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गुरुवार, 28 मई 2015

...रक़्म लिए बैठे हैं !

कितने  नादां  हैं,  खुले  ज़ख़्म  लिए  बैठे  हैं
ख़ुद  को  बेपर्द:    सरे-बज़्म     किए  बैठे  हैं

आपको  वक़्त  लगेगा   ये   समझ  पाने  में
मुख़्तसर  उम्र  में  सौ  जन्म   जिए  बैठे  हैं

वाहवाही  से   मिले  वक़्त    तो  देखें  हमको
हम  भी   गोशे  में   नई  नज़्म  लिए  बैठे  हैं

फिर  उन्हीं  यार  से  हम  आज  मुख़ातिब होंगे
जो   ज़माने   से    रब्त     ख़त्म   किए  बैठे  हैं 

क्या  ख़बर  कौन   यहां  इश्क़  की  क़ीमत  मांगे
लोग     दानिश्त:    बड़ी   रक़्म     लिए    बैठे  हैं

वक़्त    उनकी  भी    किसी  रोज़    गवाही  लेगा
रहजनों  को    जो  यहां     अज़्म    दिए   बैठे  हैं

आए   तो   हैं   वो     मेरी    गोर   चराग़ां  करने
फ़ातिहा  जैसी     कोई     रस्म    लिए   बैठे  हैं  !

                                                                                     (2015)

                                                                              -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: नादां: अबोध; ज़ख़्म: घाव; बेपर्द:: अनावृत; सरे-बज़्म: भरी सभा में; मुख़्तसर: संक्षिप्त; गोशे: कोने; नज़्म: कविता; 
मुख़ातिब: संबोधित; रब्त: संपर्क, मेल-जोल; दानिश्त:: जान-बूझ कर, सोच-समझ कर; रक़्म: धन-राशि; गवाही: साक्ष्य; रहजनों: मार्ग में लूटने वालों; अज़्म: प्रतिष्ठा, महानता; गोर: समाधि;  चराग़ां:  दीप जलाना ; फ़ातिहा: मृतक के सम्मान में की जाने वाली प्रार्थना; रस्म: प्रथा।