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रविवार, 26 अक्तूबर 2014

ये दरबारे-हुसैनी...

शहीदाने-वफ़ा  के  ख़ून  से  तहरीर  लिक्खी  है
ख़ुदा  ने  कर्बला  की  क्या  ग़ज़ब  तक़दीर  लिक्खी  है 



अज़ल  के  बाद  भी  ज़िंदा  रहेगा  ख़ानदां  उनका
कि  जिनके  नाम  प  तारीख़  ने  शमशीर  लिक्खी  है


कटे  बाज़ू  हज़ारों  साल  दुनिया  को  दिखाएंगे
रग़-ए-अब्बास  में  मौला,  तिरी  तासीर  लिक्खी  है


ज़मीं-ए-कर्बला  में  फिर यज़ीदी  सोच  क़ाबिज़ है
जहां  पर दास्ताने-क़त्ल-ए-शब्बीर  लिक्खी  है


ये  दरबारे-हुसैनी  है,  यहां  फ़िरक़े  नहीं  चलते
यहां  हर  क़ल्ब  में  बस  अम्न  की  तस्वीर  लिक्खी  है ...

(2014)

-सुरेश स्वप्निल 

शब्दार्थ:

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