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बुधवार, 6 मई 2015

सब्र मत कीजिए ...!

दिलजलों  का  अभी  ज़िक्र  मत  कीजिए
वस्ल  की   रात  को   हिज्र  मत  कीजिए

दोस्तों    के   दिलों    का     भरोसा    नहीं
दुश्मनों  की  मगर   फ़िक्र   मत  कीजिए

साथ   चलना    ज़रूरी    नहीं   था    कभी
चल  पड़े  तो  मियां !  मक्र  मत  कीजिए

कौन  क्या  खाएगा,   शाह  क्यूं  तय  करे
रिज़्क़  पर  इस  क़दर  जब्र  मत  कीजिए

सुन  चुके  शोर   अच्छे  दिनों  का   बहुत
अब  किसी  बात  पर  सब्र  मत  कीजिए

नस्ले-दहक़ान  का   रिज़्क़   तो  बख़्शिए 
ताजिरों   को    ज़मीं   नज़्र  मत  कीजिए

गिर  चुके  हैं    कई  सर    इसी  शौक़  में
ताज-ओ-तख़्त  पर   फ़ख्र  मत  कीजिए !

                                                                            (2015)

                                                                    -सुरेश  स्वप्निल  

शब्दार्थ: ज़िक्र: उल्लेख; वस्ल: मिलन; हिज्र: वियोग; मक्र: बहाने बनाना, आना-कानी; रिज़्क़: भोजन; जब्र: बल-प्रयोग; 
सब्र: धैर्य; नस्ले-दहक़ान: कृषक-संतति; बख़्शिए: छोड़िए; ताजिरों: व्यापारियों; नज़्र: भेंट;  फ़ख्र: गर्व ।