मैं शीशा हूं, वो पत्थर था
वही टूटा, जो कमतर था
न पीता मैं तो क्या करता
तिरी आंखों में साग़र था
यक़ीं सबने किया मुझ पर
मैं जो अंदर था, बाहर था
हमारे दिल की मत पूछो
हमेशा से समंदर था
ज़माने को बदल देता
अगर वो शख़्स साहिर था
मिटा डाला हमें दिल ने
न दिल होता तो बेहतर था
ख़ुदा का ख़ौफ़ था सबको
मुझे इंसान का डर था
ख़ुदा मैं हो नहीं पाया
मिरा हर राज़ ज़ाहिर था !
(2014)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: शीशा: कांच; कमतर: हीन; साग़र: मदिरा-पात्र; यक़ीं: विश्वास; समंदर: समुद्र; शख़्स: व्यक्ति; साहिर: मायावी, माया रचने वाला; ख़ौफ़: भय; राज़: रहस्य; ज़ाहिर: प्रकट।
वही टूटा, जो कमतर था
न पीता मैं तो क्या करता
तिरी आंखों में साग़र था
यक़ीं सबने किया मुझ पर
मैं जो अंदर था, बाहर था
हमारे दिल की मत पूछो
हमेशा से समंदर था
ज़माने को बदल देता
अगर वो शख़्स साहिर था
मिटा डाला हमें दिल ने
न दिल होता तो बेहतर था
ख़ुदा का ख़ौफ़ था सबको
मुझे इंसान का डर था
ख़ुदा मैं हो नहीं पाया
मिरा हर राज़ ज़ाहिर था !
(2014)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: शीशा: कांच; कमतर: हीन; साग़र: मदिरा-पात्र; यक़ीं: विश्वास; समंदर: समुद्र; शख़्स: व्यक्ति; साहिर: मायावी, माया रचने वाला; ख़ौफ़: भय; राज़: रहस्य; ज़ाहिर: प्रकट।