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गुरुवार, 6 अगस्त 2015

सरकार से ख़ुश !

निगाहे-यार    से   ख़ुश  हैं
नज़र  के  वार  से  ख़ुश  हैं

शहर   के  लोग     दीवाने
नए  बाज़ार  से    ख़ुश  हैं

मकीं  बेज़ार  हैं   ख़ुद  से
दरो-दीवार  से    ख़ुश  हैं

वो  अपनी  फ़त्ह  से  ज़्यादा
हमारी  हार  से  ख़ुश  हैं

फ़क़ीरी  के  दिनों  में  हम
ख़्याले-यार  से  ख़ुश  हैं

मियां  की   सादगी   देखो
कि  बस  दस्तार  से  ख़ुश  हैं

ज़माने-भर   के    बे- ईमां
तेरी  सरकार  से  ख़ुश  हैं !

                                                                 (2015)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मकीं: मकान में रहने वाले; बेज़ार: व्यथित; दरो-दीवार: द्वार एवं भित्ति; फ़त्ह: विजय; फ़क़ीरी: सन्यास, भिक्षुक-वृत्ति; 
ख़्याले-यार: प्रिय/ईश्वर का ध्यान; सादगी: निस्पृहता; दस्तार: पगड़ी/बड़ा पद; बे- ईमां: भ्रष्टाचारी।