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शनिवार, 16 नवंबर 2013

नींद आए न तुझे !

क्या ख़बर  किसकी दुआ  लग  जाए
 यार    को      मर्ज़े-वफ़ा   लग  जाए

कौन  बचता  है    घाट  का   घर  का
जो   ज़माने   की    हवा    लग  जाए

शायरी    के      सिवा      पनाह  नहीं
जो  दिल  पे    संगे-जफ़ा   लग  जाए

हो   शिफ़ा    इश्क़   की     हरारत  से
शैख़  साहब    की     दवा   लग  जाए

जान     बच     जाए      बेगुनाहों  की
काश!  क़ातिल  को   हया  लग  जाए

वो:  तेरा  अक्स  लगेगा   जिस  दिन
चांद    को     रंगे-हिना      लग  जाए

नींद   आए   न     तुझे   भी    या  रब
क़ैस   की      आहो-सदा    लग  जाए !

                                            ( 2013 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मर्ज़े-वफ़ा: निर्वाह का रोग; पनाह: शरण; संगे-जफ़ा: बे-ईमानी/अन्याय का पत्थर; शिफ़ा: आरोग्य;
हरारत: गर्मी, बुख़ार; शैख़: धर्म-भीरु, मद्यपान-विरोधी;हया: लज्जा; अक्स: प्रतिबिम्ब; रंगे-हिना: मेंहदी का रंग;
क़ैस: लैला का प्रेमी, मजनूं, प्रेमोन्मादी; आहो-सदा: चीख़-पुकार।