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बुधवार, 8 फ़रवरी 2017

दर्दे-दिल के अफ़्आल ...

सल्तनत   के  ज़वाल  की  आहें
ज़र्द    जाहो-जलाल    की  आहें

मांगती  हैं  हिसाब  वहशत  का
हर  सुलगते   सवाल  की  आहें

लफ़्ज़  शायद  बयां  न  कर  पाएं
नर्मो-नाज़ुक़  ख़्याल  की  आहें

पढ़  रही  हैं  मिज़ाज  यारों  का
मुफ़्लिसे-ख़स्त:हाल   की  आहें

आप  सहते  तो  याद  भी  रखते
हिज्र  के  माहो-साल  की  आहें

क़ैदे-सफ़्हात    में   तड़पती  हैं
दर्दे-दिल  के अफ़्आल  की  आहें

काश !  हमदर्द  कोई  गिन  पाता
इस  दिले-बेमिसाल   की   आहें !

                                                             (2017)

                                                      -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: सल्तनत : राज; ज़वाल: पतन; ज़र्द: निस्तेज; जाहो-जलाल: तेज-प्रताप; वहशत: भयानक व्यवहार; लफ़्ज़; शब्द; बयां; व्यक्त; नर्मो-नाज़ुक़; कोमल एवं मृदुल; मिज़ाज; तबीयत; हिज्र: वियोग; माहो-साल; महीने एवं वर्ष; क़ैदे-सफ़्आत : पृष्ठों में बंदी; अफ़्आल: रचना-संग्रह; हमदर्द; पीड़ा में सहभागी, सहानुभूतिशील; दिले-बेमिसाल; अप्रतिम हृदय ।