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रविवार, 6 अक्तूबर 2013

दीवाने हम हुए...!

जन्नत  से  लौट  आए  तेरे  एहतराम  में
सौग़ाते-शबे-वस्ल  मिले  अब  इनाम  में

इस  दौरे-मुफ़लिसी  में  आ  रहे  हैं  वो:  मेहमां
दीवाने    हम   हुए   हैं      इसी    इंतज़ाम  में

तौहीने-इश्क़    क्यूं  न   इसे  मानिए  जनाब
जो  मुस्कुरा  रहे  हैं  आप  जवाबे-सलाम  में

अब  वो:  भी  समझ  जाएं  के:  हम  दर-बदर  नहीं
भेजे  हैं  गुल    हमें  भी   किसी  ने  पयाम  में

ग़ाफ़िल  है  शाहे-हिन्द  जिसे  ये:  ख़बर  नहीं
दस्तार    तार-तार    है    उसकी   अवाम  में

उस  शाह  को  रैयत  पे  हुक़ूमत  का  हक़  नहीं
मरते  हों  तिफ़्ल  भूख  से  जिसके  निज़ाम  में

इस  दारे-सियासत  की  हक़ीक़त  है  बस  यही
'उरियां   खड़े  हुए   हैं    सभी    इस  हमाम  में !

                                                              ( 2013 )

                                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:  एहतराम: सम्मान; सौग़ाते-शबे-वस्ल: मिलन-निशा का उपहार; दौरे-मुफ़लिसी: निर्धनता-चक्र; तौहीने-इश्क़: प्रेम का अपमान; पयाम: प्रेम-सन्देश; ग़ाफ़िल: दिग्भ्रमित; दस्तार: पगडी; अवाम:जन-सामान्य; रैयत: शाषित; तिफ़्ल: शिशु; निज़ाम: शासन-व्यवस्था; दारे-सियासत: राजनैतिक संसद; हक़ीक़त: वास्तविकता; 'उरियां: निर्वस्त्र; हमाम: सार्वजनिक स्नानागार !