा    नहीं  होते

काश !  इस्लाह  आप  सुनते  तो
तंज़  का     मुद्द'आ     नहीं  होते

आप  सज्दा  न  कीजिए  उनको
आदमी       देवता      नहीं  होते

अश्क  ज़ाया  न  कीजिए  अपने
ये:    ग़मों  की  दवा   नहीं  होते

वो:  जो  ख़्वाबीदा  उर्फ़  रखते  हैं
ख़्वाब    उनसे   जुदा  नहीं  होते !

                                          ( 2013 )

                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मरहले: पड़ाव; मालो-ज़र: धन-दौलत; हबीबे-ख़ुदा: ख़ुदा के प्रिय, पीर; मर्तबा: लक्ष्य, प्रतिष्ठा;  इस्लाह: सुझाव; तंज़: व्यंग; मुद्द'आ: आस्पद, विषय; सज्दा: सिर झुका कर प्रणाम करना; ज़ाया: व्यर्थ;  ख़्वाबीदा: स्वप्निल; उर्फ़: उपनाम !

रविवार, 6 अक्तूबर 2013

दीवाने हम हुए...!

जन्नत  से  लौट  आए  तेरे  एहतराम  में
सौग़ाते-शबे-वस्ल  मिले  अब  इनाम  में

इस  दौरे-मुफ़लिसी  में  आ  रहे  हैं  वो:  मेहमां
दीवाने    हम   हुए   हैं      इसी    इंतज़ाम  में

तौहीने-इश्क़    क्यूं  न   इसे  मानिए  जनाब
जो  मुस्कुरा  रहे  हैं  आप  जवाबे-सलाम  में

अब  वो:  भी  समझ  जाएं  के:  हम  दर-बदर  नहीं
भेजे  हैं  गुल    हमें  भी   किसी  ने  पयाम  में

ग़ाफ़िल  है  शाहे-हिन्द  जिसे  ये:  ख़बर  नहीं
दस्तार    तार-तार    है    उसकी   अवाम  में

उस  शाह  को  रैयत  पे  हुक़ूमत  का  हक़  नहीं
मरते  हों  तिफ़्ल  भूख  से  जिसके  निज़ाम  में

इस  दारे-सियासत  की  हक़ीक़त  है  बस  यही
'उरियां   खड़े  हुए   हैं    सभी    इस  हमाम  में !

                                                              ( 2013 )

                                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:  एहतराम: सम्मान; सौग़ाते-शबे-वस्ल: मिलन-निशा का उपहार; दौरे-मुफ़लिसी: निर्धनता-चक्र; तौहीने-इश्क़: प्रेम का अपमान; पयाम: प्रेम-सन्देश; ग़ाफ़िल: दिग्भ्रमित; दस्तार: पगडी; अवाम:जन-सामान्य; रैयत: शाषित; तिफ़्ल: शिशु; निज़ाम: शासन-व्यवस्था; दारे-सियासत: राजनैतिक संसद; हक़ीक़त: वास्तविकता; 'उरियां: निर्वस्त्र; हमाम: सार्वजनिक स्नानागार !  

                       






शनिवार, 5 अक्तूबर 2013

ख़ाक की अमानत

दिल्लगी      भूल    जाइए  साहब
दिल  लगा  के    दिखाइए  साहब

शे'र    यूं  ही    नहीं  हुआ  करता
कोई     सदमा     उठाइए  साहब

चश्मे-नम    सुर्ख़   हुई    जाती  है
और     कितना    सताइए  साहब

जिस्मो-दिल  ख़ाक की  अमानत हैं
रू:   से    रिश्ता     बनाइए  साहब

हम  समन्दर-सा   ज़र्फ़  रखते  हैं
शौक़  से      डूब      जाइए  साहब

ये:  फ़क़ीरी  है    घर    जला  देगी
सोच  कर    पास    आइए  साहब

उम्र     बीती  है    बुतपरस्ती  में
ख़ाक       ईमां    बचाइए  साहब !

                                            ( 2013 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: दिल्लगी: हास-परिहास, विनोद; सदमा: दु:ख का आघात; चश्मे-नम: भीगी आंख; सुर्ख़: रक्तिम; जिस्मो-दिल: शरीर और  मन; ख़ाक: मिट्टी, धूल; अमानत: धरोहर; रू: : रूह, आत्मा;  ज़र्फ़: गहराई; फ़क़ीरी: वैराग्य; बुतपरस्ती: मूर्त्ति-पूजा, मानवीय सौन्दर्य की पूजा; ईमां: ईश्वर में आस्था !   

शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

पांव फिसला अगर...

टूट  जाए  न  दिल  दिल्लगी  में  कहीं
आप  संजीदा  हों    ज़िंदगी    में  कहीं

हमको  ख़ुद से ये: उम्मीद हर्गिज़ न थी
घर   लुटा  आए    बाद:कशी    में  कहीं

हर  शबे-वस्ल  में  इक  नसीहत  भी  है
दर्द  भी   है  निहां    आशिक़ी   में  कहीं

एक  से  एक  दाना  हैं  इस  बज़्म  में
राज़  ज़ाहिर  न  हो  ख़ामुशी  में  कहीं

आज  हैं  हम  यहां  कल  गुज़र  जाएंगे
आ  मिलेंगे  कभी  ख़्वाब  में  ही  कहीं

मांगते  हैं    ख़ुदा  से  दुआ   हम  यही
अब  नज़र  आइए   आदमी  में  कहीं

तय  है  गिरना  निगाहों  में  अल्लाह  की
पांव  फिसला   अगर    बे-ख़ुदी  में  कहीं !

                                                        ( 2013 )

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: संजीदा: गंभीर; बाद:कशी:मद्यपान की लत; शबे-वस्ल: मिलन-निशा; नसीहत: शिक्षा;  निहां: छिपा हुआ; 
            दाना: विद्वान; बज़्म: सभा, गोष्ठी; बे-ख़ुदी: अन्यमनस्कता !

बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

अक़ीदत का खेल

रग़ों  में    ख़ून   नहीं    जिस्म   में    सुरूर  नहीं
ये:     तकाज़ा-ए-उम्र     है     मेरा    क़ुसूर  नहीं

न  जाने  किसने  इस  अफ़वाह  को  हवा  दी  है
हमने  पाया  है  के:  जन्नत  में  कोई  हूर  नहीं

नज़र   का  फेर    अक़ीदत  का  खेल   है  सारा
ख़ुदा  अगर  है  तो  इंसां  के  दिल  से  दूर  नहीं

उम्र  फ़ाक़ों  में    जो  गुजरे    तो  शान  है  मेरी
ग़ैर  के  हक़  का    निवाला    मुझे  मंज़ूर  नहीं

तमाम  बुत    मेरे  घर  का    तवाफ़  करते  हैं
ये:  और  बात  के:    इसका  मुझे    ग़ुरूर  नहीं

तमाम  उम्र  ये:   अफ़सोस   सताएगा  मुझको
मेरे   शजरे   में    ज़िक्रे  मूसा-ओ-मंसूर   नहीं

कहां  पे  चढ  के  पुकारूं  तुझे  के:  तू  सुन  ले
मेरे   शहर  के    आस-पास     कोहे-तूर  नहीं !

                                                           ( 2013 )

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रग़ों: धमनियों;  सुरूर: नशा, हलचल; तकाज़ा-ए-उम्र: आयु के लक्षण; क़ुसूर: दोष; जन्नत: स्वर्ग; हूर: अप्सरा;अक़ीदत:आस्था; फ़ाक़ों: लंघनों, उपवासों; ग़ैर: पराए;  हक़: अधिकार, हिस्सा; निवाला: कौर; बुत: देव-मूर्त्तियां, देवता; तवाफ़: परिक्रमा; ग़ुरूर: अभिमान;  शजरे: वंश-वेलि;  ज़िक्रे  मूसा-ओ-मंसूर: हज़रात मूसा और मंसूर, इस्लाम के महानतम दार्शनिक, मूसा द्वैत और मंसूर अद्वैत के प्रचारक, का उल्लेख; कोहे-तूर: अंधेरे का पर्वत, काला पर्वत, मिथक के अनुसार अरब के शाम में स्थित इसी पर्वत पर हज़रत मूसा ख़ुदा से संवाद करते थे !

हक़ीक़त बता दीजिए !

हो  सके  तो    जहां  को    वफ़ा  दीजिए
दुश्मनी  ही  सही    पर    निभा  दीजिए

जो  शिकायत  है  हमको  बता  दीजिए
ग़ैर   के   हाथ     क्यूं    मुद्द'आ  दीजिए

चांद  बे-मौत   मर  जाए   न    शर्म  से
बेख़ुदी  में    न  चिलमन   उठा  दीजिए

दौलते-हुस्न    किसकी    ज़रूरत  नहीं
इसलिए  क्या  ख़ज़ाने  लुटा  दीजिए ?

उम्र  तो   इश्क़   का    मुद्द'आ  ही  नहीं
क्यूं  न  सबको  हक़ीक़त  बता  दीजिए

साहिबे-दिल  हैं  हम  आप  मलिकाए-दिल
दो-जहां   में     मुनादी      करा  दीजिए !

                                                         ( 2013 )

                                                  -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:





मंगलवार, 1 अक्तूबर 2013

निगाहें चुरा लीजिए

दर्द   है  कुछ  अगर   तो   दवा  लीजिए
जो  न  हो  तो  हमीं  को  बुला  लीजिए

रूठ  के  हम  भी  आख़िर  कहां  जाएंगे
क्या  बुरा  है  जो  हमको  मना  लीजिए

बात-बेबात    दिल  जो     धडकने  लगे
नब्ज़  हमको  किसी  दिन  दिखा  लीजिए

आप  को    शैख़    किसने    बुलाया  यहां
मैकदा     है      मियां      रास्ता   लीजिए

सुबह    की    सैर    में     ढूंढते      जाइए
दिल    पडा    है     हमारा    उठा  लीजिए

अपने  आमाल  पे    अब   नज़र  डालिए
रूह    को    साफ़-सुथरा     बना  लीजिए

ज़र्रे-ज़र्रे   में     हम    ही   नज़र  आएंगे
हो   सके    तो    निगाहें    चुरा   लीजिए !

                                                   ( 2013 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शैख़: धर्म-भीरु, मैकदा: मदिरालय, आमाल: आचरण, ज़र्रे-ज़र्रे में: कण-कण में !