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शनिवार, 31 अक्तूबर 2015

शाह की जूतियां...

है  इरादा  हमें  मिटाने  का
तो  हुनर  सीख  लें  सताने  का

वो  कहीं  जान  को  न  आ  जाएं
कौन  दे  मश्विरा  निभाने  का

आपके  पास  सौ  बहाने  हैं
ढब  नहीं  काम  कर  दिखाने  का

कांपते  हैं  पतंग  उड़ाने  में
ख़्वाब  है  आस्मां  झुकाने  का

आज  इक़बाले-जुर्म  कर  ही  लें
फ़ायदा  क्या  मियां ! छुपाने  का

क़र्ज़  क्यूं  लीजिए  ज़माने  से
माद्दा  जब  नहीं  चुकाने  का

कोई  अफ़सोस  नहीं  शाहों  को
मुल्क  की  आबरू  लुटाने  का

हो  गया  शौक़  होशियारों  को
शाह  की  जूतियां  उठाने  का

बेघरों  के  मकां  बनाएंगे
है  जिन्हें  मर्ज़  घर  जलाने का!

                                                                     (2015)

                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: इरादा:संकल्प; हुनर : कौशल; मश्विरा : सुझाव, परामर्श; ढब:ढंग; ख़्वाब: स्वप्न, आकांक्षा; आस्मां: आकाश; 
इक़बाले-जुर्म : अपराध की स्वीकारोक्ति; माद्दा: सामर्थ्य; अफ़सोस:खेद; आबरू:प्रतिष्ठा; मकां: आवास; मर्ज़: रोग ।

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2015

तीसरी सालगिरह : ज़ुल्म का दायरा

कौन-सा   ग़म  पिएं  बता  दीजे
और  कब  तक   हमें  दग़ा  दीजे

आपके     पास   तो    किताबें  हैं
आप    मुजरिम  हमें   बना दीजे

दुश्मने-अम्न    की   हुकूमत   है
ख़्वाबो-उम्मीद   को   सुला  दीजे


ताज-ओ-तख़्त,सल्तनत रखिए
मुल्क  का   क़र्ज़  तो  चुका  दीजे

दाल-चावल, पियाज़  सब  मंहगे
क़ौम  को  और  क्या  सज़ा  दीजे

जिस्म  में  जान  है  अभी   बाक़ी
ज़ुल्म     का    दायरा   बढ़ा   दीजे

लोग      बेताब   हैं    बग़ावत   को
तोप  का   मुंह   इधर   घुमा   दीजे

सर    झुकाना    हमें    नहीं   आता
आप     चाहे    हमें    मिटा     दीजे !
                                                                   (2015)

                                                            -सुरेश स्वप्निल 

शब्दार्थ: दग़ा:छल, कपट; किताबें: पुस्तकें, यहां आशय धर्म-विधि की पुस्तकें; मुजरिम: अपराधी; दुश्मने-अम्न : शांति का शत्रु; हुकूमत: सरकार, शासन; ख़्वाबो-उम्मीद: स्वप्न और आशा; ताज-ओ-तख़्त: मुकुट और सिंहासन; सल्तनत: राज-पाट; मुल्क:देश; क़ौम : राष्ट्र; सज़ा: दंड; जिस्म: देह; ज़ुल्म: अत्याचार; दायरा: व्याप्ति, घेरा; बेताब: उत्कंठित; बग़ावत : विद्रोह ।

बुधवार, 28 अक्तूबर 2015

...गुनाह करते हैं !

सर  उठा  कर  गुनाह  करते  हैं
शाह  दुनिया  तबाह  करते  हैं

आप  जज़्बात  रोक  लेते  हैं
बाद  में  आह-आह  करते  हैं

इश्क़  में  नूर  चाहने  वाले
चांदनी  को  गवाह   करते  हैं

इश्क़  हो,  जंग  हो,  बग़ावत  हो
जुर्म  हम  बेपनाह  करते  हैं

दुश्मनों  ने  नहीं  किया  जो  कुछ
काम  वो  ख़ैरख़्वाह  करते  हैं

है  अक़ीदत  जिन्हें  मुहब्बत  में
सब  लुटा  कर  निबाह  करते  हैं

क़र्ज़  में  दब  चुके  जवां  दहक़ां
क़ब्र  को  ख़्वाबगाह  करते  हैं

 वो  दुआ  मांग  लें  जहां  रुक  कर
हम  वहीं  ख़ानकाह  करते  हैं  !

                                                                                       (2015)

                                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: गुनाह : अपराध; तबाह: उद्ध्वस्त; जज़्बात : भावनाएं; नूर: प्रकाश, उज्ज्वलता ; गवाह:साक्षी; जंग: युद्ध; बग़ावत:विद्रोह; जुर्म:अपराध; बेपनाह:असीम, अत्यधिक; ख़ैरख़्वाह:शुभचिंतक; अक़ीदत : आस्था; क़र्ज़ : ऋण ; जवां  दहक़ां : युवा कृषक; क़ब्र: समाधि; ख़्वाबगाह : अंतिम शयन-स्थल, स्वप्नागार; दुआ : शुभेच्छा; मान्यता; ख़ानकाह : पीरों का स्मरण करने, मन्नत करने का स्थान, मज़ार।


सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

मुश्किलों का करम...

उम्र  भर  फ़लसफ़ा  रहा  अपना
दर्द  ज़ाहिर  नहीं  किया  अपना

आज  दिल  की  बयाज़  खोली  थी
कोई  सफ़्हा  नहीं  मिला  अपना

तंज़   का     भी     जवाब  दे  देते
दोस्त  हैं, दिल  नहीं  हुआ  अपना

हद  बता  दी    शराब  की    हमने
शैख़    जानें    भला-बुरा    अपना

बुतकदे    आपको    मुबारक   हों
हम  भले   और    मैकदा  अपना

मुश्किलों  का  करम  रहा  हम  पर
दर    हमेशा    रहा  खुला   अपना

लोग     सैलाब    मानते  हैं   जब
रोकता    कौन    रास्ता    अपना

मंज़िलें   ख़ुद   क़रीब   आ  बैठीं
देखता   रह  गया   ख़ुदा  अपना !

                                                                                      (2015)

                                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़लसफ़ा:दर्शन, सोच; ज़ाहिर:प्रकट, व्यक्त; बयाज़:दैनंदिनी, डायरी; सफ़्हा:पृष्ठ; तंज़:व्यंग्य; हद: सीमा; शैख़ :धर्मोपदेशक; बुतकदे: देवालय; मैकदा: मदिरालय; करम:कृपा; दर:द्वार; सैलाब:बाढ़; मंज़िलें : लक्ष्य ।

                                                                       

शनिवार, 24 अक्तूबर 2015

सख़्त ख़ाल हो, तो...

कोई  बेहतर  ख़्याल  हो  तो  लाओ
ज़िंदगी  का   सवाल  हो  तो  लाओ

शाह  है  मुल्क  बेचने  की  धुन  में
कोई क़ाबिल  दलाल हो  तो  लाओ

मुर्ग़ियां  खा के थक चुके हैं  हम भी
माश  या  मूंग   दाल  हो  तो  लाओ

शायरों   को   'ख़ुदा'   रक़्म   बांटेगा
आप भी  सख़्त ख़ाल  हो  तो  लाओ

दाल  दिल्ली  में  हो  गई  है  सस्ती
हाथ  में  नक़्द  माल  हो  तो  लाओ

है  ज़रूरत  तमाम  चीज़ों  की  अब
नौकरी  फिर  बहाल  हो  तो  लाओ

'सर झुका कर  नियाज़  ही  ले आते'
आपको  यह  मलाल  हो  तो  लाओ !

                                                                    (2015)

                                                              -सुरेश  स्वप्निल  

शब्दार्थ: क़ाबिल: योग्य, दलाल: मध्यस्थ; माश: उड़द; नियाज़: पूर्वजों/मृतकों के सम्मान में किया जाने वाला भोज, भंडारा; 
मलाल:खेद, दुःख ।



  

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2015

दरिंदों के हवाले...

दिल  जलाते  हैं  तो  अश्कों  से  बुझा  देते  हैं
क्या  मुदावा  है   कि   तकलीफ़  बढ़ा  देते  हैं

ख़ूब  है   बज़्मे-सुख़न    ख़ूब   क़वायद   उनके
शम्'.अ  आती  है तो  महफ़िल  से  उठा  देते  हैं

वो    ग़रीबों  को    सरे-आम    जला  कर  ज़िंदा
नाम  फिर  ख़ुद  का   शहीदों  में  लिखा  देते  हैं

कर   दिया     मुल्क    दरिंदों  के    हवाले  ऐसे
बात   हक़  की  हो   तो   गर्दन  ही  दबा  देते  हैं

नेक   आमाल     रहे    शाह    तो   हंसते  हंसते
लोग   तो   मुल्क    पे      ईमान   लुटा   देते  हैं

सल्तनत  आज  है  कल  और  किसी  की  होगी
वक़्त    बदले    तो    फ़रिश्ते   भी   दग़ा  देते  हैं

वक़्त    ऐसा    भी    नहीं    है   कि   दुआएं  मांगें
पीरो-मुर्शिद    भी  तो    एहसान   जता    देते  हैं  !

                                                                                              (2015)

                                                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अश्कों: आंसुओं; मुदावा : उपचार ; बज़्मे-सुख़न:सृजन गोष्ठी; क़वायद : नियमावली;  शम्'.अ : यहां अर्थ बारी ; महफ़िल: सभा ; सरे-आम: सबके सामने;  दरिंदों: हिंसक पशुओं; हक़ : अधिकार, न्याय; नेक आमाल:सदाचारी;  ईमान : आस्था; सल्तनत: राज्य; 
फ़रिश्ते: देवदूत; दग़ा: द्रोह; पीरो-मुर्शिद: संत-महंत; एहसान : अनुग्रह ।




मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

ख़ंजर देखा है ...

जिन  आंखों  ने  शोख़  समंदर  देखा  है
आज  उन्हीं  ने  ख़ाली  साग़र   देखा  है

नाहक़  उसका ज़र्फ़  ख़बर  में  रहता  है
हमने  भी  तो   ग़ोता  खा   कर  देखा  है

बेज़ारी  बदहाली  जिन्सों  की  तंगी
हर मुश्किल  ने  मेरा  ही  घर  देखा  है

कितने ग़म  कितने सदमे  कितनी  आहें
तुमने  कब  इस  दिल  के  अंदर  देखा  है

उन  बच्चों  से  पूछो  जिनकी  आंखों  ने
वालिद  के  सीने  में   ख़ंजर  देखा  है

ग़ैरतमन्दों !  ख़ुद  पर  भी  लानत  भेजो
गर   चुप  रह  कर  ख़ूनी  मंज़र  देखा  है

ज़िक्र  कर्बला  का  होते  ही  मजलिस  में
हमने  हर  दामन   ख़ूं    से  तर  देखा  है  !

                                                                                       (2015)

                                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शोख़: चंचल, तरंगित; समंदर:समुद्र; साग़र:मदिरा पात्र; नाहक़: बिना तर्क के, निरर्थक; ज़र्फ़:गहनता; ग़ोता: डुबकी; बेज़ारी:चिंता; बदहाली: बुरा समय; जिन्सों: वस्तुओं; तंगी: अभाव; सदमे:आघात; वालिद:पिता;   ख़ंजर: क्षुरा; ग़ैरतमन्दों : स्वाभिमानियों; लानत: निंदा; गर: यदि; ख़ूनी मंज़र: रक्त-रंजित दृश्य; ज़िक्र: उल्लेख; कर्बला: वह रणक्षेत्र जहां हज़रत हुसैन अलैहि सलाम और उनकी संतानों का यज़ीद की सेनाओं ने नृशंसता पूर्वक वध किया था; मजलिस:सभा, यहां आशय मुहर्रम में कर्बला के शहीदों के शोक में की जाने वाली सभा; 
दामन: हृदय-क्षेत्र; ख़ूं से तर :रक्त-रंजित ।


रविवार, 18 अक्तूबर 2015

टोपी लगा लें ...

सियासत    की    ख़बर    अच्छी  नहीं  है
कहानी        मुख़्तसर      अच्छी  नहीं  है

यहां      आ    जाओ   तो    बेहतर  रहेगा
वहां        शामो-सह्र         अच्छी  नहीं  है

तवज्जो     तरबियत    पर    दें  ज़रा  सी
मुहब्बत    को     उम्र       अच्छी  नहीं  है

कभी    तो    दोस्तों    की     बात  सुन  लें
बहस   हर   बात  पर       अच्छी  नहीं  है

अगर   कुछ  कर  सकें   तो   कर  दिखाएं
शिकायत   दर - ब - दर   अच्छी  नहीं  है

कड़े    दिन   हैं,  मियां  !   टोपी   लगा  लें
फ़रिश्तों   की      नज़र    अच्छी  नहीं  है

हंसें   या   रोएं   अब   इस  बात  पर  हम
ग़ज़ल    उम्दा     मगर    अच्छी  नहीं  है !

                                                                                       (2015)

                                                                                -सुरेश   स्वप्निल 

शब्दार्थ: मुख़्तसर: संक्षेप में; शामो-सह्र: संध्या और प्रातः; तवज्जो:ध्यान; तरबियत: शिक्षा-दीक्षा, संस्कार; फ़रिश्तों: देवदूतों ।


शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

तजुर्बा-ए-इश्क़ ...

हम  नहीं   ऐतबार  के  क़ाबिल
क़त्ल  के  रोज़गार  के  क़ाबिल

पूछती  हैं    हवाएं    मौसम  से
क्या  शह्र  हैं  बहार  के क़ाबिल

सच यही है कि आप भी कब हैं
दोस्तों  में   शुमार  के  क़ाबिल

मुंतख़ब कर लिया  जिसे तुमने
वो:  नहीं  इक़्तिदार के  क़ाबिल

जिस्मे-हिन्दोस्तान   कहता  है
दिल नहीं अब दरार के  क़ाबिल

यूं   तजुर्बा-ए-इश्क़   अच्छा  है
पर  नहीं  बार-बार  के  क़ाबिल

देख  लें  आप  भी  अज़ां  दे  कर
गर  ख़ुदा  हो  पुकार  के  क़ाबिल !

                                                                     (2015)

                                                              -सुरेश स्वप्निल 

शब्दार्थ: ऐतबार:विश्वास; क़ाबिल: योग्य; क़त्ल:हत्या; रोज़गार: व्यवसाय; शह्र: नगर; बहार : बसंत; शुमार: गणना; मुंतख़ब:निर्वाचित; इक़्तिदार:सत्ता, शासन चलाना; जिस्मे-हिन्दोस्तान: भारत का शरीर, दरार:संधि;   तजुर्बा-ए-इश्क़: प्रेम का प्रयोग; पुकार:आव्हान।


गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

... डर गए ? !

आप   तो    बादे-सबा   से     डर  गए
क्या हुआ,  किसकी वफ़ा से  डर  गए

हम    उलझते  ही   नहीं   मुंहज़ोर  से
वो   समझता  है   अना  से    डर  गए

ना-तजुर्बेकार       की      बख़्शीश  हो
शैख़     हूरों  की     अदा  से    डर  गए

क्या  बताएं,    कौन  है    उनका  ख़ुदा
जो  मुअज़्ज़िन  की  सदा  से  डर  गए

शो'अरा  की   मग़फ़िरत   यूं  भी  नहीं
आप    नाहक़    बद्दुआ   से     डर  गए

नाज़  था  किस  बात  पर  मूसा  तुम्हें
एक    नन्हीं-सी   शुआ  से    डर   गए

अब  हमें  काफ़िर  न  कहिए,  दोस्तों
देखिए,  हम  भी   ख़ुदा  से    डर   गए  !

                                                                       (2015)

                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: बादे-सबा: प्रभात समीर, वफ़ा:निष्ठा; मुंहज़ोर:असभ्यता से बात करने वाला; अना: ठसक; ना-तजुर्बेकार:अननुभवी; बख़्शीश:क्षमा; शैख़: धर्म-भीरु;   हूरों: अप्सराओं; मुअज़्ज़िन की सदा:अज़ान; अदा:भाव-भंगिमा; शो'अरा: शायर (बहुव.); मग़फ़िरत:मुक्ति; नाहक़:व्यर्थ; बद्दुआ:श्राप, अशुभकामना;  नाज़: गर्व; मूसा:हज़रत मूसा अलैहि सलाम, इस्लाम के द्वैत वादी दार्शनिक; शुआ: किरण; काफ़िर:नास्तिक।

                                                                        

सोमवार, 12 अक्तूबर 2015

ख़्वाब से हसद...

सामने  सिर्फ़  अपना  क़द  रक्खे
कौन  उस  ज़ार  पर  अहद  रक्खे

वो  नहीं    ऐतिबार  के     क़ाबिल
जो  ज़ुबां  पर  फ़क़त  शहद  रक्खे

एक      पुरसाने-हाल    तो    आए
हैं     पड़े    दश्त  में     रसद  रक्खे

महफ़िले-शौक़   में   न   आ   पाए
हुस्न  पर  जो    निगाहे-बद  रक्खे

उसको   ख़्वाबों  से   दूर  ही  रखिए
जो  किसी   ख़्वाब  से  हसद  रक्खे

यार   कीजे    उसी     फ़रिश्ते    को
जो  नज़र  में  न  ख़ालो-ख़द  रक्खे

कामरां      इश्क़    में    वही    होगा
दिल  जो  बस, एक  ही  अदद  रक्खे !

                                                                        (2015)

                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: क़द:आकार; ज़ार:जन-विरोधी, अत्याचारी शासक; अहद:संकल्प; ऐतिबार:विश्वास; क़ाबिल: योग्य; फ़क़त:केवल; पुरसाने-हाल:हाल पूछने वाला; दश्त:वन; रसद:मार्ग में जीवन-यापन की सामग्री; महफ़िले-शौक़:सुरुचिपूर्ण सभा, काव्य या कला-गोष्ठी आदि;  निगाहे-बद:कुदृष्टि; हसद:ईर्ष्या; यार:संगी, निकट मित्र; फ़रिश्ते:देवदूत; ख़ालो-ख़द:शारीरिक विशेषताएं, रंग-रूप; कामरां:विजेता, सफल; अदद: नग।

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

ख़रों को हुकूमत ...

बुरा  वक़्त  है  ज़ब्त  करना  पड़ेगा
अना  को  कई  बार   मरना  पड़ेगा

यहां  ज़ुल्म  की  आंधियां  चल  रही  हैं
सबा-ए-सुख़न   को   ठहरना  पड़ेगा

हवा  को  मुआफ़िक़  बनाने  की  ज़िद  में
कड़े   इम्तिहां    से    गुज़रना  पड़ेगा

सियासत  के  अंदाज़  से  लग  रहा  है
कि   लुच्चे-लफ़ंगों  से   डरना  पड़ेगा

जलेगी  शम्'.अ  इल्म  की  जब  दिलों  में
निज़ामे-कुहन   को   बिखरना  पड़ेगा

रिआया  अगर  उठ  खड़ी  हो  किसी  दिन
तो   हर  हुक्मरां  को   सुधरना   पड़ेगा

हमीं  ने    ख़रों  को    हुकूमत    थमाई
हमीं  को  ये  ख़मियाज़:  भरना  पड़ेगा

मिरे    सब्र  की    इंतेहा     गर   हुई  तो
ख़ुदा   को    ज़मीं  पर    उतरना   पड़ेगा !

                                                                                   (2015)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़ब्त: सहन; अना: अस्मिता; ज़ुल्म: अत्याचार; सृजन की शीतल पवन; मुआफ़िक़:अपने योग्य; इम्तिहां:परीक्षा; सियासत:राजनीति; अंदाज़: शैली, हाव-भाव; लुच्चे-लफ़ंगों: दुश्चरित्र उपद्रवियों; शम्'.अ: लौ; इल्म:ज्ञान, शिक्षा, बोध; निज़ामे-कुहन: अंधकार का साम्राज्य; रिआया: शासित समूह, सामान्य नागरिक;  हुक्मरां: शासक, अधिकारी; ख़रों: गधों; हुकूमत:शासन;  ख़मियाज़: :क्षति-पूर्त्ति;  सब्र: धैर्य; इंतेहा: अति; गर: यदि ।





बुधवार, 7 अक्तूबर 2015

जूता मज़ूर का...

आंखों  से  जब  हटेगा  पर्दा  ग़ुरूर  का
देखेंगे  रंग  होगा  कैसा  हुज़ूर  का

है  शाह  या  मदारी  ख़ुद  फ़ैसला  करें
दुनिया  सुना  रही  है  क़िस्सा  शुऊर  का

सरमाएदार  अपना  घर  भूल  जाएंगे
हाथों  में  आ  गया  गर  जूता  मज़ूर  का

मुजरिम  सफ़ाई  दे  कर  बेचैन  है  बहुत
दिल  पर  पड़ा  हुआ  है  साया  क़ुसूर  का

लाशा  चला  नहीं  है  मैदान  से  अभी
घर  पर  लगा  हुआ  है  मजमा  तुयूर  का

नाराज़  हैं  ख़ुदा  से  मुफ़्ती-ओ-मौलवी
मंज़ूर  हो  गया  फिर  सज्दा  गयूर  का

आए  हैं  तूर  पर  हम  इस  एतबार  से
देखेंगे  आज  हम  भी  जल्वा  ज़ुहूर  का !

                                                                          (2015)

                                                                   -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ग़ुरूर:घमंड; हुज़ूर:श्रीमान, मालिक; शुऊर:ढंग, आचरण-शैली; सरमाएदार:पूंजीपति; मज़ूर:श्रमिक, मज़दूर; मुजरिम:अपराधी; सफ़ाई:स्पष्टीकरण; साया: छाया; क़ुसूर:दोष; लाशा:शव; मैदान:रणभूमि;   मजमा : झुंड, भीड़; तुयूर:पक्षियों; मुफ़्ती-ओ-मौलवी: धर्माचार्य और धार्मिक शिक्षक; मंज़ूर: स्वीकार;   सज्दा:आपादमस्तक प्रणाम; गयूर:स्वाभिमानी व्यक्ति; तूर:मिथकीयपर्वत, काला पहाड़, जहां हज़रत मूसा अ.स. को ईश्वर की झलक दिखाई दी थी; एतबार: विश्वास; जल्वा:दृश्य; ज़ुहूर: (ईश्वर का) प्रकट होना ।

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2015

कोई लम्हा ख़ुशी का ....

अजब  रंग  है  आपकी  दोस्ती  का
कि  एहसास  होने  लगे  बेबसी  का

शबे-वस्ल  तो  बख़्श  दीजे  ख़ुदारा
ये  मौक़ा  नहीं  है  मियां  दिल्लगी  का

सिकुड़ना सिमटना  कहां  तक  चलेगा
तलाशा  करें  कोई  लम्हा  ख़ुशी  का

परेशान  हैं  लोग  मेंहगाइयों  से
इरादा  न  करने  लगें  ख़ुदकुशी  का

क़सब  गर  करे  ज़िंदगी  की  हिमायत
निकल  जाएगा  दम  यूंही  आदमी  का

पढ़ें  आप  जुगराफ़िया  जब  वफ़ा  का
पता  ढूंढ  लीजे  हमारी  गली  का

कभी  रूह  से  पूछ  कर  देखिएगा
कि  क्या  राज़  है  आपकी  बदज़नी  का

किसी  रोज़  दिल  में  उतर  आइएगा
तो  ख़ुद  देख  लीजे  करिश्मा  ख़ुदी  का  !

                                                                                   (2015)

                                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: एहसास: अनुभूति; बेबसी:विवशता; शबे-वस्ल: मिलन-निशा; बख़्श: छोड़; ख़ुदारा: ख़ुदा/ईश्वर के लिए; दिल्लगी: हास-परिहास; लम्हा: क्षण; ख़ुदकुशी: आत्म-हत्या; क़सब: वधिक; हिमायत: सुरक्षा; जुगराफ़िया: भूगोल; वफ़ा: निष्ठा; बदज़नी: दुराचारी प्रवृत्ति;  करिश्मा: चमत्कार, स्व-निर्मित व्यक्तित्व, स्वाभिमान।




सोमवार, 5 अक्तूबर 2015

सब्र की सज़ा ...

हमको  निबाह  करना  मुश्किल  नहीं  रहा
यह   शह्र  ही    हमारे    क़ाबिल   नहीं  रहा

आते   हुए     मेह्रबां    कुछ   देर   कर  गए
जिस  पर  हमें  गुमां  था  वो  दिल  नहीं  रहा

यूं    याद  आएंगे    हम   अपने  रक़ीब  को
'वो  अम्न  का  सिपाही  बुज़दिल  नहीं  रहा'

दिल  की  ख़रोंच  पर  जो  मरहम  लगा  सके
कोई   तबीब    इतना   कामिल    नहीं   रहा

आख़िर    वज़ीर  है  वो    मुख़्तार   शाह  का
उसने  कहा  तो  क़ातिल,  क़ातिल  नहीं  रहा

इसको   नसीब  कहिए    या   सब्र  की  सज़ा
हमको  करम  ख़ुदा  का    हासिल  नहीं  रहा

हम   क़त्ल  हो  गए    वो    बैठा  है    क़स्र  में
पुर्सिश  वो  क्या  करे  जो  बिस्मिल  नहीं  रहा !

                                                                                        (2015)

                                                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:   मेह्रबां: कृपालु; गुमां: गर्व; रक़ीब: प्रतिद्वंदी, शत्रु; अम्न: शांति; बुज़दिल: भीरु; तबीब: उपचारक, हकीम;  कामिल: संपूर्ण, सुयोग्य; वज़ीर:मंत्री; मुख़्तार: प्रवक्ता; क़ातिल:हत्यारा; नसीब: प्रारब्ध; सब्र: धैर्य; करम: कृपा; हासिल: उपलब्ध; क़स्र: महल; पुर्सिश:सांत्वना, संवेदना; बिस्मिल: घायल।

रविवार, 4 अक्तूबर 2015

रोज़ गिरते हैं ...

रोज़  गिरते  हैं  हाथ  मलते  हैं
आप  फिर  राह  क्यूं  बदलते  हैं

राम  उस  वक़्त  याद  आते  हैं
जब  ज़ेह्न  में  फ़ितूर  पलते  हैं

रास  आता  नहीं  सियासत  को
लोग  जब  एक  साथ  चलते  हैं

आस्मां  तक  धमक  पहुंचती  है
आंख  से  ख़्वाब  जब  फिसलते  हैं

वो  दिवाली  तभी  मनाते  हैं
जब  मकां  मोमिनों  के  जलते  हैं

क़ातिलों  के  निज़ाम  में  बच्चे
साथ  लेकर  क़फ़न  निकलते  हैं

तोड़  दे  ज़ुल्म  जब  हदें  अपनी
नौजवां  फिर  कहां  संभलते  हैं  !

                                                                 (2015)

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़ेह्न:मस्तिष्क; फ़ितूर:उपद्रव; मकां: भवन, घर; मोमिनों:आस्थावानों; निज़ाम:राज्य;  ज़ुल्म:अत्याचार ।


शनिवार, 3 अक्तूबर 2015

शर्म आती तो...

आ  गए  दर्द  को  बाज़ार  बनाने  वाले
बस्तियां  फूंक  के  त्यौहार  मनाने  वाले

अपने  बच्चों  से  ज़रा  आंख  मिला  कर  देखें
सिर्फ़  अफ़वाह  पे  हथियार  उठाने  वाले

वक़्त  जिस  रोज़  हवाओं  की  शहादत  लेगा
रोएंगे  मौत  का  ब्यौपार  चलाने  वाले

लोग  नादान  नहीं  हैं  कि  भरोसा  कर  लें
आप  लगते  नहीं  सरकार,  निभाने  वाले

रूह  को  बेच  के  जाते  हैं  क़सीदे  पढ़ने
जश्न  में  शाह  का  दरबार  सजाने  वाले

शर्म  आती  तो  कहीं  डूब  न  मरते  अब  तक
ज़ख्मे-मज़्लूम  को  हर  बार  भुनाने  वाले

तंगनज़रों  के  भरम  तोड़  के  दिखलाएंगे
शक़-ओ-शुब्हात  की  दीवार  गिराने  वाले !

                                                                                           (2015)

                                                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शहादत : साक्ष्य; ब्यौपार : व्यापार; नादान : अबोध; रूह : आत्मा; क़सीदे :विरुदावली ; जश्न : समारोह; ज़ख्मे-मज़्लूम : अत्याचार पीड़ितों के घाव; तंगनज़रों :संकीर्ण दृष्टि वाले ; भरम: भ्रम; शक़-ओ-शुब्हात : संदेह और शंकाएं।

शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2015

टपकता है लहू...

हमारा  दिल  ख़रीदोगे  तुम्हारी  हैसियत  क्या  है
फ़क़ीरों  की  नज़र  में  दो-जहां  की  सल्तनत  क्या  है

ग़लाज़त  के  सिवा  कुछ  भी  निकलता  ही  नहीं  मुंह  से
तअज्जुब  है  ज़माने  को  तुम्हारी  तरबियत  क्या  है

ज़ुबां  कुछ  और  कहती  है  अमल  कुछ  और  होता  है
बताएं  क्या  मुरीदों  को  मियां  की  असलियत  क्या  है

मज़ाहिब  क़त्लो-ग़ारत  को  बना  लें  खेल  जब  अपना
हुकूमत  साफ़  बतलाए  कि  उसकी  मस्लेहत  क्या  है

जहालत  के    अंधेरे    रौशनी  को    क़त्ल    कर  आए
किसी  को  क्या  ख़बर  उस  गांव  की  अब  कैफ़ियत  क्या  है

टपकता  है  लहू  अख़बार  के  हर  हर्फ़  से  लेकिन
वतन  के  रहबरां  ख़ुश  हैं  ये  जश्ने-आफ़ियत  क्या  है

खड़े  है  ख़ुल्द  के  दर  पर  फ़रिश्ते  ख़ैर-मक़दम  को
मियां  जी   जानते  हैं  शो'अरा   की  अहमियत  क्या  है !


                                                                                                               (2015)

                                                                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हैसियत:सामर्थ्य; फ़क़ीरों: संतों;   दो-जहां: दोनों लोक, इहलोक-परलोक; सल्तनत: साम्राज्य; ग़लाज़त: घृणित बातें, अपशब्द; तरबियत: संस्कार; अमल:क्रियान्वयन; मुरीदों:प्रशंसकों, भक्तों; मियां:आदरणीय व्यक्ति, यहां आशय शासक; असलियत:वास्तविकता; मज़ाहिब:धार्मिक समूह(बहुव.); क़त्लो-ग़ारत:हिंसाचार; हुकूमत:शासन-तंत्र, सरकार; मस्लेहत:निहित उद्देश्य; जहालत: अज्ञान; कैफ़ियत:हाल-चाल;  लहू: रक्त; हर्फ़: अक्षर; रहबरां:नेता गण; जश्ने-आफ़ियत:सुख-शांति का समारोह।