दौर-ए-हिजरां में इक उम्मीद-ए-वफ़ा साथ रहे
चंद दिलशाद हसीनों की दुआ साथ रहे
दिल न दे तू मुझे अपनी तस्बी: दे दे
तू कहीं हाथ छुड़ा ले तो ख़ुदा साथ रहे
यूँ तो ईमां है मेरा इश्क़-ए-बुताँ पे लेकिन
हद से गुज़रूं तो मुअज्ज़िन की सदा साथ रहे
ज़ख़्म दर ज़ख़्म हुआ जाता है संदल-संदल
है शब-ए-वस्ल-ए-सनम बाद-ए-सबा साथ रहे
ऐ अदम तुझसे मिलेंगे तो मसर्रत होगी
काश उस वक़्त मेरी आन-ओ-अना साथ रहे।
(2009)
-सुरेश स्वप्निल